गुरुवार, 18 जुलाई 2013

''भक्‍तों'' से भयभीत ''भगवान''

(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
कोई माने या ना माने लेकिन पूरी तरह सच है यह बात कि आज के इंसान से भगवान भी खौफ खाने लगा है।
भक्तों से भगवान के भयभीत होने का नजारा अगर देखना हो तो आज यानि 18 जुलाई से अगले चार-पांच दिनों तक किसी भी दिन मथुरा आकर देखा जा सकता है।
मथुरा से 21 किलोमीटर दूर अरावली पर्वत श्रृंखला के गिरि गोवर्धन की सप्तकोसीय परिक्रमा यूं तो वर्षभर जारी रहती है लेकिन गुरू पूर्णिमा के अवसर पर यहां आने वालों की तादाद लाखों में हो जाती है। शायद इसीलिए स्थानीय लोग इसे लक्खी मेला भी कहते हैं।
इस मेले के शांतिपूर्ण संपन्न हो जाने की प्रार्थना हर कोई करता है क्योंकि भीड़ का दबाव अप्रत्याशित घटना-दुर्घटनाओं को पल-पल आमंत्रित करता रहता है।
भक्तों की यही भीड़ भगवान को भी भयभीत किये रहती है।

ऐसा लगता है जैसे भीड़ का कोई रेला चारों ओर से चला आ रहा है और उसे नियंत्रित करने वाला कोई नहीं है।
कहने को जिला प्रशासन अपनी शक्ति और सामर्थ्य अनुसार सारे जरूरी इंतजामात करता है लेकिन कल्पना कीजिए कि यदि किसी एक शहर की कुल आबादी से दस-बारह गुना अधिक लोग एकसाथ वहां आ जाएं तो कितने भी मुकम्मल इंतजाम हों, क्या कर पायेंगे।
उत्तराखंड की त्रासदी के जख्म बेशक अभी न भरे हों लेकिन उनसे सबक शायद ही कोई सीखा हो।
यदि सीखा होता तो तथाकथित आस्था के बहाने भगवान पर एकसाथ चढ़ाई करने की प्रवृत्ति कुछ तो कम होती।
द्वादश ज्योतिर्लिगों में शुमार भगवान केदारनाथ आज खुद अपनी बदहाली और बेबसी पर जरूर आंसू बहा रहे होंगे क्योंकि हजारों लोगों की अकाल मृत्यु का कलंक आखिर तो उन्हीं के सिर लगा, चाहे उसके लिए मुख्य रूप से इंसानी फितरत ही बड़ा कारण थी।
जरा विचार कीजिए कि क्या कोई भगवान अपने सिर हजारों लोगों की अकाल मौत का कलंक लगवाना चाहेगा ?
यही कारण है कि भगवान को इस दौर के भक्तों से डर लगने लगा है।
गौरतलब है कि लाखों भक्तों की भीड़ के बीच न सिर्फ लाखों लीटर सिंथेटिक दूध खप जाता है बल्कि तमाम दूसरी मिलावटी खाद्य सामग्री बेची जाती है।
इस दौरान छोटे से कस्बे गोवर्धन में सब-कुछ मिलावटी तथा दूषित होता है और उसका इस्तेमाल यहां आने वाले लोग बेखौफ करते हैं।
मथुरा की ओर आने वाले सभी रास्तों से प्रवेश कर रहे ये लोग ना तो यातायात नियमों का पालन करते हैं और ना नियम कानूनों का, लिहाजा कई मर्तबा स्थिति नियंत्रण से बाहर होती है।
पूर्व में भगदड़ होने से परिक्रमार्थियों की मौत हो चुकी हैं और सड़क दुर्घटनाएं होना तो आम बात है।
इसे यूं भी कह सकते हैं कि चार-पांच दिनों तक सब-कुछ भगवान भरोसे रहता है। ये बात अलग है कि खुद भगवान पता नहीं किसके भरोसे रहता है।
मुड़िया पूर्णिमा (गुरू पूर्णिमा) के अवसर पर लाखों लोगों की भीड़ उमड़ने का एक बड़ा कारण वो नि:शुल्क भण्डारे भी हैं जो हर चार कदम पर लगाये जाते हैं और जिनके कारण गंदगी तथा अव्यवस्था पैदा होती है।
बस और ट्रेन की छतों पर, दुपहिया, तिपहिया और चार पहिया वाहनों पर इस दौरान जिस तरह लोग यात्रा करते देखे जाते हैं, वह अपने आप में भयभीत करने वाला होता है लेकिन भक्ति का पता नहीं कौन सा ज्वार है जो यात्रा करने वालों को प्रभावित नहीं करता।
ऐसे में चाहे लोग दूषित और सिंथेटिक सामग्री खा-पीकर मारे जाएं अथवा भीड़ के दबाव से होने वाली संभावित भगदड़ का शिकार बनें, ओवरलोडिंग के चलते सड़क दुर्घटनाओं का हिस्सा बनें अथवा परिक्रमा की थकान एवं नींद पूरी न हो पाने के कारण दूसरों को कुचल दें, सबके लिए कहा यही जाता है कि परिक्रमार्थी थे।
कुल मिलाकर हर हाल में जिम्मेदारी भगवान के ऊपर ही डाल दी जाती है।
अब आप ही बताइए कि तथाकथित भक्तों के क्रिया-कलापों से भगवान का भयभीत होना स्वाभाविक है या नहीं।
कुछ अच्छा हो जाने पर भगवान को उसका श्रेय देने वालों से कहीं अधिक संख्या ऐसे लोगों की होती है जो हर घटना-दुर्घटना का ठीकरा भगवान के सिर फोड़ते हैं।
केदारनाथ इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।
आज भी ऐसा कहने वालों की कमी नहीं कि केदारनाथ उनकी रक्षा भी न कर सके, जो उनकी शरण में पड़े थे।
अब गिरिराज जी  की परीक्षा है। परीक्षा लेने वाले लाखों होंगे और परिक्षार्थी केवल एक। डर लगना स्वाभाविक है।

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