सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

जो कहते हैं इस शहर में कातिल नहीं कोई













उत्‍तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की दुंदुभि बज गई है, हालांकि ये चुनाव अगले वर्ष यानि 2012 में होने हैं। यूपी के चुनाव हमेशा ही राजनीतिक दृष्‍टि से अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण रहे हैं। इस बार इनमें कुछ ज्‍यादा ही गहमा-गहमी होने की उम्‍मीद है क्‍योंकि उलटबांसियों के इस खेल में हर पार्टी जीतना चाहती है।
प्रदेश के इन चुनावों में किसकी जीत होगी और किसे हार का मुंह देखना होगा, किसी एक दल को स्‍पष्‍ट बहुमत प्राप्‍त हो पायेगा या बहुमत के लिए जुगाड़ करना होगा, यह सब बातें तो अभी भविष्‍य के गर्भ में हैं अलबत्‍ता इतना जरूर नजर आने लगा है कि 2012 के विधानसभा चुनाव एक नया गुल खिलायेंगे।
जो भी हो, फिलहाल हम न तो प्रदेशभर की बात करेंगे और ना ऐसा कोई कयास लगायेंगे कि सूबे की सत्‍ता पर काबिज होने का सुख किसे मिलने वाला है। हम यहां बात करेंगे सिर्फ और सिर्फ कृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली का गौरव प्राप्‍त उस जिले की जो राजनीतिक दृष्‍टि से भी प्रदेश की राजनीति में एक विशेष अहमियत रखता है।
जी हां, हम जिक्र कर रहे हैं विश्‍व के एक प्रमुख धार्मिक जनपद मथुरा की जहां की कुल 5 विधानसभा सीटों में से अभी एक पर कांग्रेस, तीन पर बसपा तथा एक पर राष्‍ट्रीय लोकदल काबिज है। छाता विधानसभा सीट से बसपा के विधायक चौधरी लक्ष्‍मीनारायण प्रदेश सरकार में कबीना मंत्री के पद को सुशोभित कर रहे हैं।
एक ओर सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती महंगाई और दूसरी ओर कानून-व्‍यवस्‍था की बदहाली ने आम लोगों का जीना हराम कर दिया है, बावजूद इसके सरकार चाहे केन्‍द्र की हो अथवा राज्‍य की, अपनी-अपनी ढपलियों से अपना-अपना राग अलाप रही हैं। केन्‍द्र सरकार महंगाई के लिए प्रदेश की नीतियों को जिम्‍मेदार ठहराती है और राज्‍य सरकार कानून-व्‍यवस्‍था की बदहाली में केन्‍द्र की भूमिका बताती है।
बहुजन समाज पार्टी ने गत विधानसभा चुनाव प्रदेश में कानून का राज कायम करने की बात कहकर लड़ा था क्‍योंकि मुलायम सिंह के नेतृत्‍व वाली समाजवादी पार्टी व रालोद की सरकार का अपराधियों से नियंत्रण जैसे खत्‍म हो चुका था।
मायावती के पिछले कार्यकाल में जो तीखे तेवर रहे थे, उन्‍हें देखकर लोगों ने उन पर भरोसा भी खूब किया नतीजतन एक लम्‍बे समय बाद किसी पार्टी को स्‍पष्‍ट बहुमत से सत्‍ता की बागडोर मिली।
शुरू में ऐसा लगा भी कि शायद माया का शासन कोई नई इबारत लिख दे लेकिन समय के साथ यह भरोसा टूटने लगा।
बहरहाल, विश्‍व के एक प्रसिद्ध धार्मिक स्‍थल एवं राजनीति में एक महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखने वाले मथुरा-वृंदावन को माया सरकार ने फोकस में रखा और यहां के लिए महत्‍वाकांक्षी विकास योजनाएं बनाईं। इन योजनाओं को उन्‍होंने ''ड्रीम प्रोजेक्‍ट'' का नाम दिया और इनको समय से पूरा कराने के लिए बाकायदा तिथियां घोषित की गईं लेकिन सब बेकार। आज हाल यह है कि माया सरकार का ड्रीम प्रोजेक्‍ट ''डरावना प्रोजेक्‍ट'' बनकर रह गया है। अब न तो कोई इस आशय की जानकारी देने वाला है कि यह कब तक पूरा होगा और ना यही पता लग पा रहा है कि इसके पूरा हो जाने पर वृंदावन का स्‍वरूप कैसा होगा।
अपराधियों के लिए अभ्‍यारण्‍य की छवि बना चुके मथुरा-वृंदावन में यदि आंकड़ेबाजी की पुलिसिया बाजीगरी को दरकिनार कर दिया जाए, तो रोंगटे खड़े कर देने वाली सच्‍चाई सामने आयेगी।
ऐसे में यह कहना कि आगामी विधानसभा चुनाव बसपा के लिए कोई खास उपलब्‍िध दिलायेंगे, बहुत मुश्‍किल है।
बसपा के बाद इस धार्मिक जनपद के लोगों की उम्‍मीदों पर पानी फेरा है उस पार्टी ने, जो केन्‍द्र में सत्‍ता का सुख भोग रही है। कांग्रेस के यूं तो यहां एकमात्र विधायक हैं प्रदीप माथुर लेकिन खुद उनकी मानें तो वह यूपीए की चेयर परसन सोनिया गांधी के निवास तक सीधी एंट्री पाते हैं और अपने इस प्रभाव एवं रसूखातों के बल पर ही उन्‍होंने मथुरा को जवाहार लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्‍यूअल मिशन अर्थात ''जे नर्म'' जैसी केन्‍द्र की अति महत्‍वाकांक्षी योजना में शामिल कराया। मथुरा के चहुंमुखी विकास के लिए इस योजना के तहत करीब दो हजार करोड़ की मोटी रकम मिलनी प्रस्‍तावित है और उसका एक हिस्‍सा मिल भी चुका है लेकिन आज यह योजना कोढ़ में खाज साबित हो रही है। रही-सही कसर तब और पूरी हो गई जब एक डंडस्‍ट्री एरिया स्‍थित पोखर की एक बेशकीमती जमीन पर कथित भूमाफियाओं को काबिज कराने में उक्‍त कांग्रेसी विधायक का नाम सामने आया। विधायक प्रदीप माथुर ने बेशक इस प्रकरण में अपनी कोई भूमिका न होने का दावा किया लेकिन जनता के गले उनका यह दावा नहीं उतर पा रहा लिहाजा इसका खामियाजा इस मर्तबा चुनावों में कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है।
कहने को मथुरा नगर पालिका पर भी कांग्रेस ही काबिज है और जे नर्म योजना के तहत सारा विकास कार्य नगरपालिका के माध्‍यम से होना तय था लेकिन स्‍थानीय कांग्रेस में व्‍याप्‍त अंतर्कलह ने न केवल नगरपालिका के हाथ से यह जिम्‍मदारी छिनवा दी बल्‍िक योजना के क्रियान्‍वयन पर ही गहरा प्रश्‍नचिन्‍ह लगवा दिया।
जैसे-तैसे बात बनीं तो आज यह आलम है कि मथुरा का विकास दूर-दूर तक होता दिखाई नहीं दे रहा जबकि नेताओं का पर्याप्‍त विकास होने की चर्चा आम है। जे नर्म के पैसे से किसका और कितना विकास हुआ, इसका पता तो वक्‍त आने पर लगेगा लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि मथुरा का विकास आशा के अनुरूप नहीं होने वाला। चाहे बात हो सड़क, बिजली व पानी की या फिर ड्रेनेज सिस्‍टम तथा गंदगी की, हर मामले में हालात नारकीय हैं। पूरा शहर एक अति पिछड़े हुए कस्‍बे सरीखा लगता है।
पूरे शहर में ना कोई सार्वजनिक पार्क है और ना प्‍ले ग्राउण्‍ड। भूमाफियाओं के वर्चस्‍व ने पूरे शहर की शक्‍ल बिगाड़ कर रख दी है। यातायात की अव्‍यवस्‍था और उसके कारण जगह-जगह लगने वाले जाम ने हालात बद से बदतर बना दिये हैं। कहीं से कोई आशा की किरण तक नजर नहीं आती। लोगों की निराशा का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि अब वह ''जे नर्म'' को कोसते सुने जाते हैं। कांग्रेस के विधायक प्रदीप माथुर जो कल तक ''जे नर्म'' का श्रेय लेने को एड़ी-चोटी का जोर लगाते थे, अब आये दिन प्रेस कांफ्रेस करके सफाई सी देते रहते हैं और योजना के पूरा न हो पाने का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ते की कोशिश करते हैं जिनमें कांग्रेसियों का नाम भी शामिल होता है।
अब यदि बात करें भाजपा की तो उसने इस धार्मिक जनपद में अपने पैरों पर पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान तब खुद ही कुल्‍हाड़ी मार ली थी जब पार्टी का कोई प्रत्‍याशी खड़ा न करके राष्‍ट्रीय लोकदल को समर्थन दे दिया।
राष्‍ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी ने यहां भाजपा के समर्थन से चुनाव लड़ा और रिकॉर्ड मतों से जीत हासिल की लेकिन इसके बाद एक तो जयंत चौधरी की उदासीनता तथा दूसरे भाजपा की निष्‍क्रियता व जिला स्‍तर पर चल रही आपसी फूट ने उसका बेड़ा गर्क कर दिया। आज हाल यह है कि भाजपा के पास मथुरा में एक अदद चेहरा ऐसा नहीं है जो यहां पार्टी को एकसूत्र में पिरोकर चल सके।
रही बात विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी प्रत्‍याशियों के चयन की तो वह ढूंढे़ नहीं मिल रहे क्‍योंकि किसी के लिए पार्टी की तथाकथित नीतियां तैयार नहीं हैं तो कोई खुद तैयार नहीं है।
हाल ही में नगरपालिका के रिक्‍त पड़े एक वार्ड का चुनाव भी भाजपा अपने प्रत्‍याशी को नहीं जितवा सकी जबकि भाजपा व आरएसएस की क्रीमी लेअर के कई नेता उसी वार्ड में रहते हैं। यह हाल तो तब है जब कांग्रेस के पालिका बोर्ड से आम जनता तो क्‍या, खुद कांग्रेसी संतुष्‍ट नहीं हैं।
खुद भाजपायी भी यह मानते हैं कि मथुरा जैसे अपने मजबूत गढ़ को खोने में पार्टी की नीतियों तथा ऊपर से नीचे तक व्‍याप्‍त अंतर्कलह ने बड़ी भूमिका निभाई है। अब भी यदि पार्टी अपने समर्पित व स्‍वच्‍छ छवि के लोगों को आगे लाती है तो उसे बसपा एवं कांग्रेस के प्रति उपजी आम जनता की नाराजगी का लाभ मिल सकता है, अन्‍यथा वह अपनी जमीन तो यहां खो ही चुकी है।
आगामी विधानसभा चुनावों में राष्‍ट्रीय लोकदल का वह मुगालता भी संभवत: दूर हो जायेगा जो उसने पहले तो भाजपा के सहयोग से लोकसभा का चुनाव जीतकर और फिर बसपा नेताओं की करनी से जिला पंचायत में जीत दर्ज कर पाल लिया है।
इसे सीधी भाषा में कुछ इस तरह भी कहा जा सकता है कि रालोद की सफलता में दूसरे दलों विशेषकर बसपा ने ज्‍यादा बड़ी भूमिका निभाई क्‍योंकि वह सत्‍ता मद में चूर थे।
जहां तक खुद रालोद का सवाल है तो ऐतिहासिक जीत दर्ज करने के बावजूद जयंत चौधरी ने स्‍थानीय जनता को काफी निराश किया है। एक सांसद के तौर पर मथुरा के लिए उनकी कोई ऐसी उपलब्‍िध अब तक नहीं रही, जिसे रेखांकित किया जा सके।
हो सकता है रालोद या जयंत चौधरी आम जनता की इस टिप्‍पणी से इत्‍तेफाक न रखते हों और जिला पंचायत के चुनावों में मिली अपनी सफलता को जयंत से जोड़कर देखते हों लेकिन इसका पता भी इन विधानसभा चुनावों में उन्‍हें लग जायेगा।
उत्‍तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाने वाली एक अन्‍य पार्टी है समाजवादी पार्टी, परन्‍तु समाजवादी पार्टी ने मथुरा पर कभी ध्‍यान केन्‍द्रित करना जरूरी नहीं समझा। यहां से वह चुनाव तो लड़ती है लेकिन महज औपचारिकता निभाने के लिए। उसका कोई प्रत्‍याशी जिस दिन यहां से जीत दर्ज करेगा, वह दिन
निश्‍िचत ही ऐतिहासिक होगा।
यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि आगामी विधानसभा चुनाव नये परिसीमन के हिसाब से लड़े जाने हैं। नये परिसीमन के तहत अब तक आरक्षित रही गोवर्धन विधानसभा सीट इस बार सामान्‍य होगी जबकि गोकुल सीट आरक्षित घोषित की गई है। यह उलटफेर भी चुनावों पर प्रभाव डालेगा।
छाता सीट से बसपा के विधायक और प्रदेश के कबीना मंत्री चौधरी लक्ष्‍मीनारायण से जनता किस कदर नाराज है, इसकी बानगी जिला पंचायत चुनावों में सामने आ चुकी है। पिछला चुनाव लड़ने के बाद बसपा में शामिल हुए मांट क्षेत्र के विधायक श्‍यामसुंदर शर्मा को लोकसभा चुनावों में मिली पराजय तथा अब जिला पंचायत चुनावों में हुई किरकिरी से पार्टी यदि कुछ नहीं समझ पायी है तो आगामी विधानसभा चुनावों में उसे सब समझ में आ जायेगा।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस बार के विधानसभा चुनाव जहां बहुत से चिर-परिचित चेहरों की गलतफहमी दूर कर देंगे वहीं उन पार्टियों को भी अच्‍छा सबक सिखायेंगे जो स्‍वच्‍छ छवि के पाक-साफ चेहरों तथा कार्यकर्ताओं की भावनाओं को दरकिनार कर प्रत्‍याशियों के चयन में मनमानी करती हैं और जनभावनाओं से खिलवाड़ करना अपना विशेष अधिकार समझ बैठी हैं।
विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक जनपद मथुरा की दुर्दशा और इसके लिए जिम्‍मेदार स्‍थानीय जनप्रतिनिधियों की मानसिकता किसी शायर की यह पंक्‍ितयां बहुत सटीक बैठती है-

जो कहते हैं इस शहर में कातिल नहीं कोई
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