मंगलवार, 14 जनवरी 2014

......और कितने भीष्‍म

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष) आज मकर संक्रांति है। इस दिन का यूं तो हिंदू धर्म में तमाम कारणों से विशेष महत्‍व है लेकिन इनमें एक बड़ा कारण यह भी है कि शरशैया पर लेटे हुए किंतु इच्‍छा मृत्‍यु का वरदान प्राप्‍त भीष्‍म पितामह ने आज ही के दिन को अपनी मृत्‍यु के लिए चुना था।
इससे पूर्व महाभारत युद्ध की समाप्‍ति के बाद सभी मृतकों को तिलांजलि देकर जब भगवान श्रीकृष्‍ण पांचों पाण्‍डवों सहित हस्‍तिनापुर लौटे तो शरशैया पर लेटे पितामह भीष्‍म ने श्रीकृष्‍ण को रोक कर उनसे पूछा-
"हे मधुसूदन, मेरे कौन से कर्मों का फल है जो मैं इस तरह शरशैया पर पड़ा हुआ हूँ?''
पितामह के प्रश्‍न पर मुस्‍कुराते हुए श्रीकृष्‍ण ने एक प्रतिप्रश्‍न किया। कृष्‍ण ने पितामह से जानना चाहा कि आपको अपने पूर्व जन्‍मों का कुछ स्‍मरण है?
इस पर पितामह का जवाब था- हे मधुसूदन! मुझे अपने पूरे सौ पूर्व जन्‍मों का स्‍मरण है, साथ ही यह भी याद है कि मैंने इन जन्‍मों में कभी किसी व्‍यक्‍ति का अहित नहीं किया।
श्रीकृष्‍ण फिर मुस्‍कुराये और बोले- लेकिन इन सौ वर्षों से ठीक पहले वाले जन्‍म में जब आप एक राज्‍य के युवराज थे, आपने शिकार खेलते हुए अपने घोड़े की पीठ पर आ गिरे गिरगिट को वाण की नोंक द्वारा उठाकर फेंक दिया था। वह गिरगिट एक बेरिया के पेड़ पर जा गिरा और बेरिया के कांटे उसके शरीर में धंस गए। उस स्‍थिति में वह गिरगिट पूरे 18 दिन जीवित रहा और ईश्‍वर से प्रार्थना करता रहा कि जिस तरह मैं तड़प-तड़प कर मृत्‍यु को प्राप्‍त हो रहा हूं, ठीक इसी तरह की मृत्‍यु को यह युवराज भी प्राप्‍त हो।
श्रीकृष्‍ण ने पितामह को बताया कि गिरगिट का यह श्राप आपके पुण्‍यकर्मों की वजह से कभी फलीभूत नहीं हुआ, लेकिन जब सक्षम होते हुए भी हस्‍तिनापुर की राजसभा में आप द्रोपदी का चीरहरण होते देखते रहे, दुर्योधन व दु:शासन को रोकने की जगह आप मूकदर्शक बने रहे तो आपके समस्‍त पुण्‍यकर्म क्षीण हो गए और उसी क्षण से गिरगिट का श्राप आपके ऊपर फलीभूत होने लगा।
पितामह, प्रत्‍येक मनुष्‍य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी अवश्‍य भोगना पड़ता है। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु तक को अपने कर्मों के अनुसार उसका फल भोगना अवश्‍यम्‍भावी है।
महाभारत के युद्ध से उपजी इस कथा को अनेक लोग जानते होंगे लेकिन आज मकर संक्राति के दिन इसे उल्‍लिखित करने का उद्देश्‍य राजनीति के वर्तमान दौर से इसे जोड़ने तथा राजनीतिज्ञों को एक संदेश के रूप में स्‍मरण कराना है।
2014 के लोकसभा चुनावों से आमजन को बहुत उम्‍मीदें हैं। लोगों को लगता है कि संभवत: इन चुनावों के उपरांत एक लंबे समय से चले आ रहे राजनीति के संक्रमण काल को विराम मिलेगा और देश विकासशीलता के स्‍थाई दौर से बाहर निकलकर विकास के मार्ग पर चलेगा।
बहरहाल, भविष्‍य का तो कुछ पता नहीं परंतु वर्तमान को देखकर जरूर ऐसा लगता है कि जैसे एक-दो नहीं तमाम भीष्‍म पितामह मूकदर्शक बन देश का चीरहरण होते देख रहे हैं।
आश्‍चर्य की बात यह है कि आज के इन भीष्‍म पितामहों को न तो अपने शरशैया पर पड़े होने का भान है और ना अपने इसी जन्‍म के कर्मों का। ज़ाहिर है कि ऐसे में उनसे उनके पूर्व जन्‍मों के कर्मों का हिसाब रखने की कोई अपेक्षा करना तो पूरी तरह बेमानी है।
आश्‍चर्य की बात यह भी है कि जाति, धर्म एवं संप्रदाय के नाम पर राजनीति करने वाले, महाभारत जैसे धर्मयुद्ध की इस कथा से कोई सबक लेते मालूम नहीं पड़ते जबकि उन्‍होंने किसी एक गिरगिट को जाने-अनजाने में नहीं, जानबूझकर पूरे देश की आम जनता को बेरिया के कांटों पर ला पटका है। वह अभिशप्‍त है तिल-तिलकर मरने के लिए लेकिन उसकी आह तक सुनाई नहीं दे रही।
ऐसा लगता है कि श्रीकृष्‍ण के समय में होने वाला महाभारत भले ही अठारह अक्षौहणी सेना के मारे जाने पर समाप्‍त हो गया हो किंतु देश की स्‍वतंत्रता के लिए 1857 से शुरू हुआ महाभारत आज तक जारी है। 15 अगस्‍त 1947 को हुए युद्धविराम से जिस स्‍वतंत्रता का आभास कराया गया था, वह एक सुनियोजित छल था। उस दिन से हुआ तो सिर्फ इतना कि गोरों का स्‍थान उन काले अंग्रेजों ने ले लिया जो दिखते तो अपने जैसे हैं पर उनके क्रिया-कलाप किसी मायने में फिरंगियों से कम नहीं। उनकी सूरतें बेशक फिरंगियों से नहीं मिलतीं परंतु सीरतें हूबहू वैसी ही हैं।
संभवत: इसीलिए आज के शासकों को न तो भीष्‍मपितामह की कथा याद है और न श्रीकृष्‍ण व उनके बीच हुए संवाद। उन्‍हें याद हैं तो केवल वो तौर तरीके जिनका इस्‍तेमाल कर फिरंगियों ने सैकड़ों साल इस देश को गुलाम बनाए रखा और इसकी धन संपदा लूटकर ले गये।
खैर, इन्‍हें महाभारत याद न सही......श्रीकृष्‍ण और पितामह भीष्‍म के बीच का संवाद स्‍मरण न सही....लेकिन आमजन को याद भी है और उन्‍हें उस पर पूरा भरोसा भी है।
उन्‍हें श्रीकृष्‍ण द्वारा पितामह भीष्‍म से कहे गए उन अंतिम शब्‍दों पर अक्षरश: यकीन है कि  प्रत्‍येक मनुष्‍य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी अवश्‍य भोगना पड़ता है। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है।
संक्रांति का पर्व यह स्‍मरण कराने तथा आमजन की आस्‍था को अडिग बनाये रखने के लिए काफी है कि जाने-अनजाने में किये गये कर्मों का भी फल भोगना पड़ता है लिहाजा आज नहीं तो कल देश के शासकों से प्रकृति इन 66 सालों का हिसाब मांगेगी जरूर।
गिरगिट का श्राप फलीभूत होने की शुरूआत तो हो चुकी है, बस उसका अंजाम तक पहुंचना बाकी है।

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