रविवार, 4 अगस्त 2013

माई-बाप! अहसानमंद हैं हम आपके

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
लोकतंत्र  क्षत-विक्षत हो चुका है। लोक से तंत्र पूरी तरह कट गया है। क्षत-विक्षत लोकतंत्र पर राजनीति अट्टहास कर रही है। राजनीतिज्ञों का सर्वाधिक वीभत्‍स और डरावना चेहरा जनता के सामने है।
उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह आखिर करे तो करे क्‍या।
दिन-रात भ्रष्‍टाचार की जुगाली करने वाले सत्‍तापक्ष और उस जुगाली का ढिंढोरा पीटने वाले विपक्षियों में कहीं कोई अंतर नजर नहीं आ रहा।
यही पता नहीं लग रहा कि भ्रष्‍टाचार की जुगाली का ढिंढोरा पीटने का मकसद अपनी बारी आने का इंतजार करना भर है या जनता की आंखों में धूल झोंकना।
जिस प्रकार अपने वेतन-भत्‍ते और सुख-सुविधाओं को बढ़ाने के लिए हर पक्ष के माननीय एकस्‍वर में बोलने लगते हैं, ठीक उसी प्रकार अब जनसूचना अधिकार सहित दागी नेताओं के मामले में कोर्ट के आदेश को ताक पर रखने की तैयारी है। न अपील, न दलील। सीधे कानून बना दो जिससे न रहेगा बांस और न फिर कभी बज पायेगी बांसुरी।
2G घोटाला, कोलगेट स्‍कैम, आदर्श सोसायटी घोटाला, कॉमनवेल्‍थ घोटाला, महंगाई, रुपये का रसातल में जाना, पड़ोसी देशों का हमलावर होना, विदेश नीति की दुर्गति, कालाधन आदि को दरकिनार कर एकबार फिर लोकसभा चुनावों का शंख समय से पहले फूंक दिया गया है। सबको पता है कि 2014 से पहले चुनाव नहीं होंगे पर माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि जैसे इसी साल चुनाव होने हों। माहौल बनाने में सबकी मिली-भगत है। समय जो चाहिए। किसी को और लूट करने के लिए तो किसी को इशारों-इशारों में यह समझाने के लिए कि जितना मौका हम दे रहे हैं, उतना ही आगे हमें मिलना चाहिए। 
दरअसल इसके पीछे भी सबकी अपनी राजनीति है और सबके अपने स्‍वार्थ। मुंह पर लगी कीचड़ दिखाने वाले से तो अब बड़ी बेशर्मायी के साथ कह दिया जाता है  कि 'बुरी नजर वाले, तेरा मुंह काला' और पिछवाड़े पर लगी कालिख दिखाई नहीं देती। दूसरों को दिखती है तो दिखती रहे। बदबू आती है तो मुंह फेरकर चले जाएं।
आम आदमी का पेट भरने के लिए देश के भाग्‍य विधाताओं को प्रतिमाह एक हजार रुपये की आमदनी पर्याप्‍त लगती है और खुद का पेट अरबों रुपये डकार जाने के बावजूद नहीं भर पा रहा।
लोकतंत्र के एक खंभे न्‍यायपालिका को जनता से मिले अपने विशेषाधिकार का इस्‍तेमाल कर कमजोर किया जा रहा है और कागजी खंभे मीडिया को कागज के ही नोटों से खरीदकर कागजी घोड़ा बना दिया गया है।
यही कारण है कि आम आदमी को, जो मीडिया सत्‍ता के खिलाफ दिन-रात चीखता और चिल्‍लाता हुआ दिखाई देता है, वह एक्‍चुअली मिमिया रहा होता है। उसकी लाउड आवाज हकीकत में शुकराना अदा करने के लिए होती है ताकि ऊंचाई पर बैठे आकाओं को ठीक से सुनाई दे जाए।
यूं भी ऊपर से फेंके गए सिक्‍के जब जमीन से उठाए जाते हैं तो बताना भी पड़ता है कि माई-बाप हम इनके लिए आपके अहसानमंद हैं।
वैसे भूखी-नंगी जनता के सामने भी फूड सीक्‍यूरिटी बिल का चारा डालने की व्‍यवस्‍था कर ली गई है जिससे चुनावों के दौरान वह पेट पकड़ कर रोने न लगे और मध्‍यमवर्ग के लिए एफडीआई के चमचमाते नियोन साइन लगवाने का रास्‍ता साफ कर दिया गया है ताकि वह उसकी रोशनी को दीवाली की आहट समझ दिवाला निकलने का अहसास तक न कर पाये।
शायद हर शासक जानता है कि अवाम मुगालते में जीने की आदी होती है। वह मुगालते में ही जीना चाहती है क्‍योंकि उससे उसे अपने दुख कम लगने लगते हैं।
संभवत: इसीलिए हर युग के शासकों ने अवाम के कानों में मुगालते के तहत जीने का मंत्र कुछ इस तरह फूंका कि वही उसे हकीकत लगता है।
मुगालते में जीने की आदी जनता अब भी इस मुगालते में है कि देश स्‍वतंत्र हो चुका है लिहाजा वह 65 सालों से स्‍वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मना रही है जबकि झण्‍डा आज भी फिरंगियों की कार्बन कापियां ही फहरा रही हैं।
आम जनता तब उनके झण्‍डे के नीचे खड़े होकर स्‍तुतिगान करती थी और अब इनके झण्‍डे के नीचे खड़े होकर स्‍तुतिगान कर रही है। 
कहने को वोट का अधिकार है और चुनी हुई सरकार है लेकिन यह चुनाव एक ऐसी मजबूरी है जिसका विकल्‍प कोई नहीं। भ्रष्‍ट और भ्रष्‍टतम में से किसी एक को चुनना है।
मतदान 40 प्रतिशत हो या चार प्रतिशत, सरकार तो बन ही जाती है। एक को बहुमत नहीं मिला तो न सही, एक दर्जन मिलकर एक हो सकते हैं। संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा कि सत्‍ता के लिए दर्जन-दो दर्जन दल मिलकर सबसे बड़ा दल होने की औपचारिकता पूरी न कर पाएं। संविधान में यह भी नहीं लिखा कि चुनाव से पहले गठबंधन करना जरूरी है। फिर चुनावों में एक-दूसरे के खिलाफ खड़े होकर भी चुनावों के बाद एक होकर कुर्सी पर काबिज होने से कौन रोक रहा है।
कभी यूपीए के नाम से कभी एनडीए के नाम से। कभी कांग्रेस के पास, कभी भाजपा के पास। एक सर्किल है जिसमें वोट रूपी झुनझुना पकड़कर मतदाता को गोल-गोल घूमना है। उसके पास चुनाव नहीं, चंद चेहरे हैं। ऐसे चेहरे जिनकी सूरतें बेशक नहीं मिलतीं, पर सीरतें हूबहू हैं। उनका डीएनए एक है।
इसी महीने देश एक और स्‍वतंत्रता दिवस मनायेगा। राष्‍ट्रगान और राष्‍ट्रगीत के साथ देशभर में झण्‍डे फहराये जायेंगे। स्‍कूल में बच्‍चों को बताया जायेगा कि ये हमारा राष्‍ट्रीय पर्व है। इस दिन हमें स्‍वतंत्रता मिली थी।
लेकिन ये बताने वाला कोई नहीं होगा कि 15 अगस्‍त सन् 1947 से लेकर अब तक देश उस स्‍वतंत्रता की बाट जोह रहा है जिसके सपने संजोए थे।
ये भी कोई नहीं बतायेगा कि आज देश को फिर एक इतनी बड़ी लड़ाई लड़नी है जितनी बड़ी लड़ाई पहले कभी नहीं लड़ी गई।
क्‍या कोई स्‍कूल, कोई कॉलेज ऐसा बचा है जो देश के भविष्‍य को यह बता सके कि 65 सालों की स्‍वतंत्रता के बावजूद उसका अपना भविष्‍य असुरक्षित है क्‍योंकि कि नेताओं का भविष्‍य सुरक्षित है।
क्‍या उन्‍हें कोई ऐसी शिक्षा देगा कि विकल्‍पहीन चुनाव और मजबूरी का मतदान व्‍यवस्‍था परिवर्तन नहीं करा सकता। व्‍यवस्‍था परिवर्तन के लिए पर्याप्‍त विकल्‍प जरूरी हैं और संपूर्ण स्‍वतंत्रता के लिए स्‍वाभिमान जरूरी है। तलवे चाटने वाली मानसिकता न तो स्‍वाभिमान सुरक्षित रख पाती है और ना स्‍वतंत्रता।
कोई फर्क नहीं पड़ेगा इस बात से कि 2014 के चुनाव, सत्‍ता किसके हाथ में सौंपते हैं। कोई अंतर नहीं आयेगा इससे कि सत्‍ता पर कोई एक दल काबिज होता है या बहुत सारे दलों से मिलकर बनी दलदल। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। चोर-चोर मौसेरे भाई।
जनसूचना अधिकार जैसा कानून आड़े आने लगा तो उसकी जड़ों में सब मिलकर मठ्ठा डालने को तैयार हैं और कोर्ट का आदेश चुनाव लड़ने में बाधक बना तो सब एकसाथ मिलकर उसका गला घोंटने पर सहमत हैं। इन मामलों में न कोई पक्ष, न विपक्ष। सब-कुछ निष्‍पक्ष। न अल्‍पमत, न बहुमत। सब-कुछ सर्वसम्‍मत। ताकि सनद रहे और वक्‍त जरूरत काम आये।

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