बुधवार, 17 जुलाई 2013

इस घिनौने और वीभत्‍स चेहरे से आगे क्‍या...

(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
क्या भारतीय राजनीति का इससे भी अधिक घिनौना, वीभत्स और क्षत-विक्षत चेहरा दिखाई देना बाकी है या गिरावट की इंतिहा के बाद कोई ऐसा सवेरा आने वाला है जो सही मायनों में स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र का अहसास करायेगा?
कुछ ऐसी ही शंका और आशंकाओं के बीच देश का आम नागरिक आज उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है क्योंकि उसके पास उम्मीद रखने के अलावा कुछ बचा ही नहीं है।

उत्तराखंड की त्रासदी हजारों परिवारों को ऐसे जख्म दे गई जिनका भरा जाना आसान नहीं है लेकिन हमारे नेता आरोप-प्रत्यारोपों की राजनीति से ऊपर नहीं उठे। देवभूमि देखते-देखते श्मशानभूमि में तब्दील हो गई पर नेताओं को चिता ज्ञान नहीं हुआ।
भ्रष्टाचार ने देश को पूरी तरह खोखला करके रख दिया और जैसी भी तथा जितनी साख अब तक  सारी दुनिया में बनी थी, वह मिट्टी में मिला दी परंतु नेताओं के आचार-विचारों में रत्तीभर फर्क नजर नहीं आया। उनका सामंती व्यवहार भी जस का तस है।
रुपया रसातल में पहुंच गया और उसके उबरने की संभावना सरकार के अतिरिक्त किसी को नजर नहीं आ रही लेकिन सरकार हाथ पर हाथ रखे बैठी है।
चीन और पाकिस्तान ही नहीं, बांग्लादेश व नेपाल सरीखे छोटे-छोटे मुल्क जब-तब हमारे सामने आंखें तरेर देते हैं लेकिन सत्ता पर काबिज लोग उनका स्तुति गान करने के अलावा कुछ नहीं करते। जब इज्जत पर बन आती है तब मान-मर्यादा बचाने के लिए कुछ इस अंदाज में घुड़की देते हैं जो उन तक पहुंचते-पहुंचते मिमियाहट में बदल जाती है।

आतंकवादी हमलों के बाद कभी कोई युवराज कहता है कि सारे हमले रोक पाना संभव नहीं है तो कभी कोई सीएम बोलता है कि ऐसी घटनाएं नहीं रोकी जा सकतीं।
इन घटनाओं में जो मारे जाते हैं या जिंदगीभर के लिए अपाहिज हो बैठते हैं उन्हें सरकारी खजाने से दो-चार लाख रुपये देकर राजधर्म निभा लिया जाता है।
सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर सत्ता के भूखे भेड़िये अपनी-अपनी कुटिल चालों से जनता को पिछले छ: दशक से लड़ाते चले आ रहे हैं क्योंकि उनके अपने स्वार्थों की पूर्ति का इससे ज्यादा कारगर हथियार दूसरा कोई नहीं है लेकिन इनसे निपटने के लिए जनता के पास कोई अधिकार नहीं है।
आम आदमी महंगाई से इस कदर त्रस्त है कि उसके लिए सुकून की दो रोटियां मिलना मुश्किल हो गया है पर सरकार के बेशर्म और संवेदनाहीन नुमाइंदे कहते हैं कि महंगाई बढ़ने की वजह लोगों की परचेजिंग पॉवर बढ़ जाना है।
कुत्ते-पिल्ले पर बयानों और 2014 में सत्ता पाने की जद्दोजहद में उलझे नेताओं के पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि यदि महंगाई बढ़ने की वजह आमजन की परचेजिंग पॉवर बढ़ जाना है, तो फिर खाद्य सुरक्षा अध्यादेश की आवश्यकता क्या है?
सांसदों और विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ाने की बात पर इनमें कभी कोई मतभेद नहीं होता लेकिन आरटीआई के दायरे में राजनीतिक दलों को लाने के बाद सब एक स्वर से उसका विरोध शुरू कर देते हैं। यहां तक कि आरटीआई को ही दफन करने का कुचक्र रचने से बाज नहीं आते।
हां, यदि राजनीति के अपराधीकरण अथवा अपराधियों के राजनीतिकरण पर लगाम लगाने का प्रयास न्यायपालिकाएं अपने स्तर से करती हैं तो उनके खिलाफ खड़े होने को बिना किसी मदभेद के सारे दल सहमत हो जाते हैं। तब उन्हें सर्वसम्मति से ये कहने में कोई संकोच नहीं होता कि न्यायपालिकाएं अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर रही हैं और जो काम संसद का है, वह उन्हें करने का अधिकार नहीं।
समाज को जात-पांत के नाम पर बांटकर वोट बटोरने के लिए आयोजित किये जा रहे सम्मेलनों को पाबंद करने के बाद राजनीतिक दलों की खिसियाहट स्पष्ट करती है कि वह न्यायपालिका को भी मजबूरन बर्दाश्त कर रहे हैं।
समाजवादी देखते-देखते अरबों में खेलने लगते हैं और बहुजन समाज की अधिष्ठात्री मायावती की माया अरबों तक जा पहुंचती है लेकिन कानून-व्यवस्था और उनका अनुपालन कराने वाले दोनों के सामने हाथ बांधे खड़े रहते हैं।
देश के धन को विदेशों में जमा करने वालों के सामने सरकार नतमस्तक है क्योंकि सरकार के अपने कारनामे उनसे कुछ अलग नहीं। सच तो यह है कि विदेशों में जमा कुल कालेधन का एक बड़ा हिस्सा सरकार कहलाने वालों का ही है लिहाजा वह मुंह खोलने की जुर्रत नहीं कर सकते।
ये तो कुछ वो बड़े-बड़े मामले हैं जो फिलहाल चर्चा में है, बाकी अनगिनत वो भी हैं जो समय-समय पर चर्चा में रहे हैं और आज विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं।
कितनों को अभी न्यायालय का मुंह देखना शेष है, कहा नहीं जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि देश को गर्त में ले जाने का यह सिलसिला कहां जाकर रुकेगा।
एक बात जो कही जा सकती है, वह केवल यह कि राजनीति का यह डरावना रूप अब लोगों को विचलित करने लगा है। कुछ उसी तरह जिस तरह किसी क्षत-विक्षत और सड़े हुए शव को देखकर उसके अपने भी मुंह फेरने पर बाध्य हो जाते हैं क्योंकि वह उन्हें विचलित करता है।
अच्छी बात यह है कि सड़ी-गली और क्षत-विक्षत लाश का भी इस देश में अंतिम संस्कार जरूर किया जाता है। धर्म के अनुसार तरीके बेशक अलग होते हैं लेकिन मकसद सबका एक रहता है।
राजनेता इसे समय रहते समझ लें तो ही बेहतर।

1 टिप्पणी:

कृपया बताते चलें कि ये पोस्‍ट कैसी लगी ?

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...