(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
भारतीय जनता पार्टी के पूर्व जिलाध्यक्ष पदम सिंह शर्मा द्वारा मांट क्षेत्र में एक लंबे समय से पार्टी की दयनीय स्थिति को 'राजनीतिक दरिद्रता' कहना भले ही क्षेत्रीय विधायक श्यामसुंदर शर्मा को नागवार गुजरा हो लेकिन सच्चाई यही है।
सच्चाई तो यह भी है कि राजनीति की उलटबांसियों के चलते समूची मथुरा ही राजनीतिक दरिद्रता भोग रही है।
जाहिर है कि ऐसे में 2014 के लोकसभा चुनावों का जितना इंतजार राजनीतिक पार्टियों और उनके संभावित प्रत्याशियों को है, उससे कहीं अधिक उस मतदाता को भी है जो राजनीति की डिक्शनरी में 'आमजनता' के तौर पर दर्ज किया गया है।
चूंकि इस बार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में एक बटन 'नोटा' यानि 'नन ऑफ द एबव' (इनमें से कोई पसंद नहीं) का भी होगा लिहाजा 'आमजन' पहले से कुछ खास तो होगा ही। अब वह चुनाव के लिए इतना मजबूर नहीं रहेगा, जितना अब तक रहा है।
ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के साथ-साथ राजनीति के सिरमौर भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली को भी कोई ऐसा जनप्रतिनिधि मिलेगा, जो उसके गौरवशाली अतीत को स्मरण कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर न केवल जन अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा बल्कि राजनीति के भी एक ऐसे रूप को रेखांकित करेगा जिसका सपना हर ब्रजवासी वर्षों से देखता आ रहा है।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि जिन पार्टियों ने अपने प्रत्याशी कृष्ण की इस नगरी के लिए तय कर दिए हैं, क्या उनमें से कोई इस लायक है जो जनअपेक्षाओं पर खरा उतरते हुए यहां की राजनीतिक दरिद्रता को दूर कर सके ?
इसका तो शायद उत्तर देने की भी जरूरत नहीं क्योंकि एक दिन के लिए भाग्यविधाता बनने वाला मतदाता सब जानता है।
वह जानता है कि समाजवादी पार्टी के अब तक घोषित उम्मीदवार ठाकुर चंदन सिंह तथा बसपा के योगेश द्विवेदी कितने पानी में हैं। रही बात 2014 के लिए निवर्तमान हो जाने वाले राष्ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी की तो उनका अपना ही पानी उतर चुका है। 2009 के चुनावों में जिस जयंत चौधरी को स्थानीय भाजपाइयों सहित ब्रजवासियों ने सिर-आंखों पर बैठाकर रिकॉर्ड मतों से जीत दिलवाई, उसने ब्रजवासियों की उपेक्षा करने का ऐसा रिकॉर्ड कायम किया कि अब भाजपा का सबसे बड़ा मुद्दा यही है। अर्थात किसी भी कीमत पर बाहरी प्रत्याशी मंजूर नहीं। दलगत राजनीति से परे मथुरा की अधिकांश जनता भी यही चाहती है कि कोई पार्टी बाहरी प्रत्याशी को ना थोपे।
चुनावी अखाड़े में उतरने वाली शेष पार्टियों में रह जाती हैं वो कांग्रेस और भाजपा, जिन्हें राष्ट्रीय पार्टी का तमगा हासिल है।
कांग्रेस का सूर्य मथुरा में उग पायेगा या नहीं, इसमें संशय है क्योंकि फिलहाल कांग्रेस से रालोद का नाता टूटा नहीं है। यही कारण है कि कांग्रेस बेशक अंदरखाने अपनी गोटियां फिट करने में लगी हो परंतु इस स्थिति में नहीं है कि अपना प्रत्याशी समय रहते घोषित कर सके।
बाकी बची वही भाजपा जिसने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारकर मथुरा जैसी उर्वरा राजनीतिक जमीन को खो दिया और जिस वजह से पार्टी के पूर्व जिलाध्यक्ष पदम सिंह शर्मा मांट क्षेत्र की दरिद्रता का ज़िक्र कर रहे हैं तथा हम पूरे जनपद की दरिद्रता का हवाला दे रहे हैं।
बहरहाल, आज सारा दारोमदार भाजपा पर है क्योंकि भाजपा का घोषित प्रत्याशी ही काफी हद तक यह निश्चित करने में सफल होगा कि मथुरा को 2014 में राजनीतिक दरिद्रता से मुक्ति मिल पाने की कोई संभावना बनती है या नहीं।
कहने को भाजपा से टिकट के दावेदारों में कई नाम सामने हैं। इनमें कुछ तो केवल धनबल से टिकट पाने और फिर जीतने का भी दम भर रहे हैं जबकि कुछ ऊपर तक पहुंच के गुमान में सेहरा बांधे जाने को लेकर आश्वस्त हैं।
इन हालातों में पार्टी को भी कड़ा फैसला करना पड़ेगा क्योंकि 2014 इतिहास दोहराने का मौका तो देगा परंतु इतना मौका नहीं देगा कि इतिहास बनने से बचा जा सके।
भारतीय जनता पार्टी को ये बात ज्यादा गंभीरता से समझनी होगी।
भारतीय जनता पार्टी के पूर्व जिलाध्यक्ष पदम सिंह शर्मा द्वारा मांट क्षेत्र में एक लंबे समय से पार्टी की दयनीय स्थिति को 'राजनीतिक दरिद्रता' कहना भले ही क्षेत्रीय विधायक श्यामसुंदर शर्मा को नागवार गुजरा हो लेकिन सच्चाई यही है।
सच्चाई तो यह भी है कि राजनीति की उलटबांसियों के चलते समूची मथुरा ही राजनीतिक दरिद्रता भोग रही है।
जाहिर है कि ऐसे में 2014 के लोकसभा चुनावों का जितना इंतजार राजनीतिक पार्टियों और उनके संभावित प्रत्याशियों को है, उससे कहीं अधिक उस मतदाता को भी है जो राजनीति की डिक्शनरी में 'आमजनता' के तौर पर दर्ज किया गया है।
चूंकि इस बार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में एक बटन 'नोटा' यानि 'नन ऑफ द एबव' (इनमें से कोई पसंद नहीं) का भी होगा लिहाजा 'आमजन' पहले से कुछ खास तो होगा ही। अब वह चुनाव के लिए इतना मजबूर नहीं रहेगा, जितना अब तक रहा है।
ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के साथ-साथ राजनीति के सिरमौर भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली को भी कोई ऐसा जनप्रतिनिधि मिलेगा, जो उसके गौरवशाली अतीत को स्मरण कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर न केवल जन अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा बल्कि राजनीति के भी एक ऐसे रूप को रेखांकित करेगा जिसका सपना हर ब्रजवासी वर्षों से देखता आ रहा है।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि जिन पार्टियों ने अपने प्रत्याशी कृष्ण की इस नगरी के लिए तय कर दिए हैं, क्या उनमें से कोई इस लायक है जो जनअपेक्षाओं पर खरा उतरते हुए यहां की राजनीतिक दरिद्रता को दूर कर सके ?
इसका तो शायद उत्तर देने की भी जरूरत नहीं क्योंकि एक दिन के लिए भाग्यविधाता बनने वाला मतदाता सब जानता है।
वह जानता है कि समाजवादी पार्टी के अब तक घोषित उम्मीदवार ठाकुर चंदन सिंह तथा बसपा के योगेश द्विवेदी कितने पानी में हैं। रही बात 2014 के लिए निवर्तमान हो जाने वाले राष्ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी की तो उनका अपना ही पानी उतर चुका है। 2009 के चुनावों में जिस जयंत चौधरी को स्थानीय भाजपाइयों सहित ब्रजवासियों ने सिर-आंखों पर बैठाकर रिकॉर्ड मतों से जीत दिलवाई, उसने ब्रजवासियों की उपेक्षा करने का ऐसा रिकॉर्ड कायम किया कि अब भाजपा का सबसे बड़ा मुद्दा यही है। अर्थात किसी भी कीमत पर बाहरी प्रत्याशी मंजूर नहीं। दलगत राजनीति से परे मथुरा की अधिकांश जनता भी यही चाहती है कि कोई पार्टी बाहरी प्रत्याशी को ना थोपे।
चुनावी अखाड़े में उतरने वाली शेष पार्टियों में रह जाती हैं वो कांग्रेस और भाजपा, जिन्हें राष्ट्रीय पार्टी का तमगा हासिल है।
कांग्रेस का सूर्य मथुरा में उग पायेगा या नहीं, इसमें संशय है क्योंकि फिलहाल कांग्रेस से रालोद का नाता टूटा नहीं है। यही कारण है कि कांग्रेस बेशक अंदरखाने अपनी गोटियां फिट करने में लगी हो परंतु इस स्थिति में नहीं है कि अपना प्रत्याशी समय रहते घोषित कर सके।
बाकी बची वही भाजपा जिसने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारकर मथुरा जैसी उर्वरा राजनीतिक जमीन को खो दिया और जिस वजह से पार्टी के पूर्व जिलाध्यक्ष पदम सिंह शर्मा मांट क्षेत्र की दरिद्रता का ज़िक्र कर रहे हैं तथा हम पूरे जनपद की दरिद्रता का हवाला दे रहे हैं।
बहरहाल, आज सारा दारोमदार भाजपा पर है क्योंकि भाजपा का घोषित प्रत्याशी ही काफी हद तक यह निश्चित करने में सफल होगा कि मथुरा को 2014 में राजनीतिक दरिद्रता से मुक्ति मिल पाने की कोई संभावना बनती है या नहीं।
कहने को भाजपा से टिकट के दावेदारों में कई नाम सामने हैं। इनमें कुछ तो केवल धनबल से टिकट पाने और फिर जीतने का भी दम भर रहे हैं जबकि कुछ ऊपर तक पहुंच के गुमान में सेहरा बांधे जाने को लेकर आश्वस्त हैं।
इन हालातों में पार्टी को भी कड़ा फैसला करना पड़ेगा क्योंकि 2014 इतिहास दोहराने का मौका तो देगा परंतु इतना मौका नहीं देगा कि इतिहास बनने से बचा जा सके।
भारतीय जनता पार्टी को ये बात ज्यादा गंभीरता से समझनी होगी।
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