मंगलवार, 28 मई 2013

ये 'बिजली' ले डूबेगी अखिलेश बाबू

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
उत्‍तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मिली अप्रत्‍याशित सफलता की तरह समाजवादी पार्टी 2014 के लोकसभा चुनावों में भी सफलता पाने के ख्‍वाब संजोये हुए है। पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव सोचे बैठे हैं कि इस बार के लोकसभा चुनाव उन्‍हें दिल्‍ली का किंग न सही लेकिन किंगमेकर जरूर बनवा सकते हैं।
सोचें भी क्‍यों नहीं, आखिर उत्‍तर प्रदेश न सिर्फ उनके सर्वाधिक प्रभाव वाला सूबा है बल्‍कि दिल्‍ली की गद्दी पर काबिज होने का रास्‍ता भी यहीं से बनता है।
अब जबकि लोकसभा चुनावों की आहट सुनाई देने लगी है तो यह सवाल स्‍वत: पैदा हो जाता है कि क्‍या वाकई मुलायम सिंह अपने मकसद में सफल होंगे ?
इस सवाल का जवाब देने से पहले उत्‍तर प्रदेश की वर्तमान परिस्‍थितियों पर नजर डालनी लाजिमी है।
देशभर की राजनीति को प्रभावित करने वाले यूपी की कमान बड़ी हसरत के साथ जनता ने समाजवादी पार्टी को और पार्टी ने अपने युवराज अखिलेश यादव को सौंपी थी क्‍योंकि ऐसा माना गया कि सपा की अप्रत्‍याशित जीत में अखिलेश की बड़ी भूमिका रही।
जनता ने मुलायम तथा सपा से अधिक उस चेहरे पर भरोसा किया जो ताजगी तथा उत्‍साह से भरपूर था और जिसके अंदर कुछ कर गुजरने का जज्‍बा दिखाई देता था।
किसी हद तक यह बात सही भी थी लिहाजा जनता ने भी अखिलेश का खै़र मक़दम किया।
अब अखिलेश को यूपी की कमान संभाले हुए सालभर से करीब दो महीने अधिक बीत चुके हैं पर उनका रिपोर्ट कार्ड आमजन को निराश करता है।
बेशक अखिलेश यादव जनता से किए गये चुनावी वादों को निभाने में लगे हैं लेकिन प्रदेश पर उनकी पकड़ हर रोज ढीली होती जा रही है।
अखिलेश सरकार की ढीली होती पकड़ के दो प्रमुख कारण हैं। पहला कारण कानून-व्‍यवस्‍था की बदहाली और दूसरा बिजली की विकराल होती समस्‍या।
खुद मुलायम सिंह से लेकर अखिलेश यादव तक और शिवपाल यादव से लेकर दूसरे कद्दावर मंत्री तक आये दिन कहते रहते हैं कि अधिकारियों की निरंकुश कार्यप्रणाली उनकी सरकार पर सवालिया निशान लगवाने में बड़ी भूमिका निभा रही है।
पहली बार जब इन माननीयों के मुंह से अधिकारियों के बेलगाम होने की बात सुनी गई तो लगा कि संभवत: अगला चरण उनकी लगाम कसने का होगा और जनता शीघ्र राहत महसूस करेगी। परंतु जब आये दिन यह बात दोहराई जाने लगी तो वह एक किस्‍म के ऐसे जुमले में तब्‍दील होती दिखाई दी जो अपनी प्रशासनिक अक्षमता को छिपाने के लिए इस्‍तेमाल किया जा रहा हो।
अब लोग पूछने लगे हैं कि यदि आप निरंकुश नौकरशाही पर लगाम लगाने में खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं तो फिर कुर्सी पर बैठे क्‍यों हैं ?
लोग यह भी पूछ रहे हैं कि जनता के बीच चुनाव में जाने से पूर्व क्‍या मुलायम, अखिलेश और समाजवादी पार्टी हकीकत से वाकिफ नहीं थी ?
क्‍या उन्‍हें जनता ने स्‍पष्‍ट बहुमत के साथ इसलिए प्रदेश की कमान सौंपी थी कि वह अपनी दयनीय दशा का सार्वजनिक प्रदर्शन कर यह बताएं कि नौकरशाही के सामने वह बेबस हैं और उसके हाथ की कठपुतली बने रहने को मजबूर हैं?
इस समय गर्मी अपने पूरे सबाब पर है। सूर्य की तपिश ने लोगों का जीना मुहाल कर रखा है। ऐसे में बिजली की किल्‍लत कोढ़ में खाज की कहावत को चरितार्थ कर रही है लेकिन अखिलेश सरकार कुछ नहीं कर पा रही।
पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश का मथुरा जिला धार्मिक दृष्‍टि के साथ-साथ राजनीतिक दृष्‍टि से भी विशेष महत्‍व रखता है।
यही कारण है कि कांग्रेस हो या भाजपा और बसपा हो या सपा, सभी की इस पर नजर रहती है।
सपा के लिए मथुरा एक और मायने में विशेष महत्‍व रखती है। और वह यह कि अब तक वह इस विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक जनपद में अपना खाता नहीं खोल पाई। विधानसभा चुनावों में उसे उम्‍मीद की जो किरण दिखाई दी, आगामी लोकसभा चुनावों में वह उसे साकार होते देखना चाहती है।
इसके लिए उसने ठाकुर चंदन सिंह को काफी पहले ही अपना प्रत्‍याशी घोषित कर दिया था। इसके बाद जातिगत समीकरणों को फिट करने के उद्देश्‍य से गुरुदेव शर्मा (ब्राह्मण) को जिलाध्‍यक्ष की कमान सौंप दी।
राजनीतिक नजरिये से समाजवादी पार्टी के लिए यह समीकरण कितने फायदे का सौदा साबित होगा, यह कह पाना तो संभव नहीं परंतु इतना जरूर कहा जा सकता है कि यदि समाजवादी पार्टी इन लोकसभा चुनावों में भी मथुरा की सीट नहीं निकाल पाती तो उसका बड़ा कारण बनेगी बिजली-पानी की समस्‍या और अफसरशाही।
विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक स्‍थल होने के अलावा मथुरा ताज ट्रिपेजियम जोन का भी हिस्‍सा है और इसलिए इसे बिजली की कटौती से पूरी तरह मुक्‍त रखे जाने के आदेश हैं। सर्वोच्‍च न्‍यायालय भी इस बावत व्‍यवस्‍था दे चुका है। लेकिन इन दिनों हाल यह है कि 12-12 घंटे की कटौती यहां विभिन्‍न कारणों से जिला मुख्‍यालय में की जा रही है। कभी ऊपर से आदेश मिलने की आड़ में, कभी फॉल्‍ट के बहाने और कभी ओवरलोडिंग बताकर। देहाती इलाकों का हाल क्‍या होगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है।
बिजली विभाग के कर्मचारियों से लेकर अधिकारियों तक, कोई न सुनने वाला है और न बताने वाला। कर्मचारी कहते हैं कि अधिकारी हमें कोई जानकारी नहीं देते, सिर्फ आदेश-निर्देश देते हैं और अधिकारी जवाब देने को उपलब्‍ध नहीं होते। न प्रत्‍यक्ष और न मोबाइल पर। मथुरा जैसे ही हालात कमोबेश पूरे प्रदेश के हैं, सिवाय उन जिलों को छोड़कर जिनका ताल्‍लुक सपा के खास नेताओं से है। 
सूर्य की तपिश से त्राहि-त्राहि कर रही जनता का धैर्य बिजली के मामले में अब जवाब देने लगा है।
इस बावत आज जब 'लीजेण्‍ड न्‍यूज़' ने बिजली विभाग के एस ई अतुल निगम से बात की तो उनका कहना था कि शासन स्‍तर से न कोई कटौती निर्धारित की जाती है और ना निर्धारित की गई है। विभागीय स्‍तर पर तीन घंटे की कटौती निर्धारित है।
यह पूछे जाने पर कि फिर दस से बारह घंटे बिजली क्‍यों गायब रहती है, अतुल निगम का जवाब था कि कई बार फॉल्‍ट के कारण और कई बार ओरलोडिंग की वजह से लाइट काटनी पड़ जाती है।
आम जनता के प्रति जवाबदेही के संबंध में उनका कहना था कि हम शीघ्र ही ऐसी व्‍यवस्‍था करेंगे जिससे जनता को सही सूचना प्राप्‍त हो। इसके लिए मीडिया का सहयोग भी लिया जायेगा।
एस ई अतुल निगम चाहे कुछ भी कहें और कुछ भी करें लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि बिजली की बेहिसाब कटौती असहनीय होती जा रही है और उसके कारण लोगों में आक्रोश पनप रहा है।
यह आक्रोश और कुछ कर पाये या ना कर पाये लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों का परिणाम जरूर तय करेगा ।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि 2014 के लोकसभा चुनावों से यदि समाजवादी पार्टी के किंग अथवा किंगमेकर बनने का सपना साकार नहीं होता और मथुरा में उसका खाता नहीं खुल पाता तो इसका बड़ा कारण बिजली-पानी की समस्‍या, कानून-व्‍यवस्‍था की बदहाली तथा अफसरों की वो कार्यप्रणाली भी होगी जिसे लेकर शासक तक खुद को असहाय महसूस करते हैं।

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