सोमवार, 9 सितंबर 2013

दंगे तो होंगे ही.. कोई रोक भी नहीं सकता

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
केंद्र सरकार की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अखिलेश राज में अब तक सांप्रदायिक दंगों की 104 घटनाएं हो चुकी हैं। मुज़फ्फरनगर के दंगे में आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 26 लोग मारे जा चुके हैं जबकि प्रत्‍यक्षदर्शी बताते हैं कि यह संख्‍या सैकड़ों में है।
राज्‍यपाल बी. एल. जोशी ने मुज़फ्फरनगर के दंगों को लेकर केंद्र सरकार को जो रिपोर्ट भेजी है, वह कहती है कि इन दंगों के लिए पूरी तरह राज्‍य सरकार जिम्‍मेदार है।
जो भी हो, लेकिन यहां विचारणीय प्रश्‍न यह है कि एक ऐसे दौर में जब आम आदमी के लिए अपनी जरूरतें पूरी करना भी कठिन होता जा रहा है, तब लोग एक-दूसरे का खून बहाने पर इतनी जल्‍दी आमादा क्‍यों रहे हैं ?
यहां यह बताने की कोई जरूरत नहीं रह जाती कि हर दंगे का शिकार आम आदमी ही होता है, खास लोग कभी किसी दंगे की चपेट में नहीं आते और देश के वर्तमान लोकतंत्र की परिभाषा भी शायद यही है।

फिलहाल हम बात कर रहे हैं उन हालातों की जिनके कारण लोग सारा हिसाब खुद बराबर कर लेना चाहते हैं।
दरअसल, आम आदमी के मन से समूची व्‍यवस्‍था को लेकर भरोसा उठ चुका है और राजनीति एवं राजनेताओं से उसे कोई उम्‍मीद नहीं रह गई है।
बात केवल दंगों की ना की जाए तो देखने में आता है कि अब बहुत जल्‍दी आम आदमी पुलिस पर हमला कर देता है, प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं छोड़ता और न्‍याय व्‍यवस्‍था से भी संतुष्‍ट नहीं है।
उत्‍तर प्रदेश ही नहीं, देश के हर हिस्‍से से ऐसी खबरें मिलना सामान्‍य बात हो गई है।
दलगत राजनीति की बात छोड़ दें तो कोई पार्टी ऐसी नहीं जो अपने-अपने स्‍तर से वोट की राजनीति न कर रही हो और उसके लिए किसी धर्म विशेष, जाति विशेष या वर्ग विशेष का तुष्‍टीकरण न करती हो।
इसे यूं भी कहा जा सकता है कि कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो घृणा की राजनीति न करता हो जबकि इनके नजदीक जाकर देखें तो इनका आपसी प्रेम काबिले तारीफ नजर आयेगा।
पुरानी कहावत है कि आम बोएंगे तभी आम मिलेगा, बबूल बोकर तो आम किसी को मिल नहीं सकता। जो व्‍यवस्‍था वोट की राजनीति के लिए समाज के अंदर खुद विष के बीज बो रही है, वो उससे सद्भाव की आशा कैसे रख सकती है।
सही मायनों में जिसे आम आदमी कहा जाता है, उसे कहीं से उम्‍मीद की कोई किरण दिखाई नहीं पड़ रही। न्‍याय की खातिर वह दर-दर की ठोकरें खाता है लेकिन उसे न्‍याय मिलना तो दूर, दुत्‍कार व फटकार मिलती है।
व्‍यवस्‍था का व्‍यवहार उसके प्रति ऐसा हो गया है जैसा सामंतवाद के दौर की कहानियों में पढ़ने को मिलता है।
सत्‍ता पर काबिज लोगों, फिर चाहे वह राजनेता हों या ब्‍यूरोक्रेट्स, सबका रवैया आमजन के प्रति एक जैसा है। शासक और शोषित का। इसके अलावा जितनी बातें हैं, वह सब दिखावटी हैं।
अगर बात करें अलग से पुलिस के आचार-व्‍यवहार की, तो उसका गठन ही अंग्रेजी हुकूमत ने आम आदमी को प्रताड़ित करने के लिए किया था। वह आज भी यदि अपनी मूल प्रवृत्‍ति से काम कर रही है तो उसे ज्‍यादा दोष देना उचित नहीं होगा।
हर दौर के राजनीतिज्ञों ने पुलिस का निजी स्‍वार्थ की खातिर जिस तरह इस्‍तेमाल किया है और जिस तरह उसे अपनी उंगलियों पर नचाया है, उसके बाद पुलिस की मूल प्रवृत्‍ति में बदलाव आने की बात करना बेमानी है। पुलिस की कार्यप्रणाली पर गौर करें तो पायेंगे कि उसके लिए आज के शासकों और 66 साल पहले के शासकों में कोई विशेष अंतर नहीं है।
बहुत सामान्‍य सी बात है कि जब लोकतंत्र के तीनों स्‍तंभों पर आम आदमी को भरोसा नहीं रहा और उसे समय रहते न्‍याय मिलने की कोई उम्‍मीद नहीं रही तो वह कानून अपने हाथ में लेने से डरेगा भी क्‍यों।
ऐसे में दंगे होना, पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों पर हमलावर होना, नेताओं के प्रति घृणास्‍पद शब्‍दों का प्रयोग करना, कोई आश्‍चर्य प्रकट नहीं कराता।
राजनीति की निम्‍नस्‍तरीय सोच के कारण परस्‍पर दोषारोपण करने की आदत को परे रखकर देखें तो पता लगेगा कि कश्‍मीर से लेकर कन्‍या कुमारी तक, दंगे सब जगह हो रहे हैं। सभी जगह के लोगों का व्‍यवस्‍था पर से विश्‍वास उठ रहा है। लोग अब अपने गुस्‍से का शिकार मंत्रियों को भी बनाने लगे हैं। पिछले दिनों पश्‍चिम बंगाल में एक मंत्री को आठ घंटे बंधक बनाकर रखा और उसकी जमकर पिटाई की। इससे पहले राजस्‍थान में भी ऐसा ही कुछ हो चुका है।
मुज़फ्फरनगर में एक ही परिवार के तीन लोगों की हत्‍या कर दिए जाने का मामला अगर गंभीरता से लिया गया होता और पीड़ित परिवार या उससे सहानुभति रखने वाले लोगों को ऐसा महसूस होता कि उनकी बात सुनी जा रही है, तो इतने बड़े पैमाने पर हिंसा का आधार नहीं बनता।
सच तो यह है कि देश में व्‍यवस्‍था के प्रति एक लंबे समय से पनप रहा आक्रोश अब घृणा का रूप ले चुका है। किसी स्‍तर पर पीड़ित को यह नहीं लगता कि उसे न्‍याय मिल पायेगा।
यह आक्रोश कभी पुलिस पर निकलता है, कभी प्रशासन पर। कभी दंगों के रूप में सामने आता है तो कभी धरना-प्रदर्शन के रूप में। कभी किसी नेता पर जूता उछालकर उसकी तुष्‍टि कर ली जाती है तो कभी किसी के साथ जघन्‍य आपराधिक वारदात को अंजाम देकर।
कुल मिलाकर यह एक ऐसे बड़े खतरे का संकेत है, जिसे जल्‍द नहीं समझा गया और अति शीघ्र इसका ठोस उपाय नहीं किया गया तो आने वाला समय बहुत भयावह होगा।
हो सकता है कि तब आरोप-प्रत्‍यारोप करने का अवसर भी न मिले और जिन लोगों को गुमराह करके आज समूची व्‍यवस्‍था सत्‍तासुख भोग रही है, वही लोग व्‍यवस्‍था को इस लायक न छोड़ें कि करने को उनके हाथ में कुछ रह जाए।
लोक से तंत्र को काटने के निश्‍चित ही अत्‍यंत भयावह परिणाम देखने पड़ सकते हैं।

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