मथुरा। रिफाइनरी क्षेत्र के मूल निवासी प्रदेश के कुख्यात तेल माफिया पर जिला प्रशासन ने फिर अपना वरदहस्त रख दिया है। जिला प्रशासन बड़ी चालाकी के साथ उसकी अरबों रुपए की कुर्क की गई उस अचल संपत्ति को उसी के गुर्गों को सुपुर्द करने में लगा है जिन्हें बमुश्किल कुर्क किया गया था।रिफाइनरी थाना क्षेत्र का रहने वाला यह तेल माफिया सबसे पहले लाइम लाइट में तब आया जब तेल के खेल में इसने अपने एक प्रतिद्वंदी का कत्ल करा दिया। हालांकि इससे पहले भी जिले का समूचा पुलिस-प्रशासन इसकी असलियत से वाकिफ हो चुका था किंतु सेटिंग-गेटिंग के चलते इसकी गिनती अपराधियों में न होकर व्यापारियों में की जाती थी।मात्र एक दशक में फर्श से अर्श तक पहुंचने वाले इस तेल माफिया की पुलिस व प्रशासन के बीच बढ़ती पैठ का एक प्रमुख कारण यह भी था कि मथुरा रिफाइनरी के जरिए होने वाले तेल के खेल में संलिप्त हर व्यक्ति इसके अधीन हो गया और यही उन सबकी ओर से सुविधा शुल्क बांटने लगा।बताया जाता है कि तत्कालीन एसएसपी और डीएम को भी यही तेल माफिया हर महीने सीधे खुद सुविधा शुल्क पहुंचाता था।यही कारण रहा कि जब यह हत्या के आरोप में नामजद हुआ, तब भी उच्च पुलिस अधिकारियों के साथ बैठा देखा जाता था।यहां तक कि स्थानीय पुलिस एवं प्रशासन के बीच जब इसकी गहरी पैठ के चर्चे लखनऊ के राजनीतिक गलियारों में पहुंचे और पुलिस पर इसकी गिरफ्तारी के लिए दबाव बढ़ा तब भी एक पुलिस अधिकारी ने इससे एकमुश्त काफी बड़ी रकम लेकर इसका नाम निकालने की कोशिश की।चूंकि मामला काफी उछल चुका था इसलिए पुलिस ने मलाई मारने के बावजूद हाथ खड़े कर दिए और इसे जेल जाना पड़ा।मथुरा के एक अरबपति हलवाई को अपना जीजाजी बताने वाला यह तेल माफिया जेल भले ही चला गया किंतु पैसे के बल पर इसने मथुरा रिफाइनरी और जिला प्रशासन के बीच इतनी गहरी पैठ बना ली थी कि जेल में रहते हुए इसके तेल का खेल जारी रहा। नेशनल हाईवे, हाईवे और एक्सप्रेस वे पर इसके तेल के टैंकर दोड़ते रहे।इस तेल माफिया के दुस्साहस का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि यदि इसका अपना कोई मुलाजिम अथवा ड्राईवर या क्लीनर भी इसके आदेश-निर्देश की अवहेलना करता पाया जाता था तो यह उसे टैंकर के अंदर जिंदा जलाकर मरवा देता था। इस तरह की कई जघन्य वारदातों से समय-समय पर इसका नाम जुड़ता रहा है।हद तो तब हो गई जब इसने मथुरा रिफाइनरी की भूमिगत पाइप लाइन में ही सूराख कर डाला और अपने गैंग के जरिए करोड़ों रुपए का पेट्रोलियम पदार्थ खपाने लगा।देश की सुरक्षा और रिफाइनरी की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाली इस दुस्साहसिक आपराधिक वारदात ने प्रदेश ही नहीं, देशभर को हिलाकर रख दिया लिहाजा उसके बाद पुलिस-प्रशासन ने मजबूरी में इस पर शिकंजा कसना शुरू किया।पुलिस-प्रशासन द्वारा शिकंजा कसने का परिणाम यह हुआ कि मामूली गांव से निकलकर शहर की पॉश कॉलोनियों में कई-कई आलीशन घरों का मालिक अपने बिल से निकलकर भागने पर मजबूर हो गया।बताया जाता है कि तेल के खेल में अरबों रुपए की चल-अचल संपत्ति जोड़ लेने वाले इस माफिया के अपनी पत्नी से भी संबंध खराब हो गए लिहाजा उसने इससे दूरी बना ली और जो कुछ उसके नाम था उसे आमदनी का स्त्रोत बनाकर रहने लगी।इसी दौरान शासन और न्यायपालिका के दबाव में जिला प्रशासन ने अरबों रुपए की वो सारी संपत्ति कुर्क कर ली जो इसके नाम थी किंतु कहीं न कहीं प्रशासन का सॉफ्ट कॉर्नर इसके लिए बना रहा।पुलिस-प्रशासन से पुराने रिश्ते काम आए तो इस तेल माफिया ने नए सिरे से अपना जाल बिछाना शुरू कर दिया। नेशनल हाईवे से लगी एक पॉश कॉलोनी में रहकर इसने कुछ प्रभावशाली लोगों की मदद से एक ओर जहां जिला प्रशासन में पैठ बनाई वहीं दूसरी ओर राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त कर लिया।विश्वस्त सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार राजनीतिक संरक्षण मिलते ही अब इसने न सिर्फ अपनी कुर्क संपत्ति को अपने ही कुछ खास गुर्गों के नाम सुपुर्द कराने का प्रयास प्रारंभ कर दिया है बल्कि अपनी पत्नी के नाम वाले बेशकीमती भूखंड पर भी नीयत खराब करनी शुरू कर दी।अपनी इस योजना के तहत गत दिवस इसने पत्नी के स्वामित्व वाले भूखंड की बाउंड्रीवाल गिराकर उस पर कब्जा करने की कोशिश की लेकिन पत्नी को किसी तरह इसकी जानकारी मिल गई और उसने मौके पर पहुंचकर हंगामा खड़ा कर दिया।फिलहाल तो पत्नी अपने तेल माफिया पति से अपनी जमीन को बचाने में सफल रही किंतु वह कितने दिन सफल रहेगी, यह कहना मुश्किल है।इधर पता लगा है कि प्रदेश सरकार के एक प्रभावशाली मंत्री तथा जिला प्रशासन में अच्छी पकड़ रखने वाले इसके कथित जीजाजी द्वारा इसके लिए लॉबिंग की जा रही है जिससे कि इसकी अरबों रुपए मूल्य की संपत्ति को अपने किसी खास आदमी के नाम सुपुर्द कराकर सबकी आंखों में धूल झोंकी जा सके और पीछे के रास्ते तेल का खेल बड़े पैमाने पर शुरू किया जा सके।देखना यह है कि कुर्क संपत्ति की सुपुर्दगी किसके नाम होती है और कौन इस तेल माफिया के खेल का नया सहभागी बनता है।-Legend News
2018 का कैंलेंडर बदलते ही सर्द हवाओं के बावजूद लोकसभा चुनाव 2019 की सरगर्मियां शुरू हो जाएंगी। खुद प्रधानमंत्री मोदी भी केरल से 06 जनवरी को लोकसभा के चुनाव प्रचार का आगाज़ करने जा रहे हैं।इस बार के लोकसभा चुनाव यूं तो कई मायनों में संपूर्ण भारत की राजनीति के लिए विशेष अहमियत रखते हैं किंतु जब बात आती है उत्तर प्रदेश की तो जवाब देने से पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की पेशानी पर भी बल साफ-साफ दिखाई देने लगते हैं।अमित शाह समय-समय पर यह स्वीकार भी करते रहे हैं कि संभावित गठबंधन से पार्टी के सामने यदि कहीं कोई परेशानी खड़ी हो सकती है तो वह उत्तर प्रदेश ही है।उत्तर प्रदेश के रास्ते ही केंद्र में सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त होने की कहावत वैसे तो काफी पुरानी है लेकिन 2014 के चुनावों ने इस कहावत में तब चार चांद लगा दिए जब भाजपा को यहां से छप्पर फाड़ विजय प्राप्त हुई। इस विजय ने ही भाजपा को इतनी मजबूती प्रदान की कि वह सरकार चलाने के लिए एनडीए के किसी घटक दल पर आश्रित नहीं रही।आज एक ओर प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक उत्तर प्रदेश से सांसद हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस के सर्वेसर्वा राहुल और सोनिया गांधी का चुनाव क्षेत्र भी यूपी ही है।देश की दिशा और दशा तय करने वाले राम, कृष्ण और बाबा विश्वनाथ के धाम भी यूपी का हिस्सा हैं। विश्वनाथ के धाम वाराणसी से स्वयं प्रधानमंत्री सांसद हैं और कृष्ण की नगरी मथुरा का प्रतिनिधित्व भाजपा की ही स्टार सांसद हेमा मालिनी कर रही हैं। अयोध्या (फैजाबाद) के सांसद लल्लूसिंह हैं।वाराणसी से तो 2019 का चुनाव भी प्रधानमंत्री ही लड़ेंगे इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है लेकिन मथुरा तथा अयोध्या के बारे में अभी से कुछ कहना जल्दबाजी होगी, हालांकि माना यही जा रहा है कि इन सीटों पर भी हेमा मालिनी और लल्लूसिंह को दोहराया जाएगा।यदि ऐसा होता है तो न सिर्फ भाजपा के लिए बल्कि गठबंधन प्रत्याशी के लिए भी सबसे बड़ी चुनौती मथुरा सीट बनने वाली है।मथुरा ही क्योंकाशी, अयोध्या एवं मथुरा में से मथुरा सीट पर सत्तापक्ष को चुनौती मिलने का बड़ा कारण इसका विकास के पायदान पर काशी और अयोध्या के सामने काफी पीछे रह जाना है जबकि विपक्ष के लिए प्रत्याशी का चयन ही किसी चुनौती से कम नहीं होगा। सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन हो जाने की सूरत में इतना तो तय है कि जाटों का गढ़ होने की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की यह सीट रालोद के खाते में जाएगी किंतु रालोद के लिए यह सीट निकालना टेढ़ी खीर साबित होगा।रालोद ने 2009 का लोकसभा चुनाव मथुरा से तब जीता था जब उसे भाजपा का समर्थन प्राप्त था अन्यथा इससे पूर्व उनकी बुआ डॉ. ज्ञानवती और दादी गायत्री देवी को भी यहां से हार का मुंह देखना पड़ा था।रालोद युवराज जयंत चौधरी को पहली बार संसद भेजने वाले मथुरा के मतदाता तब निराश हुए जब जयंत चौधरी ने मथुरा को न तो स्थाई ठिकाना बनाया और न विकास कराने में कोई रुचि ली।रही-सही कसर लोकसभा चुनाव 2009 के बाद हुए 2012 के विधानसभा चुनावों ने पूरी कर दी जिसमें जयंत चौधरी मथुरा की मांट सीट से इस कमिटमेंट के साथ उतरे थे कि यदि वह मांट से चुनाव जीत जाते हैं तो लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देंगे और बतौर विधायक क्षेत्रीय जनता की सेवा करेंगे।दरअसल, जोड़-तोड़ की राजनीति के चलते जयंत चौधरी को उस समय अपने लिए बड़ी संभावना नजर आ रही थी किंतु जैसे ही वह संभावना धूमिल हुई जयंत चौधरी ने मांट सीट से इस्तीफा दे दिया और लोकसभा सदस्य बने रहे।जयंत चौधरी से क्षेत्रीय लोगों की नाराजगी का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके इस्तीफे से खाली हुई मांट विधानसभा सीट के उपचुनाव में उनका प्रत्याशी हार गया और अजेय समझे जाने वाले जिन श्यामसुंदर शर्मा को जयंत चौधरी हराने में सफल हुए थे, वह एक बार फिर चुनाव जीत गए।यही नहीं, 2017 के विधानसभा चुनावों में भी रालोद उम्मीदवार मांट से फिर चुनाव हार गया।2014 का लोकसभा चुनाव भी जयंत चौधरी ने मथुरा से लड़ा किंतु इस बार न तो उन्हें भाजपा का समर्थन प्राप्त था और न जनता का। 2009 में रालोद को समर्थन देने वाली भाजपा ने जयंत चौधरी के सामने हेमा मालिनी को चुनाव मैदान में उतारा, नतीजतन जयंत चौधरी 2014 का लोकसभा चुनाव भारी मतों से हार गए।आज मथुरा की कुल पांच विधानसभा सीटों में से चार पर भाजपा काबिज है जबकि एक बसपा के खाते में है। जाटों का गढ़ मानी जाने वाली मथुरा में फिलहाल रालोद कहीं नहीं है।रहा सवाल सपा और बसपा का, तो सपा अपने स्वर्णिम काल में भी कभी मथुरा से अपने किसी प्रत्याशी को जीत नहीं दिला सकी। मथुरा उसके लिए हमेशा बंजर बनी रही। हां बसपा ने वो दौर जरूर देखा है जब उसके यहां से तीन विधायक हुआ करते थे। लोकसभा का कोई चुनाव बसपा भी मथुरा से कभी नहीं जीत सकी।इस नजरिए से देखा जाए तो रालोद के लिए 2009 के लोकसभा चुनाव में जितना फायदा भाजपा के समर्थन से मिला, उतना अब सपा और बसपा दोनों के समर्थन से भी मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि सपा-बसपा का वोट बैंक इस बीच खिसका ही है, बढ़ा तो कतई नहीं है।जयंत चौधरी के अलावा कोई और2019 के लोकसभा चुनावों की सुगबुगाहट के साथ अब यह प्रश्न बड़ी शिद्दत से पूछा जाने लगा है कि क्या सपा-बसपा से गठबंधन की सूरत में रालोद मथुरा सीट पर जयंत चौधरी की जगह किसी अन्य प्रत्याशी को चुनाव लड़ा सकता है।इस प्रश्न का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि रालोद की ओर से भी कुछ ऐसे ही संकेत दिए जा रहे हैं और संभावित प्रत्याशियों की लंबी-चौड़ी लिस्ट तैयार होने लगी है।ऐसे में इस प्रश्न के साथ एक प्रश्न और स्वाभाविक तौर पर जुड़ जाता है कि क्या जयंत चौधरी के अतिरिक्त भी रालोद के किसी नेता में मथुरा से भाजपा को हराने का माद्दा है?इस प्रश्न का जवाब देने में रालोद के स्थानीय नेताओं सहित उन नेताओं को भी पसीने आ गए जो मथुरा से लोकसभा चुनाव लड़ने का दम भर रहे हैं।संभवत: वो जानते हैं कि सपा और बसपा का साथ मिलने के बाद भी रालोद के लिए भाजपा को मथुरा से हराना इतना आसान नहीं होगा। जयंत चौधरी ही एकमात्र ऐसे उम्मीदवार हो सकते हैं जिनके लिए मान मनौवल करके अपना गणित फिट करने की संभावना दिखाई देती है।अब बात भाजपा प्रत्याशी कीभाजपा के बारे में सर्वविदित है कि वह अपने उम्मीदवारों का चयन करने में बहुत समय लेती है। 2014 के लोकसभा चुनावों में भी हेमा मालिनी को सामने लाने में बहुत देर की गई थी किंतु 2019 के लिए अब तक हेमा मालिनी को ही दोहराए जाने के कयास लगाए जा रहे हैं। स्वयं हेमा मालिनी भी दूसरा चुनाव मथुरा से लड़ने की ही इच्छा जता चुकी हैं और जनता से अपने लिए और पांच साल मांग भी चुकी हैं। हालांकि इस बार मथुरा से कई अन्य भाजपा नेता भी ताल ठोक रहे हैं और उनमें मथुरा से विधायक प्रदेश सरकार के दोनों कबीना मंत्री श्रीकांत शर्मा व लक्ष्मीनारायण चौधरी भी शामिल हैं। इनके अलावा कई युवा नेता और कुछ पुराने चावल उम्मीद लगाए हुए हैं।ये बात अलग है कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को एक लंबे समय से मथुरा में पार्टी के लिए कोई ऊर्जावान नेता नजर नहीं आता और इसीलिए उसने चौधरी तेजवीर सिंह के बाद किसी स्थानीय नेता को लोकसभा चुनाव लड़ाने का जोखिम मोल नहीं लिया।बहरहाल, इतना तय है कि 2019 में मथुरा की सीट जीतना भाजपा के लिए भी उतना आसान नहीं होगा जितना 2014 में रहा था। प्रथम तो 2014 जैसी मोदी लहर अब दिखाई नहीं देती और दूसरे हेमा मालिनी का ग्लैमर भी ब्रजवासियों के सिर चढ़कर बोलने का समय बीत गया।हेमा मालिनी मथुरा में काफी काम कराने के चाहे जितने भी दावे करें और भाजपा मथुरा को वाराणसी बनाने के कितने ही ख्वाब दिखाए किंतु हकीकत यही है कि धरातल पर कृष्ण की नगरी विकास के लिए तरस रही है। नि:संदेह योजनाएं तो तमाम हैं परंतु उनका नतीजा कहीं दिखाई नहीं देता। कोढ़ में खाज यह और कि यहां का सांगठनिक ढांचा चरमरा रहा है, साथ ही जनप्रतिनिधियों के बीच कलह की कहानियां भी तैर रही हैं।माना कि मथुरा, भाजपा के लिए वाराणसी व अयोध्या जैसा महत्व नहीं रखती लेकिन महत्व तो रखती है क्योंकि महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्ण की जन्मभूमि भी ठीक उसी तरह कोई दूसरी नहीं हो सकती जिस तरह मर्यादा पुरुषात्तम श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या के अन्यत्र नहीं हो सकती।1992 से पहले भाजपा भी विहिप और बजरंग दल के सुर में सुर मिलाकर कहती थी कि ” राम, कृष्ण, विश्वनाथ, तीनों लेंगे एकसाथ”।राजनीति के धरातल पर आज भाजपा की झोली में अयोध्या, मथुरा और काशी तीनों एकसाथ हैं लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या यह तीनों 2019 में भी भाजपा अपनी झोली में रख पाएगी।निश्चित ही यह भाजपा के लिए 2014 जितना आसान काम नहीं होगा लेकिन आसान सपा-बसपा और रालोद के गठबंधन प्रत्याशी के लिए भी नहीं होगा। तब तो बिल्कुल नहीं जब मथुरा की सीट रालोद के खाते में जाने पर भी रालोद अपने युवराज की जगह किसी दूसरे उम्मीदवार पर दांव लगाने की सोच रहा हो।-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार द्वारा शुरू की गई ‘समाजवादी पेंशन योजना’ के तहत करीब 11 अरब रुपए के घपले का पता लगा है।अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रदेश भर में ऐसे 4.50 लाख अपात्रों की पहचान की गई है जिन्हें ये पेंशन दी जा रही थी। इसके अलावा पेंशन धारकों में मृतकों के नाम शामिल होने का भी खुलासा हुआ है।गौरतलब है कि समाजवादी पेंशन योजना के लाभार्थियों को तिमाही किस्त के तौर पर 1500 रुपये उनके बैंक अकाउंट में भेजे जाते हैं।‘समाजवादी पेंशन योजना’ साल 2014-15 में अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली तत्कालीन समाजवादी पार्टी सरकार द्वारा शुरू की गई थी। यह अखिलेश सरकार की महत्वाकांक्षी योजना थी।हालांकि इन अपात्र लाभार्थियों से अब पैसे की रिकवरी होगी या फिर इनके खिलाफ अन्य कोई कार्यवाही अमल में लाई जाएगी, इसका फिलहाल पता नहीं लग पाया है किंतु इतना तय है कि जल्द ही मृत व्यक्तियों और अपात्रों को योजना का लाभ पहुंचाने वाले अफसरों के खिलाफ कार्यवाही की तैयारी हो चुकी है।गड़बड़ी सामने आते ही ‘समाजवादी पेंशन योजना’ पर रोक लगाने के बाद अपात्रों की पहचान करने के निर्देश दिए थे।एक महीने की जगह 20 महीने में तैयार हुई रिपोर्टसमाजवादी पेंशन योजना में धांधली की शिकायत मिलने के बाद प्रमुख सचिव समाज कल्याण ने मई 2017 में जांच कर एक महीने में रिपोर्ट तलब की थी, लेकिन यह रिपोर्ट अब जाकर तैयार हुई है। अब ऐसे अधिकारियों की भी सूची तैयार हो रही है, जिनके जिलों में सबसे ज्यादा अपात्र पाए गए हैं।दरअसल, ‘समाजवादी पेंशन योजना’ शुरू करने का उद्देश्य गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के बीच बचत को प्रोत्साहित करना और उन्हें वित्तीय सहायता प्रदान करना बताया गया था।ये थे मापदंड समाजवादी पेंशन योजना के तहत आवदेन के लिए उक्त मापदंड निर्धारित किए गए थे:1-गरीबी रेखा से नीचे रहने वाला कोई भी परिवार इस योजना के लिए पात्र हो सकता था।2- ऐसे परिवार का उत्तर प्रदेश निवासी होना जरूरी था।3- उत्तर प्रदेश में निवास संबंधी एक वैध सबूत की आवश्यकता थी।मुख्य लाभार्थी का या तो भारतीय स्टेट बैंक या किसी अन्य राष्ट्रीयकृत बैंकों में एक खाता आवश्यक था।पात्रों की पेंशन पर ग्रहण नहींनिदेशक समाज कल्याण जगदीश प्रसाद के अनुसार समाजवादी पेंशन योजना की जगह कोई नई पेंशन योजना लागू की जा सकती है। उल्लेखनीय है कि समाजवादी पेंशन योजना के तहत प्रदेश के 75 जिलों में 54 लाख लाभार्थियों को लाभ पहुंचाया जा रहा था। अपात्रों के चयन की शिकायत मिलने के बाद शासन स्तर से जांच करवाई गई। इसमें साढ़े 4 लाख से अधिक ऐसे अपात्र व्यक्तियों की पहचान हुई, जिन्हें सरकारी नियमों को ताक पर रखकर योजना का लाभ दिया जा रहा था।अब जाकर राज्य सरकार तथा प्रमुख सचिव को इस घपले की पूरी रिपोर्ट सौंपी गई है। बताया जाता है कि शासन से निर्देश मिलने पर आगे की कार्यवाही होगी।विभाग के अधिकारियों का कहना है कि इस योजना के पात्र लाभार्थियों को किसी अन्य योजना से जोड़ने के लिए ग्राम्य विकास विभाग द्वारा सर्वे कराया गया है ताकि 60 साल से कम उम्र वाले व्यक्तियों को पेंशन योजना से लाभान्वित किया जा सके।समाज कल्याण विभाग के मंत्री रमापति शास्त्री ने कहा कि 4.50 लाख अपात्र सरकार के 10.80 अरब रुपये हड़प गए। योजना के नाम पर हुई गड़बड़ी की रिपोर्ट मिल गई है। जल्द ही मुख्यमंत्री के साथ बैठक कर कोई अहम फैसला लिया जाएगा। पात्र लाभार्थियों के लिए सरकार जल्द ही नई स्कीम लाने की तैयारी में है। मृत व्यक्तियों को योजना का पात्र दिखाकर सरकारी धन का दुरुपयोग करने वाले अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही होगी।-Legend News
पांच राज्यों के इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा की झोली से तीन राज्य एक साथ झटक लिए। इन तीन में से दो राज्य तो ऐसे थे जहां भाजपा पिछले 15 सालों तक लगातार सत्ता में रही। राजस्थान जरूर अकेला ऐसा राज्य है जहां हर चुनाव के बाद सत्ता बदल देने की रिवायत चली आ रही है, लिहाजा इन चुनावों में भी वहां यही हुआ। तेलंगाना और मिजोरम के नतीजों में ऐसा कुछ अप्रत्याशित नहीं है, जिसकी चर्चा जरूरी हो।मिजोरम में कांग्रेस का गढ़ ढहा जरूर किंतु राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ जैसे महत्वपूर्ण राज्यों की जीत ने उसकी चर्चा को निरर्थक बना दिया।किसकी जय, किसकी विजय हर चुनाव के बाद कुछ बातें प्रमुखता से दोहराई जाती हैं। जैसे कि यह लोकतंत्र की जीत है…जनता की जीत है।किंतु क्या वाकई कभी किसी चुनाव में आज तक जनता जीत पाई है, क्या लोकतंत्र सही मायनों में विजयी हुआ है ?15 अगस्त 1947 की रात के बाद से लेकर आज तक क्या वाकई कभी जनता ने कोई अपना प्रतिनिधि चुना है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी तक के चुनाव में क्या जनता की कोई प्रत्यक्ष भूमिका रही है।प्रधानमंत्री तो दूर, क्या जनता कभी किसी सूबे के मुख्यमंत्री का चुनाव अपनी पसंद से कर पाई है।कहने को कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री का चयन संसदीय दल और मुख्यमंत्री का चयन विधायक दल की सर्वसम्मति से होता है किंतु यह कितना सच है इससे शायद ही कोई अनभिज्ञ हो।चुनाव से पहले या चुनाव के बाद, नेता का चुनाव पार्टी आलाकमान ही तय करते आए हैं। जन प्रतिनिधि तो मात्र अंगूठा निशानी हैं। यानी आपके द्वारा चुना गया प्रतिनिधि तत्काल प्रभाव से गुलामों की उस फेहरिस्त का हिस्सा बन जाता है, जिसका काम मात्र हाथ उठाकर हाजिरी लगाने का होता है न कि मत व्यक्त करने का।गुलामी की परंपरा ऐसा इसलिए कि फिरंगियों की दासता से मुक्ति मिलने के बावजूद हम आज तक गुलामी की परंपरा से मुक्त नहीं हो पाए। शरीर से भले ही हमें मुक्ति मिल गई हो परंतु मानसिक दासता हमारी रग-रग का हिस्सा है।लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व मतदान भी हर स्तर पर गुलामी की छाया में संपन्न होता रहा है और हम उसी दास परंपरा का जश्न मनाते आ रहे हैं।कोई कांग्रेस का गुलाम है तो कोई भाजपा का, कोई सपा का पिठ्ठू है तो कोई बसपा का। किसी ने जाने-अनजाने राष्ट्रीय लोकदल की दासता स्वीकार कर रखी है तो किसी ने अपना मन-मस्तिष्क एक खास नेता के लिए गिरवी रख दिया है।देखा जाए तो सवा सौ करोड़ की आबादी किसी न किसी रूप में, किसी न किसी नेता या दल की जड़ खरीद गुलाम बनकर रह गई है। उसकी सोचने-समझने की शक्ति इतनी क्षीण हो चुकी है कि वह अब इस दासता से मुक्ति का मार्ग तक तलाशना भूल गई है।क्या याद आता है पिछले 70 वर्षों में हुआ ऐसा कोई चुनाव जिस पर दलगत राजनीति हावी न रही हो या जिसने सही अर्थों में जनता को अपना नेता चुनने का अधिकार दिया हो।देश का सबसे पहला जुमला था वो, जब कहा गया था कि लोकतंत्र में जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार का चुनाव किया जाता है।हकीकत यह है कि स्वतंत्र भारत में हमेशा गुलामों द्वारा गुलामों के लिए गुलामों की सरकार चुनी गई है। देश या प्रदेश, हर जगह यही होता आया है।हो भी क्यों न, जब हमारी अपनी कोई सोच ही नहीं है। हमारी प्रतिबद्धता किसी न किसी पार्टी या व्यक्ति के लिए है, राष्ट्र के लिए नहीं।राष्ट्र के लिए प्रतिबद्धता दलगत राजनीति की मोहताज नहीं होती और इस देश की जनता दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचना ही नहीं चाहती।यूं भी कहा जाता है कि भीड़ का कोई दिमाग नहीं होता, इसलिए भीड़चाल और भेड़चाल में कोई फर्क नहीं होता। दोनों उसी राह को पकड़ लेती हैं जो उन्हें दिखा दी जाती है।वर्तमान भारत भीड़तंत्र से संचालित है, लोकतंत्र से नहीं और इसीलिए न लोक बचा है और न तंत्र।चुनाव इस भीड़तंत्र को बनाए रखने की वो रस्म अदायगी है जिसके जरिए राजनीतिक दल अपने-अपने गुलामों की गणना करते रहते हैं।अगर यह सच न होता तो स्वतंत्र भारत साल-दर-साल तरक्की की सीढ़ियां चढ़ रहा होता और आज उस मुकाम पर जा पहुंचता जहां दुनिया के तमाम दूसरे मुल्क हमसे सीख लेते दिखाई पड़ते।क्या कुछ बदल पाएगा जिन तीन राज्यों की जीत पर कांग्रेस आज फूली नहीं समा रही और भाजपा अपनी हार की समीक्षा कर रही है, उन राज्यों में क्या अब ऐसा कुछ होने जा रहा है जो आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक बनेगा।क्या पंद्रह-पंद्रह वर्षों के शासनकाल में भाजपा अपने शासित राज्यों से गरीबी, भुखमरी, भय, भ्रष्टाचार, अनाचार, व्यभिचार, बेरोजगारी जैसी समस्याएं समाप्त कर पाई।क्या कांग्रेस ने अपने पूर्ववर्ती कार्यकाल में इन समस्याओं का समाधान कर दिया था और भाजपा ने आते ही इन्हें पुनर्जीवित कर डाला।क्या देश पर कांग्रेस के लंबे शासनकाल में आम जनता की सुनवाई होती थी, और क्या आज भी आम जनता की सुनवाई बेरोकटोक होती है।ये ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनका उत्तर या तो किसी के पास है ही नहीं या कोई देना नहीं चाहता क्योंकि उत्तर के नाम पर आंकड़े हैं तथा आंकड़ों की भाषा सिर्फ और सिर्फ आंकड़ों के बाजीगरों को ही समझ में आती है। संभवत: इसीलिए किसी भी समस्या का आज तक मुकम्मल समाधान नहीं हो पाया।धरातल पर देखने जाएं तो पता लगता है कि नौकरशाहों की मानसिकता में आज तक कोई बदलाव नहीं आया। वो परतंत्र भारत में भी खुद को शासक समझते थे और आज भी शासक ही बने हुए हैं। कहने को वो जनसेवक हैं किंतु जनता से उन्हें बदबू आती है। विशिष्टता उनके खून में इस कदर रच-बस चुकी है कि शिष्टता कहीं रह ही नहीं गई।जिस तरह सड़क पर रेंगने वाला गया-गुजरा व्यक्ति भी नेता बनते ही अतिविशिष्ट की श्रेणी को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार जनसामान्य के बीच से नौकरशाही पाने वाला भी स्वयं को जनसामान्य का भाग्यविधाता समझ बैठता है।यही कारण है कि सत्ताएं भले ही बदल जाएं लेकिन बदलाव किसी स्तर पर नहीं होता। न पुलिसिया कार्यशैली बदलती है और न प्रशासनिक ढर्रे में कोई बदलाव आता है।सत्ता के साथ अधिकारियों के चेहरे बेशक बदलते हैं परंतु उनके चाल- चरित्र और आचार-व्यवहार जस के तस रहते हैं। जनता के पास यदि दलगत राजनीति का कोई विकल्प नहीं है तो सत्ताधीशों के पास भी नौकरशाही का फिलहाल कोई विकल्प नहीं है।दिखाई चाहे यह देता है कि देश की दशा और दिशा नेता तय करते हैं किंतु कड़वा सच यह है कि देश की नियति नौकरशाह निर्धारित करते हैं। हर सरकार की नीति और नीयत का निर्धारण नौकरशाही के क्रिया-कलापों पर निर्भर करता है। नौकरशाही उसे जिस रूप में पेश कर दे, उसी रूप में उसका प्रतिफल सामने आता है। नौकरशाही में विकल्प हीनता और निरंकुशता का ही परिणाम है कि केंद्र से लेकर तमाम राज्यों की सरकारों को एक ओर जहां अदालतों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर जनता का विश्वास जीतने में परेशानी हो रही है।समाधान क्या इन हालातों में एक अहम सवाल यह खड़ा होना स्वाभाविक है कि क्या 70 सालों से रटे-रटाए ढर्रे पर चल रही इस व्यवस्था को बदलने का कोई रास्ता है भी और क्या ऐसा कोई समाधान मिल सकता है जिसके माध्यम से हम लोकतांत्रिक व्यवस्था के उच्च मानदण्ड स्थापित कर सकें तथा सही मायनों में जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार चुनने का मार्ग प्रशस्त कर पाएं।इसका एकमात्र उपाय है “राइट टू रिकाल”। जिस दिन जनता को यह अधिकार प्राप्त हो गया, उस दिन निश्चित ही एक ऐसे बड़े परिवर्तन की राह खुल जाएगी जिससे देश और देशवासियों का भाग्योदय संभव है।सामान्य तौर पर यह मात्र एक अधिकार प्रतीत होता है परंतु यही वो सबसे बड़ा जरिया है जिससे नेताओं की देश व देशवासियों के प्रति जिम्मेदारी तय की जा सकती है। जिससे जनता पांच साल बाद खुद को ठगा हुआ महसूस करने से निजात पा सकती है और नेताओं को जब चाहे उनकी औकात बता सकती है। हालांकि यह अकेला उपाय काफी नहीं है।इसके साथ कुछ ऐसे और उपाय भी करने होंगे जिनसे राजनीति शत-प्रतिशत लाभ का व्यवसाय न बनी रहे और राजनेताओं की जवाबदेही भी निर्धारित हो।उदाहरण के लिए उनके वेतन-भत्तों की वर्तमान व्यवस्था, सुख-सुविधा और सुरक्षा के मानक, चारों ओर फैलने वाली व्यावसायिक गतिविधियां तथा उनके साथ-साथ उनके परिजनों की भी आमदनी के विभिन्न ज्ञात एवं अज्ञात स्त्रोतों का आकलन।कुछ ऐसी ही व्यवस्था नौकरशाहों के लिए भी लागू हो जिससे वो अपने-अपने राजनीतिक आकाओं की शह पर मनमानी न कर सकें और नेताओं की बजाय जनता के प्रति लॉयल्टी साबित करें।यदि ऐसा होता है तो अब तक एक-दूसरे की पूरक बनी हुई विधायिका व कार्यपालिका का गठजोड़ टूटेगा और इन्हें जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास होगा।और यदि ऐसा कुछ नहीं होता तथा जर्जर हो चुकी व्यवस्थाओं का यही प्रारूप कायम रहता है तो निश्चित जानिए कि सरकारें बदलने का सिलसिला तो जारी रहेगा परंतु देश कभी नहीं बदल सकेगा।शारीरिक तौर पर स्वतंत्रता दुनिया को दिखाई देती रहेगी किंतु मानसिक स्वतंत्रता कभी हासिल नहीं हो पाएगी।हजारों साल से चला आ रहा गुलामी का सिलसिला यदि तोड़ना है तो आमजन को उस मानसिक गुलामी से मुक्ति पानी होगी जिसके तहत वह कठपुतली की तरह नेताओं की डोर से बंधा है। दलगत राजनीति के हाथ का खिलौना बना अपने ही द्वारा संसद अथवा विधानसभा में पहुंचाए गए लोगों को माई-बाप समझता है। उनके एक इशारे पर जान देने और जान लेने के लिए आमादा रहता है।मतपत्र पर ठप्पा लगाने की व्यवस्था गुजरे जमाने की बात हो चुकी हो तो क्या, मशीन का बटन भी अपने-अपने नेता और अपने-अपने दल के कहने पर लगाता है। वो भी बिना यह सोचे-समझे कि उस दल का प्रत्याशी संसद या विधानसभा में बैठने की योग्यता रखता है या नहीं। उसका सामान्य ज्ञान, जनसामान्य जितना है भी या नहीं।बरगलाने के लिए कहा जाता है कि देश ने बहुत तरक्की की है और हर युग में की है परंतु सच्चाई यह नहीं है। सच्चाई यह है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाला मुल्क आजतक पाकिस्तान जैसे पिद्दीभर देश से निपटने की पर्याप्त ताकत नहीं रखता। आतंकवादियों को सही अर्थों में मुंहतोड़ जवाब नहीं दे पाता और सेना की आधी से अधिक ताकत को अपने ही घर की सुरक्षा करने में जाया कर रहा है।आंखें खोलकर देखेंगे तो साफ-साफ पता लगेगा कि इन सारी समस्याओं की जड़ में वही रटी-रटाई व्यवस्थाएं हैं जिन्हें बड़े गर्व के साथ हम लोकतंत्र के स्तंभ कहते हैं।हर व्यवस्था को समय और परिस्थितियों के अनुरूप तब्दीली की दरकार होती है। भारत की वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था बड़ी शिद्दत के साथ बदलाव का इंतजार कर रही है। एक ऐसी व्यवस्था जिससे सही अर्थों में लोकतंत्र गौरवान्वित हो और गौरवान्वित हों वो लोग जिनके लिए यह व्यवस्था कायम की गई थी।ऐसी किसी व्यवस्था के लिए सबसे पहले देश व देशवासियों को अंग्रेजों से मिली शारीरिक स्वतंत्रता का लबादा अपने शरीर से उतार फेंकना होगा और मानसिक स्वतंत्रता अपनानी होगी ताकि हम अपने लिए न सिर्फ सही प्रतिनिधि बल्कि सही नेतृत्व भी चुन सकें।-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की पुरजोर मांग के बीच इस आशय का प्रचार भी किया जा रहा है कि देश का मुसलमान आशंकित है, वह भयभीत है और इसके लिए हिंदुओं की कथित उन्मादी सोच जिम्मेदार है।अब सवाल यह उठता है कि मुसलमानों के आशंकित या भयभीत होने का प्रचार कर कौन रहा है ? यह प्रचार मुसलमानों के ही नुमाइंदे बनकर टीवी की नियमित बहसों में भाग लेने वाले वो लोग कर रहे हैं जो न सिर्फ प्रधानमंत्री तक के लिए खुलेआम अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं बल्कि बाबर को अपना पूर्वज बताते हुए बहुसंख्यकों को मंदिर बना लेने की चुनौती एक चेतावनी के रूप में देते हैं।‘आज तक’ की एक ऐसी ही डिबेट में मशहूर टीवी एंकर रोहित सरदाना को मुसलमानों के नुमाइंदे और सुप्रीम कोर्ट के वकील महमूद पराचा से कहना पड़ा कि अधिकांश मुसलमान तो कहते हैं हमें बहुसंख्यकों से नहीं, उन मीडिया पैनेलिस्ट मुसलमानों से डर लगता है जो अपनी-अपनी दुकान चलाने के लिए राष्ट्रीय टीवी चैनल्स पर बैठकर वैमनस्यता फैलाने का काम करते हैं।कौन था बाबरबाबर के बारे में इतिहास जितनी जानकारी देता है उसके मुताबिक वह मध्य एशिया के समरकंद राज्य की एक बहुत छोटी सी जागीर फरगना में पैदा हुआ। 14 फरवरी 1483 ई. को जन्मे बाबर का ताल्लुक सीधे तौर पर तैमूर से था।बाबर का पिता उमर शेख मिर्जा तैमूर का वंशज था जबकि उसकी मां मंगोल चंगेज़ ख़ां के वंशज ख़ान यूनस की पुत्री थी। यूं देखा जाए तो बाबर की नसों में तुर्कों के साथ मंगोलों का भी रक्त था किंतु उसने काबुल पर अधिकार कर स्वयं को मुग़ल घोषित कर दिया। और इस तरह वह भारत में एक मुगल शासक बतौर प्रचलित रहा।बाबर को बाप से विरासत में मिली थी शराब की लत बाबर के पिता उमर शेख को शराब पीने का बड़ा शौक था। अक्सर वह बाबर को भी इसको चखने का न्यौता देता था। साथ ही उसे कबूतर पालने का भी बड़ा चाव था। माना जाता है कि कबूतरों को दाना देते हुए एक हौज में गिर जाने से उसकी मृत्यु हुई थी। पिता की मृत्यु के समय बाबर की आयु केवल बारह वर्ष की थी। शराब की लत और तैमूरवंश उसे अपने पिता से विरासत में मिले किंतु वह खुद को कभी तैमूरवंशी कहलाना पसंद नहीं करता था।क्या कहती है बाबर की आत्मकथाबाबर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजुक ए बाबरी’ में लिखा कि उसका पहला शिक्षक शेख मजीद बेग एक बड़ा अय्याश था इसलिए बहुत गुलाम रखता था। उसने अपने दूसरे शिक्षक कुलीबेग के बारे में लिखा कि वह न नमाज पढ़ता था और न रोजा रखता था, वह बहुत कठोर भी था। तीसरे शिक्षक पीर अली दोस्तगोई के बारे में उसने लिखा कि वह बेहद हंसोड़- ठिठोलिया और बदकारी में माहिर था।अय्याश था बाबर “बाबर बताता है कि वह अपने शिक्षकों की करतूतों को बिल्कुल पसंद नहीं करता था परन्तु असल में उसने उनके कई सारे अवगुणों को अपना लिया था। बाबर ने अपनी आत्मकथा में यहां तक लिखा है कि वह समलैंगिक था और जब महज 16-17 साल का था, तब उसको बाबुरी नामक एक किशोर के साथ प्रेम हो गया था।बाबुरी के प्रति आसक्त बाबर ने आशिकी पर शेर भी लिखे थे। बाबर ने बाबुरी का जिक्र करते हुए बाबर ने बाबरनामा में लिखा है कि एक बार आगरा की गली में हमने उसे देखा परंतु हम उससे आंखें नहीं मिला पाये क्योंकि तब हम बादशाह बन चुके थे।बाबर के यह किस्से साबित करते हैं कि वह कितना अय्याश किस्म का व्यक्ति था।छल-कपट का आदी रहा बाबरबाबर ने अपने जीवन में छल और कपट का भरपूर इस्तेमाल किया। उसने समरकंद को जीतने का प्रयास तीन बार किया पर वह कामयाब नहीं हो सका। जल्दी ही उसने कपट तथा चतुराई से 1504 में काबुल पर कब्जा कर लिया।भारत पर नजर काबुल पर काबिज होने के बाद बाबर ने भारत की ओर ध्यान दिया, जो उसके जीवन की बड़े लंबे समय से लालसा थी। बाबर के भारत आक्रमण का मूल कारण भारत की राजनीतिक परिस्थितियों से भी अधिक स्वयं उसकी दयनीय तथा असहाय अवस्था थी। वह काबुल के उत्तर अथवा पश्चिम में संघर्ष करने की अवस्था में नहीं रहा था और इसलिए भारत की धन संपत्ति लूटना चाहता था। इसके लिए उसने अपने पूर्वजों महमूद गजनवी तथा मोहम्मद गौरी का हवाला देकर भारत को तैमूरिया वंश का क्षेत्र बताया था।3000 से भी अधिक निर्दोषों को माराबाबर की कट्टरता और क्रूरता को इसी से समझा जा सकता है कि उसने अपने पहले आक्रमण में ही बाजौर के सीधे-सादे 3000 से भी अधिक निर्दोष लोगों की हत्या कर दी थी। वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि बाजौर वाले विद्रोही स्वभाव के थे। यहां तक कहा जाता है कि उसने इस युद्ध के दौरान एक पुश्ते पर आदमियों के सिरों को काटकर उसका स्तंभ बनवा दिया था। ऐसे ही नृशंस अत्याचार उसने ‘भेरा’ पर आक्रमण करके भी किये।गुरुनानक ने देखे थे बाबर के अत्याचारबाबर द्वारा किए गए तीसरे-चौथे व पांचवें आक्रमण जो सैयदपुर व लाहौर तथा पानीपत से जुड़े हैं, को गुरुनानक ने अपनी आंखों से देखा था। बाबर के इन वीभत्स अत्याचारों को गुरुनानक ने पाप की बारात और बाबर को यमराज की संज्ञा दी थी। इन आक्रमणों के वक्त बाबर ने किसी के बारे में नहीं सोचा। उसने रास्ते में मिले बूढ़े, बच्चे और औरतें का बड़ी बेरहमी से कत्ल किया। वह किसी भी कीमत पर भारत की धन-संपदा को लूटकर अपने साथ ले जाना चाहता था।रामजन्म भूमि विवाद का जनकबाबर ने मुसलमानों की हमदर्दी पाने के लिए हिन्दुओं का नरसंहार करने के साथ-साथ अनेक मंदिरों को नष्ट किया। इसी कड़ी में बाबर की आज्ञा से मीर बाकी ने अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि पर निर्मित प्रसिद्ध मंदिर को नष्ट कर मस्जिद बनवाई थी। यही नहीं, ग्वालियर के निकट उरवा में अनेक जैन मंदिरों को भी बाबर ने नष्ट कराया था।यह कहना गलत नहीं होगा कि क्रूर बाबर का भारत पर आक्रमण हर तरह से महमूद गजनवी या मोहम्मद गौरी जैसा ही था और उन्हीं की तरह उसने अपने हितों के खातिर हिन्दुओं का कत्लेआम व उनकी आस्था को नष्ट-भ्रष्ट करने का काम किया।कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि बाबर एक विदेशी आक्रांता था और उसका एकमात्र मकसद भारत के वैभव को समाप्त करना तथा उसकी धन-संपदा को लूटकर ले जाना रहा।वर्तमान हालातों का जिम्मेदार कौन ?ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि राम मंदिर निर्माण के लिए आज जो स्थिति-परिस्थिति बनी है, उसका जिम्मेदार वाकई कौन है ?नि: संदेह राम मंदिर का मुद्दा राजनीति से प्रेरित रहा है किंतु राम को राजनीति के केंद्र में लाने का काम उन कठमुल्लाओं ने किया जो कौमपरस्ती की आड़ लेकर बाबर को अपना पूर्वज घोषित करने से नहीं सकुचाये। वो हर मंच से बड़ी बेशर्मी के साथ बाबर के ऐसे कुकृत्यों की हिमायत करने में लगे रहे जिन्हें उनका खुदा भी जायज नहीं ठहराता।आज के दौर से यदि आकलन करें तो बाबर की मानसिकता सीधे तौर पर आईएसआईएस के सरगना बगदादी, अफगानिस्तान के तालिबान या लश्करे तैयबा के आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन से मेल खाती है।बगदादी, लादेन और तालिबान ने भी अपनी कट्टर सोच के चलते एक ओर जहां लाखों निर्दोष लोगों का कत्ल किया वहीं दूसरी ओर तमाम ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विरासतों को नेस्तनाबूद कर डाला।हो सकता है कि राम मंदिर के निर्माण की मांग या उसका विरोध करने के पीछे भाजपा, कांग्रेस, शिव सेना, सपा-बसपा या अन्य दलों के भी अपने-अपने राजनीतिक हित जुड़े हों परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि राम मंदिर को राजनीति के केंद्र में लाने का काम सीधे तौर पर बाबर परस्तों ने किया है।जिस सुप्रीम कोर्ट का हवाला देकर बाबर परस्त आज कहते हैं कि मंदिर निर्माण की यह मांग नाजायज है, वह यह भूल जाते हैं सुप्रीम कोर्ट ही नमाज के लिए मस्जिद की अनिवार्यता का मुद्दा पूरी तरह खारिज कर चुका है।अब जबकि नमाज के लिए न तो मस्जिद अनिवार्य है और न बाबर किसी भारतीय मुसलमानों का पूर्वज है, फिर उसकी हिमायत में खड़े होना और उसके द्वारा मंदिर तोड़कर बनाई गई मस्जिद की पैरवी करना किस तरह जायज है।सच तो यह है कि कोई भी सच्चा मुसलमान यदि मात्र 1400 साल पूर्व हुए इस्लाम के प्रवर्तक पैगंबर साहब की जन्मस्थली पर सवाल खड़े करना बर्दाश्त नहीं कर सकता, उसी तरह हिंदू भी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की जन्मस्थली को लेकर लगातार उठाए जा रहे सवालों से आहत हैं।जहां तक बात मंदिर के निर्माण में होने वाले विलंब और उस पर की जा रही राजनीति की है तो स्वामी रामदेव का यह कथन सही प्रतीत होता है कि सब्र का बांध अब टूटने लगा है।कौन नहीं जानता कि चूल्हे पर रखा पानी भी एक समय बाद उबल कर बाहर आ जाता है, इसलिए यह प्रश्न मुनासिब नहीं कि सैकड़ों साल यदि इंतजार किया है तो अब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार क्यों नहीं।सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार तो किया ही जा रहा था परंतु जब सुप्रीम कोर्ट ने ही यह कहते हुए बहुसंख्यकों के धैर्य की परीक्षा लेनी शुरू कर दी कि उसके लिए राम जन्मभूमि का मुद्दा कोई प्राथमिकता नहीं है तो अब सवाल कैसा।न्यायपालिका हो या कार्यपालिका, विधायिका हो या कोई अन्य संस्था, आखिर ये सब लोगों के लिए बनाए गए तंत्र हैं न कि इन तंत्रों के लिए लोग बने हैं। इसीलिए लोकतंत्र में भी लोक पहले आता है और तंत्र बाद में।बेशक आज राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी हैं कि कांग्रेस सहित दूसरे विपक्षी दल भी राम मंदिर निर्माण का खुलकर विरोध करने की हिमाकत नहीं कर पा रहे परंतु सुप्रीम कोर्ट ने अपनी एक अदद टिप्पणी से बॉल राजनीतिज्ञों के खेमे में ही डाल दी है। आज यदि राम मंदिर निर्माण का मुद्दा फिर गर्मा रहा है तो उसके लिए अदालतों की तारीख पर तारीख देने की प्रवृत्ति भी कम जिम्मेदार नहीं।राम जन्मभूमि को विवादित बनाए रखने में रुचि लेने वालों को समझना ही होगा कि जब उनके मात्र 1400 साल पुराने धर्म पर सवालिया निशान लगाना उन्हें आहत करता है तो हजारों साल पूर्व जन्म लेने वाले हिंदुओं के आराध्य पर प्रश्न खड़े करना कैसे सहन होगा और कब तक सहन होगा।इतिहास गवाह है कि कोई हिंदू शासक कभी आक्रांता नहीं रहा, हिंदुओं से ज्यादा सहिष्णु कोई हुआ ही नहीं। फिर भी चूल्हे पर रखे हुए पानी के उबलकर बाहर आने का इंतजार करना किसी तरह अक्लमंदी नहीं।गौर करने लायक है डॉ. सैयद रिजवान अहमद की यह टिप्पणी कि राम मंदिर अब तक इसलिए नहीं बना क्योंकि हिंदू जाग्रत नहीं हुआ, जिस दिन हिंदू जाग गया उस दिन राम मंदिर के निर्माण को कोई रोक नहीं पाएगा।डॉ. रिजवान के शब्दों में कहें तो मुस्लिमों की बाबर परस्ती यदि अब भी नहीं छूटी तो ‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम’ की कहावत चरितार्थ होकर रहेगी। उसके बाद मोहब्बत का पैगाम कटोरे में लेकर घूमने के अलावा कुछ हाथ नहीं रह जाएगा।कौन नहीं जानता कि पूरी दुनिया में मुस्लिम यदि कहीं सबसे अधिक महफूज हैं तो वह भारत है। सर्व धर्म समभाव के पोषक समूची कायनात में कोई हैं तो वह हिंदू हैं। विश्व के मानवों को कुटुम्ब मानकर वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा में जीने वाले धर्म को यदि बार-बार चेतावनी दी जाएगी और उनके आराध्य के वजूद को चुनौती मिलेगी तो सब्र का बांध टूटना स्वाभाविक है।कोर्ट का फैसला, कानून, अध्यादेश आदि सब तब तक अहमियत रखते हैं जब तक उनमें विश्वास कायम रहता है। जिस दिन इन व्यवस्थाओं पर से विश्वास टूटने लगता है, उस दिन बहुत कुछ टूटने और बिखरने की नौबत आ जाती है।बेहतर होगा कि एक नया इतिहास कायम किया जाए, इतिहास दोहराया न जाए अन्यथा भगवान श्रीकृष्ण ने भी अंत तक महाभारत को रोकने के बहुत प्रयास किए थे। संपूर्ण राज-पाठ की जगह पांडवों के लिए मात्र पांच गांव देने की प्रार्थना की थी लेकिन दुर्योधन नहीं माना।दुर्योधन द्वापर में ही नहीं हुआ था। वह हर युग में होता है, इसलिए आज के दुर्योधनों को पहचानना जरूरी है क्यों कि जरूरी है शांति और सद्भाव। यदि दुर्योधनों की चाल काम आ गई तो शांति की स्थापाना के लिए भी युद्ध आवश्यक हो जाता है।-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
जी हां! यदि आप इस फेस्टिव सीजन यानी में मथुरा से Hyundai की कोई कार खरीदना चाहते हैं तो यह ख़बर आपके लिए ही है।कहीं ऐसा न हो कि आप बड़े उत्साह से अपने अरमानों की गाड़ी घर लेकर आएं और पता चले कि गाड़ी तो घर पहुंच गई किंतु एजेंसी ‘सड़क’ पर आ चुकी है।दरअसल, मथुरा जनपद में Hyundai कारों के एकमात्र डीलर आगरा निवासी राजीव रतन और ऋषि रतन ने कार निर्माता कंपनी को धोखे में रखकर Shiel Hyundai का सौदा किसी अन्य व्यक्ति के नाम कर दिया है जो कंपनी की शर्तों के मुताबिक पूरी तरह अवैध है।बताया जाता है कि फिलहाल डीलरशिप को छिपाए रखने की वजह भी यही है कि कंपनी की आंखों में धूल झोंककर फेस्टिव सीजन का भरपूर लाभ उठा लिया जाए।यही कारण है कि Shiel Hyundai में कार्यरत स्टाफ को भी यह कहकर गुमराह किया जा रहा है कि कंपनी की सहमति से डीलरशिप का सौदा हुआ है जबकि कोई भी मल्टी नेशनल कार कंपनी अपने डीलर को ऐसा करने की इजाजत कभी नहीं देती।गौरतलब है कि फेस्टिव सीजन में लगभग सभी कार कंपनियां अपने उत्पादों पर अच्छी-खासी छूट देती हैं और इसका लाभ ग्राहक के साथ-साथ डीलर को भी प्राप्त होता है।डीलर को इन अवसरों पर कंपनी जो टारगेट देती है, उस टारगेट को अचीव करने का बोनस भी निर्धारित होता है, और यह बोनस डीलर के खाते में जाता है।कंपनी द्वारा दी जाने वाली छूटों में नकद डिस्काउंट के अलावा फ्री सर्विस की संख्या, गारंटी अथवा वारंटी की मियाद बढ़ा देना आदि भी शामिल होता है।इन हालातों में अगर आपने किसी ऐसे डीलर से अपने सपनों की कार खरीदी होगी जिसके अपने भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा हो तो आपको सर्विस से लेकर मेंटीनेंस तक में भारी असुविधा होने की पूरी संभवाना है।वजह एकदम साफ है। प्रथम तो कंपनी कब और किसे डीलर बनाती है, यह उसका अपना निर्णय है। दूसरे जिसे भी वह डीलर बनाती है, जरूरी नहीं कि वह उस गाड़ी पर फेस्टिव सीजन में मिली छूट को गंभीरता से ले जिसे उसने अपने स्तर से बेचा ही नहीं है और जिसका लाभ उससे पहले वाला डीलर उठा चुका है।हालांकि कंपनी की शर्तों के मुताबिक प्रत्येक डीलर पूर्व में कंपनी द्वारा ग्राहक को दी गई सुविधाएं पूरी करने के लिए बाध्य है किंतु हकीकत में ऐसा होता नहीं है। यहां तक कि एक शहर का डीलर दूसरे शहर से खरीदी गई अपनी ही कंपनी की गाड़ी के ग्राहक को सुविधाएं मुहैया कराने में विशेष रुचि नहीं लेता।डीलर्स की इस हरकत से सभी कार मालिक भली-भांति परिचित होते हैं इसलिए अधिकांश लोग जहां रहते हैं वहीं से कार खरीदने को प्राथमिकता देते हैं।सामान्य तौर पर मथुरा जैसे धार्मिक जनपद में लोग धनतेरस और दीवाली पर नई कार अपने घर लाना चाहते हैं और इसके लिए पहले से तैयारी भी करते हैं। जिन्हें फाइनेंस कराना होता है वह फाइनेंस कराकर रखते हैं और जिन्हें एक्सचेंज ऑफर के तहत शेष धनराशि नकद देकर कार लानी होती है, वह भी पूरी तैयारी रखते हैं।मन पसंद कार के लिए लोग डीलर के पास एडवांस पैसा पहुंचा देते हैं ताकि उन्हें पूर्व निधारित समय पर गाड़ी की डिलीवरी मिल सके।ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल यह पैदा होता है कि एडवांस पेमेंट, अच्छा लाभ और आफ्टर सेल भी विभिन्न माध्यमों से कमाई का जरिया लगातार बने रहने के बावजूद मथुरा की डीलरशिप क्यों खतरे में पड़ गई।इस संबंध में जानकारी की तो पता लगा कि ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में किसी भी डीलर के सामने आर्थिक तंगी के हालात सिर्फ तब खड़े होते हैं जब वह उस डीलरशिप से हो रही आमदनी का पैसा दूसरे कारोबार में लगाने लगता है। जैसे कि दूसरी कंपनी की डीलरशिप में या फिर जमीनें आदि को खरीदने में।उल्लेखनीय है कि मथुरा में Hyundai कारों के डीलर राजीव रतन व उनके पुत्र ऋषि रतन पर आगरा में एक अन्य कार कंपनी की भी डीलरशिप है और इन्होंने जमीन आदि में भी पैसा लगाया हुआ है। इसके अलावा पड़ोसी जनपद हाथरस में भी Hyundai की डीलरशिप इन्हीं के पास है।इतना सब होते हुए मथुरा में Hyundai की डीलरशिप से किसी प्रकार का आर्थिक नुकसान मिलने की संभावना नहीं बनती लिहाजा यह अनुमान लगाना आसान है कि पैसा गया कहां होगा।मथुरा में एक मशहूर दुपहिया वाहन के डीलर ने कुछ समय पूर्व ऐसा ही कारनामा किया था और अपने स्तर से सौदा करके करोड़ों रुपए ले लिए थे। कंपनी को जब डीलर के कारनामे का पता लगा तो उसने डीलरशिप टर्मिनेट करके नया डीलर बना लिया लेकिन जिसने पहली डीलरशिप में पैसे लगाए थे, वह फंस गया।प्रत्येक व्यक्ति का पहला सपना भले ही अपना एक घर बनाना होता है परंतु उसका दूसरा सपना एक चार पहिया वाहन भी लेना होता है। चार पहिया वाहनों में मारुति और Hyundai ऐसी कंपनियां हैं जिनकी सर्वाधिक कारें सड़क पर दौड़ती देखी जा सकती हैं।फेस्टिव सीजन में तो इन कंपनी की कारों के लिए लगभग मारामारी जैसी स्थिति पैदा हो जाती है क्योंकि सभी को अपनी पसंद का कलर और मॉडल एक निर्धारित तिथि या दिन चाहिए होता है।अभी धनतेरस में 12 और दीपावली में 14 दिन शेष हैं। यदि आप मथुरा से Hyundai की गाड़ी लेने का मन बना रहे हों तो पहले अच्छी तरह यह पता कर लें कि कहीं आपको आफ्टर सेल सर्विस के लिए दूसरी जगहों पर भटकना न पड़े और आप अपनी गाड़ी का भरपूर लुत्फ उठा सकें।-सुरेन्द्र चतुर्वेदी