बुधवार, 29 मई 2013

जहां सुपरिटेंडेंट जेल में और कैदी रहते हैं बाहर

नई दिल्ली । आज से करीब 14 महीने पहले सीआरपीएफ की स्पेशल फोर्स 'कोबरा' और छत्तीसगढ़ पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स के जवानों ने 7 दिनों तक नक्सलियों के 'गढ़' माने जाने वाले दक्षिणी छत्तीसगढ़ के 'अबूझमाड़' के जंगलों में 'ऑपरेशन हक्का' चलाया था।
अबूझमाड़ का गोंडी बोली में मतलब 'अनजान पहाड़' होता है और स्थानीय मुरिया बोली में हक्का का मतलब 'जंगली जानवरों का शिकार' होता है। अबूझमाड़ को लोग नक्सलियों का गढ़ कहते हैं।
माना जाता है कि इस इलाके में सरकार नाम की कोई चीज नहीं है और यहां सिर्फ नक्सलियों की हुकूमत चलती है। इस बात को पुलिस के आला अफसर भी दबी जुबान से स्‍वीकारते हैं।
विवादास्‍पद लेखिका अरुंधति रॉय के शब्दों में, 'यह एक ऐसा इलाका है, जहां नक्सली वर्दी में घूमते हैं और पुलिस वाले बिना वर्दी के। जेल सुपरिटेंडेंट जेल के भीतर और जेल में रहने वाले कैदी बाहर।' छत्तीसगढ़ में जेल ब्रेक कर कई बार नक्सलियों ने अपने साथियों को आजाद कराया है। बस्तर डिवीजन से होकर बहने वाली इंद्रावती नदी के पार दक्षिण की तरफ मीलों में फैले अबूझमाड़ के पहाड़ों और जंगलों को स्थानीय पुलिसकर्मी 'पाकिस्तान' कहते हैं।
इसी बात से अबूझमाड़ में छत्तीसगढ़ सरकार के 'इकबाल' और नक्सलियों की 'ताकत' का अंदाजा हो जाता है। इस इलाके को लेकर सरकार की प्राथमिकता और सक्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुछ साल पहले तक सरकार के पास दक्षिणी छत्तीसगढ़ के तमाम इलाकों के नक्शे भी नहीं थे।
'ऑपरेशन हक्का' से पहले नक्सलियों के इस गढ़ में सुरक्षा बल कभी नहीं घुस पाए थे और यह सरकार के लिए एक मिथक बना हुआ था। अबूझमाड़ में ऑपरेशन हक्का के बाद पुलिस के हौसले बुलंद थे। ऑपरेशन हक्का पर तत्कालीन आईजी, बस्तर रेंज टीजी लॉन्ग कुमार ने कहा था, 'एक समय था जब हमने मुठभेड़ में 76 जवान खो दिए थे। तब से हम काफी आगे आ गए हैं। हम अब ज्यादा सुरक्षित हैं। ऐसा माना जाता था कि सुरक्षा बल इन इलाकों में घुस नहीं सकते। इस सोच को तोड़ना हमारे लिए बहुत जरूरी था। हम अबूझमाड़ के मिथक को तोड़ना चाहते थे।' 
ऑपरेशन हक्का के लिए सुरक्षा बलों ने जबर्दस्त तैयारी की थी। ऑपरेशन हक्का से पहले सुरक्षा बलों ने पहाड़ों और जंगलों के ऊपर ड्रोन भेजकर वहां की तस्वीरें खींची थीं, ताकि यह अंदाजा लगाया जा सके कि आखिर अबूझमाड़ में क्या चल रहा है। इसके बाद सीआरपीएफ, कोबरा और छत्तीगढ़ स्पेशल टास्क फोर्स के करीब 3 हजार जवान स्वीडिश कार्ल गुस्तव रॉकेट लॉन्चर्स और अंडर बैरेल ग्रेनेड लॉन्चर्स जैसे अत्याधुनिक हथियारों से लैस होकर अबूझमाड़ के जंगलों में घुसे थे।
ऑपरेशन में 13 गांव वालों को गिरफ्तार किया गया था। उन पर माओवादी होने का शक था। नारायणपुर के तत्कालीन एसपी मयंक श्रीवास्तव ने बताया था, 'ऑपरेशन के दौरान माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच 12-13 बार मुठभेड़ हुई।' माओवादियों ने ऑपरेशन हक्का की तीखी आलोचना की थी। मीडिया को भेजी गई चिट्ठी में माओवादियों ने सुरक्षा बलों पर घरों को जलाने, गांवों में लूटपाट करने और एक गांव वाले की हत्या करने का आरोप लगाया था। कुछ गांव वालों ने नक्सलियों के इन आरोपों की कुछ हद तक पुष्टि भी की थी, जिसे कुछ अंग्रेजी अखबारों ने छापा भी था। लेकिन बीते शनिवार को हुए नरसंहार से साफ है कि ऑपरेशन हक्का के बाद भी अबूझमाड़ में नक्सलियों को चुनौती नहीं दी जा सकी है और वहां उनकी 'सत्ता' कायम है।
अबूझमाड़ के घने जंगलों के किनारों पर 'सरकार' की सीमा अघोषित तौर पर खत्म हो जाती है। अंदर चलती है तो बस नक्सलियों की सरकार। इसे 'जनतम' सरकार कहते हैं, मतलब जनता की सरकार। पंचायती राज सिस्टम में चुनाव के जरिए जीतने वाले गांव के प्रमुख व्यक्ति को सरपंच, मुखिया या प्रधान कहते हैं लेकिन अबूझमाड़ में चल रही नक्सलियों की समानांतर सरकार में गांव के सरपंच को 'ग्राम सरकार अध्यक्ष' कहा जाता है।  
माओवादी सिस्टम में ग्राम सरकार अध्यक्ष अहम पद होता है। 27 ग्राम सरकार मिलकर एक एरिया बनाते हैं। हर एरिया में सात सदस्यों वाली एक कमिटी होती है, जो सात विभागों का काम देखती है। इनमें आर्थिक, सैन्य व सुरक्षा, न्याय एवं कानून, खेती, स्वास्थ्य, जन संपर्क और संस्कृति व शिक्षा। एरिया कमिटी में वर्दीधारी और गैर वर्दीधारी सदस्य हो सकते हैं। गैर वर्दीधारी सदस्यों को अंशकालिक (पार्ट टाइमर) माना जाता है। वे खेती-बाड़ी करते हुए सामान्य घरेलू जीवन भी जी सकते हैं लेकिन वर्दीधारी सदस्यों का कोई स्थायी ठिकाना नहीं होता है और वे हमेशा एक जगह से दूसरी जगह चलते रहते हैं। ऐसे लोग या तो जन सरकार का हिस्सा होते हैं या सरकार की सैन्य ईकाई यानी पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) के सदस्य होते हैं। (एजेंसी)

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