2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की दुंदुभि बज चुकी है।
भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस सहित रालोद ने भी अपनी-अपनी चालें चलना शुरू
कर दिया है। समाजवादी पार्टी जहां फिर से सत्ता पर काबिज होने का ख्वाब
पाले बैठी है वहीं बहुजन समाज पार्टी अपनी खोई हुई सत्ता हासिल करना चाहती
है। भारतीय जनता पार्टी स्वर्णिम दिन लौटने की आश में नित-नए जतन कर रही
है और कांग्रेस को उम्मीद है कि उसके पक्ष में कोई चमत्कार हो न हो परंतु
वह बिहार चुनावों की तरह सम्मानजनक स्थान बना सकती है। इधर राष्ट्रीय
लोकदल भी किसी न किसी के सहारे अपनी जमीन पा लेने की जुगत में है।
मथुरा, काशी, विश्वनाथ…तीनों लेंगे एकसाथ का नारा एकबार फिर आकर्षक पैक में बुलंद किया जाने लगा है।
मथुरा में फिलहाल भाजपा का एक भी विधायक नहीं है। कुल पांच विधायकों में से आज की तारीख में तीन बसपा के खेमे में हैं जबकि एक कांग्रेस तथा एक रालोद के पास है।
सत्ताधारी समाजवादी पार्टी कभी यहां अपना खाता खोलने में सफल नहीं रही। न लोकसभा में और न विधानसभा में।
नरेन्द्र मोदी की हवा के चलते 2014 के लोकसभा चुनावों में गुजरे जमाने की ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी ने भाजपा की टिकट पर चुनाव जरूर जीत लिया किंतु जीत दर्ज करने के बाद से वह ”जनता जनार्दन” की जगह एक दूसरे ही जनार्दन पर भरोसा किए बैठी हैं।
जहां तक बतौर सांसद हेमा मालिनी की मथुरा के लिए उपलब्धियों का सवाल है तो वह जुबानी जमाखर्च ज्यादा हैं, हकीकत कम। कागजी घोड़े तो दौड़ाए जा रहे हैं किंतु उनका नतीजा उल्लेखनीय नहीं है।
कृष्ण की जन्मभूमि के वासियों का आयातित जनप्रतिधियों को लेकर पूर्व में भी अनुभव अच्छा नहीं रहा है। बात चाहे मनीराम बागड़ी की हो या डॉ. सच्चिदानंद हरि साक्षी की, जयंत चौधरी की हो अथवा हेमा मालिनी की। मथुरा की जनता को सभी ने निराश किया और यही कारण है कि साक्षी महाराज को छोड़कर इनमें से कोई यहां दोबारा जीत दर्ज नहीं कर पाया।
मथुरा की जनता को कभी जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूअल मिशन के नाम पर ठगा गया तो कभी एनसीआर में शामिल कराने के नाम पर। कभी तीर्थस्थल घोषित कराने की आड़ लेकर जनभावनाओं का दोहन किया गया और कभी यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने के बहाने।
हेमा मालिनी के लिए मथुरा में वोट मांगने आए नरेन्द्र मोदी ने भी यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने का वादा स्थानीय जनता से किया था किंतु सत्ता पर काबिज होने के 20 महीनों बाद तक यमुना की दयनीय दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। हुआ है तो केवल इतना कि यमुना 2014 के बाद से कुछ और अधिक मैली हो गई है।
यूं यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने का संकल्प राष्ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी ने भी लिया था लेकिन वह यमुना तो दूर, मथुरा की ओर भी मुंह करके सोना भूल गए।
अब मथुरा-वृंदावन को हैरिटेज सिटी बनाने का शिगूफा छोड़ा गया है लेकिन यमुना के शुद्धीकरण की कोई योजना नहीं है।
कृष्ण जन्मभूमि से चंद कदमों की दूरी पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश-निर्देशों की खुलेआम धज्जियां उड़ाकर हर दिन अनगिनित पशुओं का कत्ल किया जाता है। इन पशुओं का रक्त नाले-नालियों के जरिए सीधे यमुना में जाकर गिरता है। शराब और मांस की बिक्री पर भी कोई पाबंदी नहीं है।
सड़कें बदहाल हैं और ऊपर से हर रोज लगने वाला जाम, आम व खास… हर आदमी को बेहाल किए हुए है। ताज ट्रपेजियम जोन में होने के बावजूद बिजली के न आने का कोई समय निर्धारित है और न जाने का। हल्की ठंड के इस दौर में भी हर रोज कई-कई घंटों के लिए बिजली की अघोषित कटौती की जाती है।
अगर बात करें पूरे सूबे की तो हर जिले का कमोबेश यही हाल है। समाजवादी कुनबे के लिए विशिष्ट स्थान रखने वाले कुछ जिलों की बात यदि छोड़ दें तो पूरे प्रदेश में बिजली, पानी, सड़क व यातायात व्यवस्था करीब-करीब एक जैसी है। कानून-व्यवस्था मजाक बनकर रह गई है।
ऐसा नहीं है कि इसका संबंध सिर्फ और सिर्फ समाजवादी पार्टी की सरकार से हो, इससे पहले भी उत्तर प्रदेश में जो भी पार्टी सत्ता पर काबिज रही, उसने कुछ ऐसा काम नहीं किया जिससे उत्तर प्रदेश में कोई आमूल-चूल परिवर्तन हुआ हो।
यही कारण है कि उत्तर प्रदेश की स्थिति हर चुनाव के बाद बद से बदतर होती गई जबकि सत्ता पर काबिज होने वाले दलों की माली हालत में अभूतपूर्व सुधार हुआ। सपा और बसपा के नेताओं पर आय से अधिक संपत्ति के केस लंबित होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इस बीच कभी माया की मूर्तियां सुर्खियों में रही तो कभी यादवों का यादव सिंह। इस सबके अलावा यूपी जहां थी, वहीं है। फर्क केवल इतना है कि बसपा के शासन में रिजर्व कोटे के अधिकारियों की तूती बोलने लगती है और समाजवादी पार्टी के रहते यादवों की।
इन्हीं सब कारणों से 2017 के विधानसभा चुनावों को लेकर आम जनता में कोई उत्साह दिखाई नहीं दे रहा जबकि राजनीतिक दलों ने कमर कसनी शुरू कर दी है। हालांकि चुनावों में अभी करीब सवा साल शेष है लेकिन लगता नहीं कि जनता में कोई उत्साह पैदा हो सकेगा।
जनता में उत्साह पैदा होने की संभावना इसलिए क्षीण दिखाई देती है कि उन्हीं दलों की दलदल है और वही नेता हैं। वही नीतियां हैं और वही कार्यपद्धति। सूरतें बदल जाती हैं किंतु सीरतें नहीं बदलतीं।
2017 से भी लोगों को कोई ऐसी उम्मीद नहीं रही जिसे लेकर उत्तर प्रदेश के उत्तम प्रदेश की ओर कदम बढ़ते दिखाई दें।
समाजवादी पार्टी सत्ता से बेदखल हो जाए या बनी रहे। बसपा आ जाए या न आए। भाजपा एक बार और सत्ता पर काबिज हो जाए अथवा रालोद किसी के साथ नया गठबंधन कर ले, जनता को क्या फर्क पड़ने वाला है। जन आकांक्षाओं पर खरा उतरने की परवाह किसी को नहीं।
सभी राजनीतिक दल जानते हैं कि जनता विकल्पहीन है और उनके पास विकल्प ही विकल्प हैं। संविधान प्रदत्त अधिकार हों या कर्तव्य, राजनीतिक दलों के लिए वह वरदान हैं जबकि जनता के लिए वह अभिषाप बनकर रह गए हैं।
ऐसे में 2017 के चुनाव सत्ता परिवर्तन के लिए बेशक अहमियत रखते हों किंतु व्यवस्था परिवर्तन की कोई उम्मीद दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती।
जनता के पास रहेगा तो यही रटा-रटाया जुमला कि कोऊ नृप होय, हमें का हानि। वो जिस हाल में 2012 में थी, 2007 में थी, उसी हाल में 2017 के बाद भी रहेगी।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
मथुरा, काशी, विश्वनाथ…तीनों लेंगे एकसाथ का नारा एकबार फिर आकर्षक पैक में बुलंद किया जाने लगा है।
मथुरा में फिलहाल भाजपा का एक भी विधायक नहीं है। कुल पांच विधायकों में से आज की तारीख में तीन बसपा के खेमे में हैं जबकि एक कांग्रेस तथा एक रालोद के पास है।
सत्ताधारी समाजवादी पार्टी कभी यहां अपना खाता खोलने में सफल नहीं रही। न लोकसभा में और न विधानसभा में।
नरेन्द्र मोदी की हवा के चलते 2014 के लोकसभा चुनावों में गुजरे जमाने की ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी ने भाजपा की टिकट पर चुनाव जरूर जीत लिया किंतु जीत दर्ज करने के बाद से वह ”जनता जनार्दन” की जगह एक दूसरे ही जनार्दन पर भरोसा किए बैठी हैं।
जहां तक बतौर सांसद हेमा मालिनी की मथुरा के लिए उपलब्धियों का सवाल है तो वह जुबानी जमाखर्च ज्यादा हैं, हकीकत कम। कागजी घोड़े तो दौड़ाए जा रहे हैं किंतु उनका नतीजा उल्लेखनीय नहीं है।
कृष्ण की जन्मभूमि के वासियों का आयातित जनप्रतिधियों को लेकर पूर्व में भी अनुभव अच्छा नहीं रहा है। बात चाहे मनीराम बागड़ी की हो या डॉ. सच्चिदानंद हरि साक्षी की, जयंत चौधरी की हो अथवा हेमा मालिनी की। मथुरा की जनता को सभी ने निराश किया और यही कारण है कि साक्षी महाराज को छोड़कर इनमें से कोई यहां दोबारा जीत दर्ज नहीं कर पाया।
मथुरा की जनता को कभी जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूअल मिशन के नाम पर ठगा गया तो कभी एनसीआर में शामिल कराने के नाम पर। कभी तीर्थस्थल घोषित कराने की आड़ लेकर जनभावनाओं का दोहन किया गया और कभी यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने के बहाने।
हेमा मालिनी के लिए मथुरा में वोट मांगने आए नरेन्द्र मोदी ने भी यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने का वादा स्थानीय जनता से किया था किंतु सत्ता पर काबिज होने के 20 महीनों बाद तक यमुना की दयनीय दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। हुआ है तो केवल इतना कि यमुना 2014 के बाद से कुछ और अधिक मैली हो गई है।
यूं यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने का संकल्प राष्ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी ने भी लिया था लेकिन वह यमुना तो दूर, मथुरा की ओर भी मुंह करके सोना भूल गए।
अब मथुरा-वृंदावन को हैरिटेज सिटी बनाने का शिगूफा छोड़ा गया है लेकिन यमुना के शुद्धीकरण की कोई योजना नहीं है।
कृष्ण जन्मभूमि से चंद कदमों की दूरी पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश-निर्देशों की खुलेआम धज्जियां उड़ाकर हर दिन अनगिनित पशुओं का कत्ल किया जाता है। इन पशुओं का रक्त नाले-नालियों के जरिए सीधे यमुना में जाकर गिरता है। शराब और मांस की बिक्री पर भी कोई पाबंदी नहीं है।
सड़कें बदहाल हैं और ऊपर से हर रोज लगने वाला जाम, आम व खास… हर आदमी को बेहाल किए हुए है। ताज ट्रपेजियम जोन में होने के बावजूद बिजली के न आने का कोई समय निर्धारित है और न जाने का। हल्की ठंड के इस दौर में भी हर रोज कई-कई घंटों के लिए बिजली की अघोषित कटौती की जाती है।
अगर बात करें पूरे सूबे की तो हर जिले का कमोबेश यही हाल है। समाजवादी कुनबे के लिए विशिष्ट स्थान रखने वाले कुछ जिलों की बात यदि छोड़ दें तो पूरे प्रदेश में बिजली, पानी, सड़क व यातायात व्यवस्था करीब-करीब एक जैसी है। कानून-व्यवस्था मजाक बनकर रह गई है।
ऐसा नहीं है कि इसका संबंध सिर्फ और सिर्फ समाजवादी पार्टी की सरकार से हो, इससे पहले भी उत्तर प्रदेश में जो भी पार्टी सत्ता पर काबिज रही, उसने कुछ ऐसा काम नहीं किया जिससे उत्तर प्रदेश में कोई आमूल-चूल परिवर्तन हुआ हो।
यही कारण है कि उत्तर प्रदेश की स्थिति हर चुनाव के बाद बद से बदतर होती गई जबकि सत्ता पर काबिज होने वाले दलों की माली हालत में अभूतपूर्व सुधार हुआ। सपा और बसपा के नेताओं पर आय से अधिक संपत्ति के केस लंबित होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इस बीच कभी माया की मूर्तियां सुर्खियों में रही तो कभी यादवों का यादव सिंह। इस सबके अलावा यूपी जहां थी, वहीं है। फर्क केवल इतना है कि बसपा के शासन में रिजर्व कोटे के अधिकारियों की तूती बोलने लगती है और समाजवादी पार्टी के रहते यादवों की।
इन्हीं सब कारणों से 2017 के विधानसभा चुनावों को लेकर आम जनता में कोई उत्साह दिखाई नहीं दे रहा जबकि राजनीतिक दलों ने कमर कसनी शुरू कर दी है। हालांकि चुनावों में अभी करीब सवा साल शेष है लेकिन लगता नहीं कि जनता में कोई उत्साह पैदा हो सकेगा।
जनता में उत्साह पैदा होने की संभावना इसलिए क्षीण दिखाई देती है कि उन्हीं दलों की दलदल है और वही नेता हैं। वही नीतियां हैं और वही कार्यपद्धति। सूरतें बदल जाती हैं किंतु सीरतें नहीं बदलतीं।
2017 से भी लोगों को कोई ऐसी उम्मीद नहीं रही जिसे लेकर उत्तर प्रदेश के उत्तम प्रदेश की ओर कदम बढ़ते दिखाई दें।
समाजवादी पार्टी सत्ता से बेदखल हो जाए या बनी रहे। बसपा आ जाए या न आए। भाजपा एक बार और सत्ता पर काबिज हो जाए अथवा रालोद किसी के साथ नया गठबंधन कर ले, जनता को क्या फर्क पड़ने वाला है। जन आकांक्षाओं पर खरा उतरने की परवाह किसी को नहीं।
सभी राजनीतिक दल जानते हैं कि जनता विकल्पहीन है और उनके पास विकल्प ही विकल्प हैं। संविधान प्रदत्त अधिकार हों या कर्तव्य, राजनीतिक दलों के लिए वह वरदान हैं जबकि जनता के लिए वह अभिषाप बनकर रह गए हैं।
ऐसे में 2017 के चुनाव सत्ता परिवर्तन के लिए बेशक अहमियत रखते हों किंतु व्यवस्था परिवर्तन की कोई उम्मीद दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती।
जनता के पास रहेगा तो यही रटा-रटाया जुमला कि कोऊ नृप होय, हमें का हानि। वो जिस हाल में 2012 में थी, 2007 में थी, उसी हाल में 2017 के बाद भी रहेगी।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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