बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने Corruption के एक मामले में सुनवाई के दौरान कल इस आशय की गंभीर टिप्पणी की कि यदि सरकारी तंत्र Corruption को रोकने में असफल है तो लोगों को टैक्स अदा न करके असहयोग आंदोलन छेड़ देना चाहिए।
चूंकि जस्टिस अरुण चौधरी ने यह टिप्पणी केस की सुनवाई के चलते की थी इसलिए इसे हाईकोर्ट का आदेश तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह जरूर माना जा सकता है कि भ्रष्टाचार अब ऐसे पद पर बैठे लोगों को भी लाइलाज बीमारी लगने लगा है जो बहुत कुछ करने में सक्षम हैं। जिनका हर शब्द ध्यान आकृष्ट कराता है और हर टिप्पणी अहमियत रखती है।
बेशक न्यायालय और न्यायाधीशों को सरकारी तंत्र में व्याप्त खामियों पर टिप्पणी करने और आदेश-निर्देश देने का पूरा अधिकार है लेकिन क्या कोई न्यायालय अथवा न्यायाधीश ऐसी ही तल्ख टिप्पणी अपने यहां फैले बेहिसाब भ्रष्टाचार को लेकर करने की हिम्मत दिखायेगा।
न्यायपालिका इस देश के आम नागरिक की अंतिम आशा है। जब लोगों को चारों ओर से निराशा हाथ लगती है तब भी उसे न्यायपालिका से उम्मीद बंधी रहती है।
ऐसे में यदि न्यायपालिका भी उसी भ्रष्टाचार की शिकार हो, जिसे लेकर नागपुर बेंच के जस्टिस अरुण चौधरी ने एक गंभीर टिप्पणी की है तो लोग क्या करें और उससे कैसे निपटें।
कौन नहीं जानता कि आज आम आदमी के लिए किसी भी स्तर की न्यायपालिका से समय रहते फैसले करा पाना कितना मुश्किल है। वो भी तब जबकि तमाम विद्वान न्यायाधीश यह मान चुके हैं कि देर से किया गया न्याय, किसी अन्याय से कम नहीं है। ऐसा न्याय न केवल अपनी सार्थकता खो चुका होता है बल्कि अनेक सवाल भी खड़े करता है।
माना कि जरूरत से ज्यादा काम का बोझ, हर दिन बढ़ता जाता फाइलों का ढेर और व्यवस्थागत खामियों के कारण समय पर निर्णय देना इतना आसान नहीं है किंतु यदि लाइलाज बीमारी का रूप धारण कर चुके चारों ओर व्याप्त भ्रष्टाचार पर यदि कोई जस्टिस इतनी गंभीर टिप्पणी कर सकते हैं तो न्याय व्यवस्था की खामियों पर भी जरूर कर सकते हैं क्योंकि उन खामियों को दूर करना भी उसी तंत्र का काम है, किसी दूसरे का नहीं।
यदि बात करें जिला स्तरीय निचली अदालतों की तो वहां भी भ्रष्टाचार उसी अनुपात में व्याप्त है जिस अनुपात में दूसरे भ्रष्टतम सरकारी विभागों में फैला हुआ है।
अदालत के दरवाजे पर मुकद्दमों की सुनवाई के लिए आवाज लगाने से लेकर अदालत के अंदर बैठे मोहर्रिर और पेशकार तक कौन सा ऐसा कर्मचारी है जो हर व्यक्ति से रिश्वत नहीं वसूलता। फिर चाहे वह वादी हो या प्रतिवादी।
क्या विद्वान न्यायाधीश उस एक कमरे में व्याप्त भ्रष्टाचार के इस खुले खेल से अनभिज्ञ हैं जिसे अदालत कहा जाता है और जो न्याय का मंदिर कहलाता है।
अपने एकदम बगल में बैठकर खुलेआम रिश्वत वसूले जाने का इल्म क्या विद्वान न्यायाधीश को नहीं होता, और यदि नहीं होता तो क्या उनके न्यायाधीश होने की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता।
यदि अपने बगल में और एक कमरे के अंदर वसूली जा रही रिश्वत को न्यायाधीश नहीं रोक सकते तो क्या उन्हें देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करने का कोई नैतिक अधिकार रह जाता है। क्या ऐसी न्याय व्यवस्था से न्याय की उम्मीद की जा सकती है जो अपनी नाक के नीचे हो रहे भ्रष्टाचार को रोक पाने में असमर्थ है।
अधिकांश न्यायाधीश भी निचली अदालतों से प्रमोशन पाकर उच्च और उच्चतम न्यायालयों तक पहुंचते हैं इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि वह निचली अदालतों की भ्रष्ट व्यवस्था से वाकिफ नहीं होते। वह भली-भांति जानते व समझते हैं कि तारीख पर तारीख के खेल का रहस्य क्या है और कैसे कोई सामर्थ्यवान व्यक्ति किसी मामले को अपने पक्ष में वर्षों-वर्षों तक लटकाये रखने में सफल रहता है।
जिला अदालतों की इस व्यवस्था से भी शायद ही कोई न्यापालिका या न्यायाधीश अनभिज्ञ हो जिसके तहत क्लैरीकल स्टाफ का एक बड़ा हिस्सा अवैध रूप से ठेके पर रख लिया जाता है और यह काम कोई अन्य नहीं, न्यायपालिका के ही कर्मचारी अपनी सुविधा के लिए करते हैं।
यह संभव नहीं है कि अवैध रूप से ठेके पर स्टाफ रखने जैसा निर्णय न्यायपालिका के द्वितीय श्रेणी कर्मचारी अपने स्तर से ले लेते हों, निश्चत रूप से इसमें संबंधित न्यायाधीशों की मूक सहमति शामिल होती होगी अन्यथा आज तक किसी न्यायाधीश ने कभी इस पर टिप्पणी क्यों नहीं की।
आम आदमी से इस बावत यदि कोई न्यायाधीश उसकी प्रतिक्रिया पूछने बैठें तो उन्हें साफ-साफ पता लग सकता है कि वो क्या सोचता है।
अदालत की चारदीवारी से बाहर किसी को भी यह कहते सुना जा सकता है कि यहां की तो ईंट-ईंट पैसा मांगती है…और यह भी कि कर्मचारियों द्वारा अदालत के अंदर उगाहे गए पैसों से ”साहब” की भी किचन का खर्चा चलता है।
जो भी हो, लेकिन इसमें शायद ही किसी की राय भिन्न होगी कि अदालतों की ईंट-ईंट पैसा मांगती है और तारीख लेने से लेकर न्याय पाने तक के लंबे रास्ते में पैसों का ढेर ही अंतत: काम आता है। फिर चाहे यह पैसा वकीलों के माध्यम से आता-जाता हो अथवा किसी अन्य माध्यम से।
ऐसा नहीं है कि समूची न्यायपालिकाएं और हर वकील इस व्यवस्था का हिस्सा हों या वो इसे स्वेच्छा से स्वीकार कर रहे हों। न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं का एक हिस्सा भी इस व्यवस्था से बेहद दुखी और परेशान है लेकिन वह संख्याबल के सामने मजबूर हैं।
संख्याबल का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि आज यदि कोई किसी जिला अदालत में मौजूद कुल न्यायाधीशों की संख्या में से ईमानदार अधिकारियों का नाम पूछने बैठ जाए तो पता लगेगा कि एक हाथ की कुल चार उंगलियों तक पहुंचना मुश्किल हो जायेगा। ज्यादातर जिला अदालतों में वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था के हिमायतियों की संख्या, ईमानदार अधिकारियों को बहुत पीछे छोड़ देगी। जाहिर है कि ऐसे अधिकारियों से न्याय पाने के लिए अधिवक्ताओं को भी उन्हीं के ढर्रे पर चलना पड़ता है अन्यथा न वकालत चलेगी और न वकील। दोनों के लिए काले कोट की पहचान बना पाना असंभव हो जायेगा।
भ्रष्टाचार के इस खेल में रही-सही कसर वहां पूरी हो जाती है जहां न्यायाधीशों के विशेष अधिकार, उनका विवेक और चुनौतियों से परे उनके कर्तव्य आड़े आ जाते हैं। वहां आम आदमी हो या खास, सब बेबस होते हैं।
कहने के लिए पूरी न्याय प्रक्रिया वादी और प्रतिवादी के लिए तय नियम-कानूनों से भरी पड़ी है किंतु जब बात आती है न्यायाधीशों के विशेष अधिकार की, स्व विवेक से निर्णय लेने की तो वहां किसी की नहीं चलती। इन्हीं विशेषाधिकारों तथा स्व विवेकी निर्णयों में ”बहुत कुछ” निहित है। वो न्याय व्यवस्था भी जिसकी अंतिम आशा प्रत्येक वादी-प्रतिवादी को होती तो है किंतु जो उसे हासिल नहीं है।
जहां तक प्रश्न Bombay high court की नागपुर बेंच के न्यायाधीश अरुण चौधरी की Corruption को लेकर की गई टिप्पणी का है तो नि:संदेह उनकी टिप्पणी व्यवस्थागत खामियों की भयावहता को उजागर करती है लेकिन उसमें उनकी निजी भावनाओं का समावेश अधिक है, अपेक्षाकृत वास्तविकता के क्योंकि वास्तव में न आम आदमी टैक्स देना बंद कर सकता है और न वर्तमान व्यवस्थाएं भ्रष्टाचार के भस्मासुर से निपटने की क्षमता रखती हैं।
हो सकता है तो केवल इतना कि आम आदमी के असहयोग आंदोलन से रही-सही व्यवस्थाओं पर भी अव्यवस्थाएं हावी हो जाएं। समाज निरंकुश हो जाए और अराजकता पूरे सिस्टम पर हावी हो जाए।
व्यवस्था से आजिज कोई भी शख्स या संस्था जब कानून-व्यवस्था को अपने हाथ में ले लेता है अथवा अपने हिसाब से उसका आंकलन करने लगता है तो उसके गंभीर परिणाम देश व समाज दोनों को भुगतने पड़ते हैं।
बेहतर होगा कि न्यायपालिकाएं और न्यायाधीश भी भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या को न तो सिर्फ सरकारी तंत्र तक सीमित करके देखें और न सिर्फ टिप्पणी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लें।
यदि वाकई भ्रष्टाचार को लेकर वो व्यथित हैं और इसे कम करना चाहते हैं तो शुरूआत अपने अधिकार और कर्तव्यों से करें।
सरकार का हर तंत्र और तंत्र की छोटी से छोटी इकाई जब तक इसकी शुरूआत अपने यहां से नहीं करेगी, तब तक जस्टिस अशोक चौधरी जैसे अधिकारियों की टिप्पणियों के कोई मायने नहीं होंगे। कोई परिवर्तन नहीं आयेगा। किसी के कानों पर जूं नहीं रेंगेगी, क्योंकि एक कड़वा सच यह भी है कि नमक से नमक नहीं खाया जा सकता।
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबकर भ्रष्टाचार मिटाने की बात करना हास्यास्पद प्रतीत होता है, चाहे वह बात न्यायपालिका के स्तर से ही क्यों न कही गई हो।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
चूंकि जस्टिस अरुण चौधरी ने यह टिप्पणी केस की सुनवाई के चलते की थी इसलिए इसे हाईकोर्ट का आदेश तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह जरूर माना जा सकता है कि भ्रष्टाचार अब ऐसे पद पर बैठे लोगों को भी लाइलाज बीमारी लगने लगा है जो बहुत कुछ करने में सक्षम हैं। जिनका हर शब्द ध्यान आकृष्ट कराता है और हर टिप्पणी अहमियत रखती है।
बेशक न्यायालय और न्यायाधीशों को सरकारी तंत्र में व्याप्त खामियों पर टिप्पणी करने और आदेश-निर्देश देने का पूरा अधिकार है लेकिन क्या कोई न्यायालय अथवा न्यायाधीश ऐसी ही तल्ख टिप्पणी अपने यहां फैले बेहिसाब भ्रष्टाचार को लेकर करने की हिम्मत दिखायेगा।
न्यायपालिका इस देश के आम नागरिक की अंतिम आशा है। जब लोगों को चारों ओर से निराशा हाथ लगती है तब भी उसे न्यायपालिका से उम्मीद बंधी रहती है।
ऐसे में यदि न्यायपालिका भी उसी भ्रष्टाचार की शिकार हो, जिसे लेकर नागपुर बेंच के जस्टिस अरुण चौधरी ने एक गंभीर टिप्पणी की है तो लोग क्या करें और उससे कैसे निपटें।
कौन नहीं जानता कि आज आम आदमी के लिए किसी भी स्तर की न्यायपालिका से समय रहते फैसले करा पाना कितना मुश्किल है। वो भी तब जबकि तमाम विद्वान न्यायाधीश यह मान चुके हैं कि देर से किया गया न्याय, किसी अन्याय से कम नहीं है। ऐसा न्याय न केवल अपनी सार्थकता खो चुका होता है बल्कि अनेक सवाल भी खड़े करता है।
माना कि जरूरत से ज्यादा काम का बोझ, हर दिन बढ़ता जाता फाइलों का ढेर और व्यवस्थागत खामियों के कारण समय पर निर्णय देना इतना आसान नहीं है किंतु यदि लाइलाज बीमारी का रूप धारण कर चुके चारों ओर व्याप्त भ्रष्टाचार पर यदि कोई जस्टिस इतनी गंभीर टिप्पणी कर सकते हैं तो न्याय व्यवस्था की खामियों पर भी जरूर कर सकते हैं क्योंकि उन खामियों को दूर करना भी उसी तंत्र का काम है, किसी दूसरे का नहीं।
यदि बात करें जिला स्तरीय निचली अदालतों की तो वहां भी भ्रष्टाचार उसी अनुपात में व्याप्त है जिस अनुपात में दूसरे भ्रष्टतम सरकारी विभागों में फैला हुआ है।
अदालत के दरवाजे पर मुकद्दमों की सुनवाई के लिए आवाज लगाने से लेकर अदालत के अंदर बैठे मोहर्रिर और पेशकार तक कौन सा ऐसा कर्मचारी है जो हर व्यक्ति से रिश्वत नहीं वसूलता। फिर चाहे वह वादी हो या प्रतिवादी।
क्या विद्वान न्यायाधीश उस एक कमरे में व्याप्त भ्रष्टाचार के इस खुले खेल से अनभिज्ञ हैं जिसे अदालत कहा जाता है और जो न्याय का मंदिर कहलाता है।
अपने एकदम बगल में बैठकर खुलेआम रिश्वत वसूले जाने का इल्म क्या विद्वान न्यायाधीश को नहीं होता, और यदि नहीं होता तो क्या उनके न्यायाधीश होने की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता।
यदि अपने बगल में और एक कमरे के अंदर वसूली जा रही रिश्वत को न्यायाधीश नहीं रोक सकते तो क्या उन्हें देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करने का कोई नैतिक अधिकार रह जाता है। क्या ऐसी न्याय व्यवस्था से न्याय की उम्मीद की जा सकती है जो अपनी नाक के नीचे हो रहे भ्रष्टाचार को रोक पाने में असमर्थ है।
अधिकांश न्यायाधीश भी निचली अदालतों से प्रमोशन पाकर उच्च और उच्चतम न्यायालयों तक पहुंचते हैं इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि वह निचली अदालतों की भ्रष्ट व्यवस्था से वाकिफ नहीं होते। वह भली-भांति जानते व समझते हैं कि तारीख पर तारीख के खेल का रहस्य क्या है और कैसे कोई सामर्थ्यवान व्यक्ति किसी मामले को अपने पक्ष में वर्षों-वर्षों तक लटकाये रखने में सफल रहता है।
जिला अदालतों की इस व्यवस्था से भी शायद ही कोई न्यापालिका या न्यायाधीश अनभिज्ञ हो जिसके तहत क्लैरीकल स्टाफ का एक बड़ा हिस्सा अवैध रूप से ठेके पर रख लिया जाता है और यह काम कोई अन्य नहीं, न्यायपालिका के ही कर्मचारी अपनी सुविधा के लिए करते हैं।
यह संभव नहीं है कि अवैध रूप से ठेके पर स्टाफ रखने जैसा निर्णय न्यायपालिका के द्वितीय श्रेणी कर्मचारी अपने स्तर से ले लेते हों, निश्चत रूप से इसमें संबंधित न्यायाधीशों की मूक सहमति शामिल होती होगी अन्यथा आज तक किसी न्यायाधीश ने कभी इस पर टिप्पणी क्यों नहीं की।
आम आदमी से इस बावत यदि कोई न्यायाधीश उसकी प्रतिक्रिया पूछने बैठें तो उन्हें साफ-साफ पता लग सकता है कि वो क्या सोचता है।
अदालत की चारदीवारी से बाहर किसी को भी यह कहते सुना जा सकता है कि यहां की तो ईंट-ईंट पैसा मांगती है…और यह भी कि कर्मचारियों द्वारा अदालत के अंदर उगाहे गए पैसों से ”साहब” की भी किचन का खर्चा चलता है।
जो भी हो, लेकिन इसमें शायद ही किसी की राय भिन्न होगी कि अदालतों की ईंट-ईंट पैसा मांगती है और तारीख लेने से लेकर न्याय पाने तक के लंबे रास्ते में पैसों का ढेर ही अंतत: काम आता है। फिर चाहे यह पैसा वकीलों के माध्यम से आता-जाता हो अथवा किसी अन्य माध्यम से।
ऐसा नहीं है कि समूची न्यायपालिकाएं और हर वकील इस व्यवस्था का हिस्सा हों या वो इसे स्वेच्छा से स्वीकार कर रहे हों। न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं का एक हिस्सा भी इस व्यवस्था से बेहद दुखी और परेशान है लेकिन वह संख्याबल के सामने मजबूर हैं।
संख्याबल का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि आज यदि कोई किसी जिला अदालत में मौजूद कुल न्यायाधीशों की संख्या में से ईमानदार अधिकारियों का नाम पूछने बैठ जाए तो पता लगेगा कि एक हाथ की कुल चार उंगलियों तक पहुंचना मुश्किल हो जायेगा। ज्यादातर जिला अदालतों में वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था के हिमायतियों की संख्या, ईमानदार अधिकारियों को बहुत पीछे छोड़ देगी। जाहिर है कि ऐसे अधिकारियों से न्याय पाने के लिए अधिवक्ताओं को भी उन्हीं के ढर्रे पर चलना पड़ता है अन्यथा न वकालत चलेगी और न वकील। दोनों के लिए काले कोट की पहचान बना पाना असंभव हो जायेगा।
भ्रष्टाचार के इस खेल में रही-सही कसर वहां पूरी हो जाती है जहां न्यायाधीशों के विशेष अधिकार, उनका विवेक और चुनौतियों से परे उनके कर्तव्य आड़े आ जाते हैं। वहां आम आदमी हो या खास, सब बेबस होते हैं।
कहने के लिए पूरी न्याय प्रक्रिया वादी और प्रतिवादी के लिए तय नियम-कानूनों से भरी पड़ी है किंतु जब बात आती है न्यायाधीशों के विशेष अधिकार की, स्व विवेक से निर्णय लेने की तो वहां किसी की नहीं चलती। इन्हीं विशेषाधिकारों तथा स्व विवेकी निर्णयों में ”बहुत कुछ” निहित है। वो न्याय व्यवस्था भी जिसकी अंतिम आशा प्रत्येक वादी-प्रतिवादी को होती तो है किंतु जो उसे हासिल नहीं है।
जहां तक प्रश्न Bombay high court की नागपुर बेंच के न्यायाधीश अरुण चौधरी की Corruption को लेकर की गई टिप्पणी का है तो नि:संदेह उनकी टिप्पणी व्यवस्थागत खामियों की भयावहता को उजागर करती है लेकिन उसमें उनकी निजी भावनाओं का समावेश अधिक है, अपेक्षाकृत वास्तविकता के क्योंकि वास्तव में न आम आदमी टैक्स देना बंद कर सकता है और न वर्तमान व्यवस्थाएं भ्रष्टाचार के भस्मासुर से निपटने की क्षमता रखती हैं।
हो सकता है तो केवल इतना कि आम आदमी के असहयोग आंदोलन से रही-सही व्यवस्थाओं पर भी अव्यवस्थाएं हावी हो जाएं। समाज निरंकुश हो जाए और अराजकता पूरे सिस्टम पर हावी हो जाए।
व्यवस्था से आजिज कोई भी शख्स या संस्था जब कानून-व्यवस्था को अपने हाथ में ले लेता है अथवा अपने हिसाब से उसका आंकलन करने लगता है तो उसके गंभीर परिणाम देश व समाज दोनों को भुगतने पड़ते हैं।
बेहतर होगा कि न्यायपालिकाएं और न्यायाधीश भी भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या को न तो सिर्फ सरकारी तंत्र तक सीमित करके देखें और न सिर्फ टिप्पणी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लें।
यदि वाकई भ्रष्टाचार को लेकर वो व्यथित हैं और इसे कम करना चाहते हैं तो शुरूआत अपने अधिकार और कर्तव्यों से करें।
सरकार का हर तंत्र और तंत्र की छोटी से छोटी इकाई जब तक इसकी शुरूआत अपने यहां से नहीं करेगी, तब तक जस्टिस अशोक चौधरी जैसे अधिकारियों की टिप्पणियों के कोई मायने नहीं होंगे। कोई परिवर्तन नहीं आयेगा। किसी के कानों पर जूं नहीं रेंगेगी, क्योंकि एक कड़वा सच यह भी है कि नमक से नमक नहीं खाया जा सकता।
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबकर भ्रष्टाचार मिटाने की बात करना हास्यास्पद प्रतीत होता है, चाहे वह बात न्यायपालिका के स्तर से ही क्यों न कही गई हो।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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