दो दिन पहले एक टीवी चैनल पर टीम अन्ना के अनशन और स्वामी रामदेव
के आंदोलन को लेकर बहस का कार्यक्रम चल रहा था। इस बहस में गांधीजी के वंशज
तुषार गांधी सहित कई प्रमुख लोग भाग ले रहे थे। कांग्रेस की ओर से राशिद
अल्वी को वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये शामिल किया गया था।
कांग्रेस के प्रवक्ता की हैसियत से राशिद अल्वी का तर्क यह था कि जैसा समाज होगा, वैसे ही नेता होंगे क्योंकि नेता भी उसी समाज से आते हैं।
अल्वी कह रहे थे कि अपना जनप्रतिनिधि खुद जनता चुनती है और जनता यदि नहीं चाहती तो ऐसे लोग कई-कई बार जीतकर कैसे संसद व विधानसभाओं में पहुंच जाते हैं।
इसके अलावा राशिद अल्वी का यह भी कहना था कि चुनी हुई सरकार अगर सही काम नहीं करती तो लोकतंत्र ने हर पांच साल बाद चुनाव कराने की व्यवस्था की है लिहाजा जनता उस सरकार को बदल सकती है।
राशिद अल्वी ने कोई नई बात नहीं की। उन्होंने वही कहा जो हर नेता 65 सालों से कहता चला आ रहा है और फिलहाल कांग्रेस के सारे नेता उसे दोहरा रहे हैं।
राशिद अल्वी या दूसरे कांग्रेसी ऐसे कु-तर्क सत्ता के शिखर पर बैठकर दे सकते हैं क्योंकि वहां किसी को जवाब नहीं देना पड़ता लेकिन सच्चाई से वो भी अनभिज्ञ नहीं होंगे।
क्या वो नहीं जानते कि राजनीति के खिलाड़ियों ने जनता के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं छोड़ा जिससे जनता अपने पसंद के प्रतिनिधि संसद और विधानसभाओं तक भेज सके।
क्या उन्हें नहीं मालूम कि जनता बड़े अपराधी और छोटे अपराधियों में से ही किसी एक का चुनाव करने को अभिशप्त है क्योंकि सभ्य व्यक्ति के लिए राजनीतिज्ञों ने अपने दरवाजे बंद कर रखे हैं।
क्या अल्वी साहब और दूसरे तमाम नेताओं को नहीं पता कि किसी बड़ी पार्टी का टिकट पाने से लेकर चुनाव लड़ने तक के लिए कितने धनबल और बाहुबल की आवश्यकता होती है और किसी सज्जन व्यक्ति के लिए वो सब जुटा पाना संभव नहीं होता।
जहां तक सवाल है पांच साल बाद होने वाले चुनाव में सरकार बदलने के लिए जनता को दिये गये अधिकार का तो उसे भी राजनीतिक पार्टियां अपनी सुविधानुसार तोड़-मरोड़ लेती हैं।
स्पष्ट बहुमत न मिलने पर जुगाड़ की सरकार बना लेती हैं और अल्पमत में आने पर सीबीआई का भय दिखाकर क्षेत्रीय दलों का समर्थन हासिल कर लेती हैं।
कांग्रेसी नेताओं द्वारा एक बात और कही जाती है। वह कहते हैं कि सारे नेता भ्रष्ट नहीं हैं।
बेशक किसी भी व्यवस्था में सारे तत्व एक जैसे नहीं होते लिहाजा सारे नेता भी भ्रष्ट नहीं होंगे पर इस तरह की दलील देने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि हर चीज का आंकलन परसंटेज से ही होता है। यदि किसी व्यवस्था में 90 फीसदी तत्व भ्रष्ट हो चुके हैं तो यही कहा जाता है कि सब भ्रष्ट हैं क्योंकि शेष 10 फीसदी की आवाज़ नक्कारखाने में तूती ही साबित होती है।
टीवी चैनल्स पर चर्चा में अक्सर अन्ना हजारे के अनशन की तुलना गांधीजी के अनशनों से की जाती है।
कहा जाता है कि गांधीवाद की बात करने वाले वर्तमान अनशनकारी गांधी के सिद्धांतों से कोसों दूर हैं।
गांधीजी के अनशन व आंदोलनों से कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के विरोध की तुलना कितनी बेमानी है, इसे कुछ यूं समझा जा सकता है-
1- गांधीजी ने फिरंगियों के खिलाफ भारत को स्वतंत्र कराने की लड़ाई लड़ी थी जबकि वर्तमान लड़ाई भ्रष्टाचार व कालेधन से पैदा हुई देश की बदहाली के खिलाफ है।
2- गांधीजी द्वारा लड़ी गई लड़ाई के वक्त देश की जनता भावनात्मक रूप से आंदोलनकारियों के साथ थी और सत्ता पर विदेशी काबिज थे लेकिन आज टीम अन्ना व स्वामी रामदेव को उन तत्वों से लड़ाई लड़नी पड़ रही है जो इस देश के ही लोग हैं और संविधान की आड़ लेकर सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं। देश को 65 सालों से लूट रहे हैं।
सर्वविदित है कि बाहरी तत्वों की तुलना में अपनों से लड़ना कहीं अधिक कठिन होता है। और ऐसे अपनों से लड़ना ज्यादा मुश्किल होता है जो सत्ता के मद में चूर होकर यह समझ बैठे हों कि वह जनसेवक नहीं, जनवाहक हैं।
जो ऐसा मान चुके हों कि सत्ता उनकी विरासत है और वही देश के भाग्य विधाता हैं।
सत्ता पर काबिज लोगों की भाषा पर गौर करें तो यह साफ जाहिर भी होता है।
कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद कहते हैं कि रामलीला मैदान में हर साल रामलीला होती है। सरकार का बातचीत का कोई इरादा नहीं है।
कांग्रेसी प्रवक्ता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने तो स्वामी रामदेव को पहचानने से ही इंकार कर दिया।
पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह की जुबान पर किसी की लगाम नहीं है। उनके मुंह से कब क्या निकल जाए, संभवत: खुद उन्हें पता नहीं होता।
इनके अलावा कपिल सिब्बल, अंबिका सोनी, पी चिदम्बरम, नारायण सामी, जनार्दन द्विवेदी व मनीष तिवारी जैसे अनेक नेताओं को भी यूपीए सरकार ने अनर्गल प्रलाप करने की पूरी छूट दे रखी है। अभिषेक मनु सिंघवी जब से सेक्स स्केंडल में फंसे तब से वह इस जिम्मेदारी से मुक्त कर दिये गये।
इन सबके ठीक उलट यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जैसे बड़े नेता मौन धारण किये रहते हैं। महंगाई और भ्रष्टाचार के संदर्भ में वह बोलते भी हैं तो कुछ ऐसा जो जले पर नमक छिड़कने की कहावत को चरितार्थ करता है।
आश्चर्यजनक रूप से मीडिया भी अब सरकार के प्रवक्ता की भूमिका निभा रहा है और कालेधन, भ्रष्टाचार व महंगाई के खिलाफ बोलने वालों से चरित्र प्रमाण पत्र पेश करने की मांग करता है।
दरअसल किसी भी किस्म की पत्रकारिता अब एक उद्योग का रूप ले चुकी है और कोई उद्योग सरकार से सहयोग पाये बिना चला पाना संभव नहीं होता।
फिर पत्रकारिता तो ऐसा उद्योग है जो सिर्फ और सिर्फ विज्ञापन पर निर्भर है और विज्ञापन पॉलिसी निर्धारित करने से लेकर, रेट्स का निर्धारण करने व विज्ञापन के पैनल में शामिल करने तक का अधिकार सरकार के पास है। किसे उसका पात्र माना जाए और किसका प्रार्थना पत्र खारिज कर दिया जाए, सब सरकारी मशीनरी की कृपा पर निर्भर है।
रही बात कॉमर्शियल यानी निजी कंपनियों के विज्ञापन की तो वह भी सरकार के इशारे पर मिलते हैं। सरकार यदि ना चाहे तो क्या मजाल कि कोई कंपनी किसी अखबार या चैनल को विज्ञापन देने की हिमाकत कर सके।
इस देश को बद से बदतर स्थितियों तक पहुंचाने में पहले तो नेताओं व अपराधियों के गठजोड़ ने बड़ी भूमिका निभाई, उसके बाद ब्यूरोक्रेसी ने मनचाहे ट्रांसफर-पोस्टिंग की खातिर सत्ता पर काबिज लोगों की जी हुजूरी करके भ्रष्टाचार को परवान चढ़ाया और अब जायज व नाजायज कमाई के लिए मीडिया उनकी शरणागत हो चुका है। वह हर समस्या और उसके समाधान को सरकारी चश्मे से देखने का आदी हो गया है। हां कुछ जुनूनी लोग हैं जो सच्चाई सामने लाने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं पर उनकी राह बहुत कठिन है क्योंकि उनकी राह में इरादतन कांटे बोये जाते हैं अत: उन्हें दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है।
नेता, अपराधी और मीडिया का गठजोड़ एक नये किस्म की तानाशाही को जन्म दे रहा है। एक ऐसी तानाशाही जो लोकतंत्र को अपना हथियार बना चुकी है। यह गठजोड़ एक ओर तो कहता है कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का अधिकार है, आंदोलन व अनशनों के लिए लोकतंत्र में पूरी छूट है लेकिन दूसरी ओर अनशन व आंदोलन करने वालों से दुश्मनों सा व्यवहार करता है।
सत्ताधारी दल के लोग, यहां तक कि विपक्षी पार्टियां भी पहले तो कहती हैं कि यदि हम पर विश्वास नहीं है तो चुनाव लड़िये और फिर अपने हिसाब से कानून बनाइये लेकिन जब टीम अन्ना राजनीतिक पार्टी बनाने की बात करती है तो कहते हैं कि इनका असली मकसद यही था।
कांग्रेसी नेता सत्ता के मद में चूर होकर आज जो चाहें बोल लें, जैसी चाहे दलील दे लें, हर बात के मायने अपने हिसाब से निकाल लें और कानून से लेकर लोकतंत्र तक की परिभाषा अपने अनुसार गढ़ लें परन्तु जनता सब देख व समझ रही है।
महंगाई व भ्रष्टाचार आज उसकी मजबूरी बन चुका है पर अति हर चीज की बुरी होती है, इस सत्य को कोई नहीं झुठला सकता।
टीवी चैनल पर बहस के दौरान किसी ने कहा था कि पांच सालों के लिए सत्ता सौंपने का यह मतलब कतई नहीं होता कि चंद लोगों को देश लूटने व उसकी अस्मिता व उसके संसाधनों का मनमाफिक सौदा करने की छूट दे दी जाती हो।
अगर पांच साल के लिए सत्ता सौंपे जाने का अर्थ यह निकाला जाने लगा है कि देश व उसकी संपदा किसी की निजी जागीर है तो यह गलतफहमी जितनी जल्दी दूर कर ली जाए, बेहतर होगा।
माना कि अन्ना का आंदोलन आज अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाया। हो सकता है कि स्वामी रामदेव के आंदोलन को भी अपेक्षित सफलता न मिल सके लेकिन एक बात तय है कि जो बात इन आंदोलनों से निकली है, उसे दूर तक जाने से कोई नहीं रोक सकता।
कांग्रेस के प्रवक्ता की हैसियत से राशिद अल्वी का तर्क यह था कि जैसा समाज होगा, वैसे ही नेता होंगे क्योंकि नेता भी उसी समाज से आते हैं।
अल्वी कह रहे थे कि अपना जनप्रतिनिधि खुद जनता चुनती है और जनता यदि नहीं चाहती तो ऐसे लोग कई-कई बार जीतकर कैसे संसद व विधानसभाओं में पहुंच जाते हैं।
इसके अलावा राशिद अल्वी का यह भी कहना था कि चुनी हुई सरकार अगर सही काम नहीं करती तो लोकतंत्र ने हर पांच साल बाद चुनाव कराने की व्यवस्था की है लिहाजा जनता उस सरकार को बदल सकती है।
राशिद अल्वी ने कोई नई बात नहीं की। उन्होंने वही कहा जो हर नेता 65 सालों से कहता चला आ रहा है और फिलहाल कांग्रेस के सारे नेता उसे दोहरा रहे हैं।
राशिद अल्वी या दूसरे कांग्रेसी ऐसे कु-तर्क सत्ता के शिखर पर बैठकर दे सकते हैं क्योंकि वहां किसी को जवाब नहीं देना पड़ता लेकिन सच्चाई से वो भी अनभिज्ञ नहीं होंगे।
क्या वो नहीं जानते कि राजनीति के खिलाड़ियों ने जनता के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं छोड़ा जिससे जनता अपने पसंद के प्रतिनिधि संसद और विधानसभाओं तक भेज सके।
क्या उन्हें नहीं मालूम कि जनता बड़े अपराधी और छोटे अपराधियों में से ही किसी एक का चुनाव करने को अभिशप्त है क्योंकि सभ्य व्यक्ति के लिए राजनीतिज्ञों ने अपने दरवाजे बंद कर रखे हैं।
क्या अल्वी साहब और दूसरे तमाम नेताओं को नहीं पता कि किसी बड़ी पार्टी का टिकट पाने से लेकर चुनाव लड़ने तक के लिए कितने धनबल और बाहुबल की आवश्यकता होती है और किसी सज्जन व्यक्ति के लिए वो सब जुटा पाना संभव नहीं होता।
जहां तक सवाल है पांच साल बाद होने वाले चुनाव में सरकार बदलने के लिए जनता को दिये गये अधिकार का तो उसे भी राजनीतिक पार्टियां अपनी सुविधानुसार तोड़-मरोड़ लेती हैं।
स्पष्ट बहुमत न मिलने पर जुगाड़ की सरकार बना लेती हैं और अल्पमत में आने पर सीबीआई का भय दिखाकर क्षेत्रीय दलों का समर्थन हासिल कर लेती हैं।
कांग्रेसी नेताओं द्वारा एक बात और कही जाती है। वह कहते हैं कि सारे नेता भ्रष्ट नहीं हैं।
बेशक किसी भी व्यवस्था में सारे तत्व एक जैसे नहीं होते लिहाजा सारे नेता भी भ्रष्ट नहीं होंगे पर इस तरह की दलील देने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि हर चीज का आंकलन परसंटेज से ही होता है। यदि किसी व्यवस्था में 90 फीसदी तत्व भ्रष्ट हो चुके हैं तो यही कहा जाता है कि सब भ्रष्ट हैं क्योंकि शेष 10 फीसदी की आवाज़ नक्कारखाने में तूती ही साबित होती है।
टीवी चैनल्स पर चर्चा में अक्सर अन्ना हजारे के अनशन की तुलना गांधीजी के अनशनों से की जाती है।
कहा जाता है कि गांधीवाद की बात करने वाले वर्तमान अनशनकारी गांधी के सिद्धांतों से कोसों दूर हैं।
गांधीजी के अनशन व आंदोलनों से कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के विरोध की तुलना कितनी बेमानी है, इसे कुछ यूं समझा जा सकता है-
1- गांधीजी ने फिरंगियों के खिलाफ भारत को स्वतंत्र कराने की लड़ाई लड़ी थी जबकि वर्तमान लड़ाई भ्रष्टाचार व कालेधन से पैदा हुई देश की बदहाली के खिलाफ है।
2- गांधीजी द्वारा लड़ी गई लड़ाई के वक्त देश की जनता भावनात्मक रूप से आंदोलनकारियों के साथ थी और सत्ता पर विदेशी काबिज थे लेकिन आज टीम अन्ना व स्वामी रामदेव को उन तत्वों से लड़ाई लड़नी पड़ रही है जो इस देश के ही लोग हैं और संविधान की आड़ लेकर सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं। देश को 65 सालों से लूट रहे हैं।
सर्वविदित है कि बाहरी तत्वों की तुलना में अपनों से लड़ना कहीं अधिक कठिन होता है। और ऐसे अपनों से लड़ना ज्यादा मुश्किल होता है जो सत्ता के मद में चूर होकर यह समझ बैठे हों कि वह जनसेवक नहीं, जनवाहक हैं।
जो ऐसा मान चुके हों कि सत्ता उनकी विरासत है और वही देश के भाग्य विधाता हैं।
सत्ता पर काबिज लोगों की भाषा पर गौर करें तो यह साफ जाहिर भी होता है।
कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद कहते हैं कि रामलीला मैदान में हर साल रामलीला होती है। सरकार का बातचीत का कोई इरादा नहीं है।
कांग्रेसी प्रवक्ता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने तो स्वामी रामदेव को पहचानने से ही इंकार कर दिया।
पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह की जुबान पर किसी की लगाम नहीं है। उनके मुंह से कब क्या निकल जाए, संभवत: खुद उन्हें पता नहीं होता।
इनके अलावा कपिल सिब्बल, अंबिका सोनी, पी चिदम्बरम, नारायण सामी, जनार्दन द्विवेदी व मनीष तिवारी जैसे अनेक नेताओं को भी यूपीए सरकार ने अनर्गल प्रलाप करने की पूरी छूट दे रखी है। अभिषेक मनु सिंघवी जब से सेक्स स्केंडल में फंसे तब से वह इस जिम्मेदारी से मुक्त कर दिये गये।
इन सबके ठीक उलट यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जैसे बड़े नेता मौन धारण किये रहते हैं। महंगाई और भ्रष्टाचार के संदर्भ में वह बोलते भी हैं तो कुछ ऐसा जो जले पर नमक छिड़कने की कहावत को चरितार्थ करता है।
आश्चर्यजनक रूप से मीडिया भी अब सरकार के प्रवक्ता की भूमिका निभा रहा है और कालेधन, भ्रष्टाचार व महंगाई के खिलाफ बोलने वालों से चरित्र प्रमाण पत्र पेश करने की मांग करता है।
दरअसल किसी भी किस्म की पत्रकारिता अब एक उद्योग का रूप ले चुकी है और कोई उद्योग सरकार से सहयोग पाये बिना चला पाना संभव नहीं होता।
फिर पत्रकारिता तो ऐसा उद्योग है जो सिर्फ और सिर्फ विज्ञापन पर निर्भर है और विज्ञापन पॉलिसी निर्धारित करने से लेकर, रेट्स का निर्धारण करने व विज्ञापन के पैनल में शामिल करने तक का अधिकार सरकार के पास है। किसे उसका पात्र माना जाए और किसका प्रार्थना पत्र खारिज कर दिया जाए, सब सरकारी मशीनरी की कृपा पर निर्भर है।
रही बात कॉमर्शियल यानी निजी कंपनियों के विज्ञापन की तो वह भी सरकार के इशारे पर मिलते हैं। सरकार यदि ना चाहे तो क्या मजाल कि कोई कंपनी किसी अखबार या चैनल को विज्ञापन देने की हिमाकत कर सके।
इस देश को बद से बदतर स्थितियों तक पहुंचाने में पहले तो नेताओं व अपराधियों के गठजोड़ ने बड़ी भूमिका निभाई, उसके बाद ब्यूरोक्रेसी ने मनचाहे ट्रांसफर-पोस्टिंग की खातिर सत्ता पर काबिज लोगों की जी हुजूरी करके भ्रष्टाचार को परवान चढ़ाया और अब जायज व नाजायज कमाई के लिए मीडिया उनकी शरणागत हो चुका है। वह हर समस्या और उसके समाधान को सरकारी चश्मे से देखने का आदी हो गया है। हां कुछ जुनूनी लोग हैं जो सच्चाई सामने लाने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं पर उनकी राह बहुत कठिन है क्योंकि उनकी राह में इरादतन कांटे बोये जाते हैं अत: उन्हें दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है।
नेता, अपराधी और मीडिया का गठजोड़ एक नये किस्म की तानाशाही को जन्म दे रहा है। एक ऐसी तानाशाही जो लोकतंत्र को अपना हथियार बना चुकी है। यह गठजोड़ एक ओर तो कहता है कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का अधिकार है, आंदोलन व अनशनों के लिए लोकतंत्र में पूरी छूट है लेकिन दूसरी ओर अनशन व आंदोलन करने वालों से दुश्मनों सा व्यवहार करता है।
सत्ताधारी दल के लोग, यहां तक कि विपक्षी पार्टियां भी पहले तो कहती हैं कि यदि हम पर विश्वास नहीं है तो चुनाव लड़िये और फिर अपने हिसाब से कानून बनाइये लेकिन जब टीम अन्ना राजनीतिक पार्टी बनाने की बात करती है तो कहते हैं कि इनका असली मकसद यही था।
कांग्रेसी नेता सत्ता के मद में चूर होकर आज जो चाहें बोल लें, जैसी चाहे दलील दे लें, हर बात के मायने अपने हिसाब से निकाल लें और कानून से लेकर लोकतंत्र तक की परिभाषा अपने अनुसार गढ़ लें परन्तु जनता सब देख व समझ रही है।
महंगाई व भ्रष्टाचार आज उसकी मजबूरी बन चुका है पर अति हर चीज की बुरी होती है, इस सत्य को कोई नहीं झुठला सकता।
टीवी चैनल पर बहस के दौरान किसी ने कहा था कि पांच सालों के लिए सत्ता सौंपने का यह मतलब कतई नहीं होता कि चंद लोगों को देश लूटने व उसकी अस्मिता व उसके संसाधनों का मनमाफिक सौदा करने की छूट दे दी जाती हो।
अगर पांच साल के लिए सत्ता सौंपे जाने का अर्थ यह निकाला जाने लगा है कि देश व उसकी संपदा किसी की निजी जागीर है तो यह गलतफहमी जितनी जल्दी दूर कर ली जाए, बेहतर होगा।
माना कि अन्ना का आंदोलन आज अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाया। हो सकता है कि स्वामी रामदेव के आंदोलन को भी अपेक्षित सफलता न मिल सके लेकिन एक बात तय है कि जो बात इन आंदोलनों से निकली है, उसे दूर तक जाने से कोई नहीं रोक सकता।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया बताते चलें कि ये पोस्ट कैसी लगी ?