राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सड़क मार्ग द्वारा मात्र 146 किलोमीटर की दूरी पर स्थित 'मथुरा' की पहचान यूं तो महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्ण की पावन जन्मस्थली के रूप में है लेकिन समय के साथ इसकी पहचान से और भी बहुत कुछ जुड़ चुका है।
कभी भजन, भोजन और भांग के लिए अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाली इस विश्व प्रसिद्ध धार्मिक नगरी को एक ओर जहां मूर्तिकला का महत्वपूर्ण केन्द्र होने के कारण मूर्ति तस्करों के अभ्यारण्य की पहचान मिली तो दूसरी ओर चांदी के आभूषणों का प्रमुख निर्माण केन्द्र होने तथा उसकी वजह से भारी मात्रा में चांदी की खपत होने के कारण चांदी तस्करी का बड़ा ठिकाना होने की भी पहचान मिली।
1982 में जब से इंडियन ऑयल कार्पोरेशन की मथुरा रिफाइनरी में उत्पादन शुरू हुआ, तब से इस धार्मिक जनपद की गिनती काले तेल के खेल और ऑयल माफिया के बड़े गढ़ के तौर पर की जाने लगी। चूंकि देखते-देखते इस खेल में चपरासी से लेकर अफसर तक, सिपाही से लेकर अधिकारी तक और संतरी से लेकर मंत्रियों तक सब संलिप्त होते गये इसलिए इसका विस्तार भी इतना हो गया कि कानून के लम्बे हाथ इसका कुछ नहीं बिगाड़ सके। यह भी कहा जा सकता है इन हाथों ने उनका साथ देकर रिफाइनरी से बेहिसाब दौलत उलीचना प्रारम्भ कर दिया जो अब रिफाइनरी की बढ़ती उत्पादन क्षमता के साथ बढ़ता जा रहा है।
एक ओर राजस्थान तथा दूसरी ओर हरियाणा जैसे राज्यों की सीमा से लगी मथुरा का नाम पश्चिमी उत्तर प्रदेश की क्राइम बेल्ट में भी शुमार किया जाता है और देशी-विदेशी मादक पदार्थों के अड्डे के रूप में भी। काफी तादाद में लावारिश लाशें मिलते रहने के कारण इसे लावारिश लाशों के शहर का भी नाम मिल चुका है और देश के विभिन्न हिस्सों में हुईं आतंकी वारदातों से किसी न किसी तरह यहां के तार जुड़ जाने की वजह से इसकी गिनती संदिग्ध आतंकियों के स्लीपर सैल्स के रूप में भी की जाने लगी है।
इन सबके अलावा देशभर में कृष्ण की इस नगरी को एक और विशेष पहचान प्राप्त है और यह पहचान है फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस बनाने के मामले में। ऐसा नहीं है कि मथुरा में फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस बनने का काम हाल-फिलहाल कभी शुरू हुआ हो। यह काम तो यहां पिछले कई दशकों से किया जा रहा है लेकिन इसे शौहरत तब मिली जब यहां के ''एआरटीओ'' से मुंबई हमले के एकमात्र जीवित आतंकवादी ''अजमल कसाब'' का ही फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस जारी कर दिया गया।
कसाब का फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस किस तरह बना और उसमें विभाग के किन-किन लोगों की क्या-क्या भूमिका रही, इस सबका चूंकि स्टिंग ऑपरेशन कर लिया गया इसलिए भांडा फूटना ही था। भांडा फूटा तो भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबी व्यवस्था के कानों पर जूं रेंगी और उसे मजबूरन कानूनी कार्यवाही अमल में लानी पड़ी, हालांकि उसे ठण्डे बस्ते के हवाले करने के भी पूरे प्रयास किये गये।
कुछ शातिर किस्म के लोग सलाखों के पीछे भेजे गये लेकिन कुछ बच निकले नतीजतन आज भी मथुरा के ''एआरटीओ'' से बड़े पैमाने पर यानि ''बल्क'' में फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस बनाने का खेल जारी है। फर्क आया तो सिर्फ इतना कि पहले जहां एक फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस सैंकड़ों रुपये में बन जाता था, अब खतरा बढ़ जाने की दलील के साथ उसी के हजारों रुपये लिये जाते हैं।
किसी को भी यह जानकर आश्चर्य होगा कि देश का जब कोई सरकारी महकमा अपने यहां वाहन चालक की वेकैंसी क्रिएट करता है तो अधिकांश आवेदक मथुरा ''एआरटीओ'' का रुख करते हैं क्योंकि यहां फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस बनने की सुविधा हासिल है।
यह सुविधा दिलाने के लिए बाकायदा पूरा रैकेट सक्रिय है और उसके एजेंट हर सरकारी विभाग में मौजूद हैं। वह आवेदकों को इस बावत न केवल पूरी जानकारी उपलब्ध कराते हैं बल्िक कॉन्ट्रेक्ट भी लेते हैं लिहाजा मौका पड़ने पर इनके द्वारा एआरटीओ मथुरा को थोक में फर्जी लाइसेंस बनाने का ऑर्डर प्लेस किया जाता है।
यह बात दीगर है जब पोल खुलती है तो कभी दिल्ली पुलिस यहां डेरा डाल देती है तो कभी हरियाणा पुलिस, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और नतीजा ढाक के तीन पात से आगे नहीं बढ़ पाता।
मथुरा ''एआरटीओ'' में तैनात एक-एक क्लर्क की हैसियत लाखों में नहीं करोड़ों में है और यहां बैठने वाले एजेण्ट्स (दलालों) ने भी अपने ''सब एजेण्ट्स'' पाल रखे हैं। यही नहीं, एआरटीओ के एक कुख्यात क्लर्क का कृपापात्र ''चाय वाला'' भी देखते-देखते पच्चीसों लाख में खेलने लगा और पूरब से काम की तलाश में आये एक बेरोजगार ने शहर की पॉश कॉलोनी में आलीशान मकान एवं दो-दो लग्जरी गाड़ियां खड़ी कर लीं। एक नेता पुत्र का इस कार्यालय में जलवा देखने लायक है जबकि नौकरी के हिसाब से उसकी हैसियत कतई मामूली है।
बेशक इनमें से कुछ लोग कसाब के ड्राइविंग लाइसेंस मामले में आरोपी हैं तथा जेल की हवा खा चुके हैं लेकिन अगर बात करें उनके रैकेट की तो वह पूर्व की भांति बेखौफ अपना काम कर रहा है और इसीलिए अब तक विभिन्न राज्यों की पुलिस का आना-जाना भी लगा रहता है।
नि:संदेह इस रैकेट के शिकार कुछ ऐसे इन्नोसेंट लोग भी बनते हैं जिन्हें नौकरी के लिए आवेदन की अंतिम तिथि के मद्देनजर जल्दबाजी में इनसे लाइसेंस बनवाने पड़ते हैं लेकिन इससे उनका दोष कम नहीं हो जाता क्योंकि कानून-व्यवस्था ''पकड़े जाए वो चोर, बाकी सब साहूकार'' की कहावत पर टिकी है। उसके लिए पहला दोषी वह है जिसे पता तक नहीं कि उसका लाइसेंस फर्जी है या असली और जो इस पूरे खेल का खिलाड़ी है, वह तब तक साहूकार है जब तक उसके खिलाफ कोई ठोस सुबूत नहीं मिल जाता।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ड्राइविंग लाइसेंस बनाने में देशभर में अनियमितताएं बरती जाती हैं लेकिन ''बल्क'' में फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस बनाने का जो खेल मथुरा जैसी विश्व विख्यात धार्मिक नगरी से किया जा रहा है, उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।
घोर आश्चर्य की बात यह है कि मथुरा एआरटीओ से संचालित इस खेल की जानकारी राज्य ही नहीं, केन्द्र के भी हुक्मरानों को भलीभांति है लेकिन आज तक इस पर अंकुश लगाने की कोशिश किसी ने नहीं की।
मथुरा में कृष्ण के काल से बह रही कालिंदी भले ही प्रदूषण की मार से आज अपने अस्तित्व को लेकर जूझ रही हो लेकिन यहां के एआरटीओ में बह रही भ्रष्टाचार की गंगा से अनेक सफेदपोश तृप्त हो रहे हैं। आतंकी अजमल कसाब के फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस मामले को लेकर किये गये स्टिंग ऑपरेशन से कुछ दिनों के लिए ऐसा लगा था कि शायद अब यहां यह काम हमेशा के लिए बंद हो जाए लेकिन जैसे ही उस काण्ड की तपिश कुछ कम हुई, सारा खेल पूरी गति से फिर शुरू हो गया। हाल ही में हरियाणा पुलिस द्वारा दी गई दबिश इसकी पुष्टि करती है।
ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचारी इस देश में भस्मासुर का रूप धारण कर चुके हैं। देश के कथित भाग्य विधाताओं से वरदान प्राप्त कर वह उस मुकाम तक जा पहुंचे हैं जहां अब इन्हें अभयदान देने वाले ही इनसे भयभीत हैं। फिर चाहे वह मथुरा जैसी छोटी जगह हो या फिर उससे कुछ घण्टों की दूरी पर स्थित राष्ट्रीय राजधानी।
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