शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

सरकार 'माया' की या 'मायावियों' की ?














रात के बाद वही रात का घेरा निकला
जुल्‍म के शहर में सूरज भी अंधेरा निकला


ये पंक्‍ितयां किसने तथा किन हालातों में लिखीं थीं, इतना तो मुझे नहीं मालूम लेकिन दुर्भाग्‍य से या इत्‍तेफाक से उत्‍तर प्रदेश के हालातों पर यह एकदम सटीक बैठती हैं।
आज जबकि माया सरकार अपना करीब साढ़े तीन सालों का कार्यकाल पूरा कर चुकी है और अगले विधानसभा चुनावों की सरगर्मियां शुरू हो गई हैं, वह कानून-व्‍यवस्‍था कायम करने की लकीर पीटती नजर आती है। ऐसा लग रहा है जैसे सरकार की मुखिया अपने ही बुने गये उस जाल में कैद होकर रह गई हैं जिसके पीछे उनका मकसद संभवत: कुछ और था। जिस सरकारी मशीनरी पर वह कभी सवार रहती थीं और उनके तीखे तेवर ही उसे संचालित करने के लिए पर्याप्‍त थे, वही मशीनरी अब उन्‍हें गुमराह कर रही है। माया के पास सरकारी मशीनरी की मायावी चालों के लिए कोई काट बची ही नहीं। अब जहां कहीं वो सरकारी मशीनरी पर हावी होने का प्रयास करती दिखाई देती हैं तो साफ महसूस होता है कि उनके तेवर भोंथरे हो चुके हैं। उनकी दहाड़, मिमियाहट में तब्‍दील हो गई है।
बहुजन समाज पार्टी की सरकार से पहले यूपी में मुलायम सिंह के नेतृत्‍व वाली समाजवादी पार्टी की सरकार थी जिसे राष्‍ट्रीय लोकदल का समर्थन प्राप्‍त था। मुलायम सिंह के शासन को विरोधी पार्टियों ने जंगलराज की संज्ञा दे रखी थी। मुलायम सरकार का कार्यकाल पूरा होने पर जब विधानसभा चुनाव होने थे, तब सपा की धुर विरोधी बसपा ने अपना प्रमुख चुनावी मुद्दा प्रदेश में कानून-व्‍यवस्‍था की बदहाली को ही बनाया। बसपा सुप्रीमो मायावती ने लोगों से वादा किया कि यदि उनकी सरकार बनती है तो प्रदेश में वह कानून का राज स्‍थापित करेंगी।
लोगों ने मायावती के इस वायदे पर भरोसा भी किया और उसके परिणाम स्‍वरूप एक लम्‍बे अंतराल के बाद किसी पार्टी को सरकार बनाने के लिए स्‍पष्‍ट बहुमत प्राप्‍त हुआ। मायावती पर आम जनता के इस भरोसे की एक वजह उनकी वह आक्रामक कार्यशैली भी रही जिसका परिचय उन्‍होंने अपने पूर्व के उन शासनकालों में दिया था जब वह ''वैशाखियों के सहारे'' सत्‍ता पर काबिज थीं।
बहुजन समाज पार्टी को स्‍पष्‍ट बहुमत से मिली इस भारी सफलता का श्रेय उनकी टीम द्वारा अपनायी गई ''सोशल इंजीनियरिंग'' की अवधारणा को दिया गया क्‍योंकि पहली मर्तबा सवर्णों ने भी बसपा का खुलकर साथ दिया था।
मायावती भी अपनी इस सफलता से काफी प्रफुल्‍लित थीं और इसीलिए उन्‍होंने सोशल इंजीनियरिंग के सूत्रधार सतीश मिश्रा को अपनी सरकार में भरपूर तवज्‍जो दी।
कुछ दिनों तक ऐसा लगा भी कि मायावती का यह शासन उनके पिछले शासनकालों से अलग साबित होगा और वो प्रदेश में मुकम्‍मल कानून-व्‍यवस्‍था लागू कर पायेंगी लेकिन जल्‍दी ही यह एक भ्रम साबित हुआ।
जनता से स्‍पष्‍ट जनादेश पाने के बावजूद मायावती सरकार समय के साथ दिन-प्रतिदिन कमजोर साबित होती गई नतीजतन हालात न केवल जस के तस रहे बल्‍िक बद से बदतर होते गये।
यहां सवाल यह पैदा होता है कि आखिर ऐसा हुआ क्‍यों और कैसे एक सख्‍त शासक अचानक अशक्‍त शासक बनकर रह गईं। कानून का राज कायम करना क्‍यों इस प्रदेश में इतना कठिन है और कौन से ऐसे कारण हैं जो यहां कानून-व्‍यवस्‍था की बहाली में बाधक बने हुए हैं जबकि सूबे की मुखिया कानून-व्‍यवस्‍था बहाल करना चाहती हैं।
इन प्रश्‍नों के जवाब तलाशना कोई बहुत मुश्‍किल काम नहीं है। सच तो यह है कि यह कोई प्रश्‍न ही नहीं हैं क्‍योंकि इनके उत्‍तर सबको मालूम हैं। बस जरूरत है तो उस इच्‍छाशक्‍ित की जिसके बूते हालातों को बदला जा सकता है लेकिन सत्‍ता पर स्‍थाई कब्‍जा बनाये रखने की महत्‍वाकांक्षा ने इच्‍छाशक्‍ित को कुंद कर दिया है।
पूरा प्रदेश इस समय अपहरण, लूट, बलात्‍कार और हत्‍या जैसे अपराधों से ग्रसित है। अपराधी पूरी तरह निरंकुश हैं। वह जब चाहते हैं और जहां चाहते हैं, वारदात को अंजाम देने में सफल रहते हैं। आंकडों की बाजीगरी में माहिर सरकारी मशीनरी निर्लिप्‍त भाव से सब-कुछ देख रही है जबकि हर अपराध में कहीं न कहीं और किसी न किसी स्‍तर पर उसकी संलिप्‍तता जाहिर है।
तल्‍ख सच्‍चाई यह है कि तमाम बड़े पुलिस व प्रशासनिक अफसर, नेता और बदमाशों का अनैतिक गठजोड़ ही प्रदेश में ऐसे हालात बनाये रखने का जिम्‍मेदार है।
इस गठजोड़ के चलते आपराधिक प्रवृत्‍ति के अधिकारी न सिर्फ मनमानी तैनाती पाते रहते हैं बल्‍िक उस तैनाती के एवज में किये गये खर्च की भरपायी करने को वो अपने संरक्षण में कुख्‍यात बदमाशों से संगीन अपराध कराते हैं।
तमाम पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी ऐसे हैं जिन्‍हें प्रदेश के अपहरण उद्योग का परोक्ष सरगना कहा जा सकता है। यह अपने पद और प्रमुख जनपदों में तैनाती के प्रभाव से बाकायदा गिरोह संचालित करते हैं। इनके गिरोह में एक ओर जहां कुख्‍यात बदमाश शामिल हैं वहीं दूसरी ओर सत्‍ताधारी दल के नेता भी हैं।
इन अत्‍यंत प्रभावशाली तत्‍वों का गठजोड़ अपहरण व लूट जैसे संगीन अपराधों को पहले तो सुनियोजित तरीके से अंजाम देता है और फिर काम पूरा होते ही लीपापोती करने में जुट जाता है।
बात चाहे फिरौती वसूलकर अपह्रत को मुक्‍त कराने की हो या लूट के माल की फर्जी आंशिक बरामदगी दिखाकर सारे माल का बंदरबांट कर लेने की, हर काम में इनकी भूमिका अहम् रहती है।
एक तीर से कई निशाने साधने में पूरी तरह दक्ष ये पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी अपनी तिजोरियां तो भर ही रहे हैं, साथ ही सरकार की गुड बुक में भी बने रहते हैं।
ये पहले तो अपने मास्‍टर माइण्‍ड गुर्गों से अपहरण कराते हैं और फिर पीड़ित परिवार को अपरोक्ष तौर पर फिरौती देने के लिए बाध्‍य करते हैं। उसे समझाते हैं कि उनकी बात पर गौर न करने का परिणाम उनके परिजन की हत्‍या के रूप में भी सामने आ सकता है। जब पीड़ित पक्ष उनकी बात मानने के लिए तैयार हो जाता है तो उसके साथ पूरी सहानुभूति का प्रदर्शन करते हुए मध्‍यस्‍थ की भूमिका निभाते हैं जिससे दोनों हाथ में लड्डू होने की कहावत सार्थक होती है। फिरौती वसूलने के बाद पकड़ को मुक्‍त कराकर पहले से तैयार स्‍क्रिप्‍ट के आधार पर उसे गुडवर्क में तब्‍दील कर दिया जाता है। मीडिया के सामने पीड़ित और उसके परिजनों से ही कहलवाया जाता है कि किस तरह पुलिस के दवाव में बदमाश उसे छोड़ने पर मजबूर हुए।
यही नहीं, इस सारे खेल में कुछ ऐसे बदमाशों को बाकायदा बलि का बकरा बनाया जाता है जो आगे काम आ सकते हों। इसके लिए पहले से तय कहानी में महत्‍वपूर्ण कानूनी खामियां छोड़ी जाती हैं ताकि उनका लाभ कोर्ट से छूटने में उन्‍हें मिल सके।
इस सबसे एक और बहुत बड़ा लाभ हासिल होता है और वह लाभ है असली अपराधियों को पाक-साफ निकाल ले जाने का। उन अपराधियों को जो इन अधिकारियों के लिए काम करते हैं और इनके एक इशारे पर कुछ भी करने को तत्‍पर रहते हैं।
ऐसे एक-दो नहीं अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जिनमें अपह्रत को फिरौती देकर मुक्‍त कराने में पुलिस ने बिचौलिये की भूमिका निभाई है और अपना हिस्‍सा वसूला है। फिर पकड़ छूट जाने पर उसका श्रेय भी लिया है। उत्‍तर प्रदेश में अधिकारी, नेता और बदमाशों का यह अनैतिक गठजोड़ पिछले काफी समय से सक्रिय है और यही कानून-व्‍यवस्‍था को पटरी पर नहीं आने देता। फिर चाहे शासन मुलायम का हो या माया का।
इस गठजोड़ की अहम् कड़ी बने हुए पुलिस अधिकारी आश्‍चर्यजनक रूप से हर सरकार में प्रमुख स्‍थानों पर तैनाती पा लेते हैं और लगातार उन लोगों की आंखों में धूल झोंकते रहते हैं जो सरकार चलाने का दम भरते हैं या फिर सत्‍ता पर काबिज होने का मुगालता पाले रहते हैं।
चुनावों के मद्देनजर इन दिनों प्रदेशभर में चल रहे मायावती के हवाई दौरों की हवा निकलने तथा उनके दौरों के बावजूद कानून-व्‍यवस्‍था में रत्‍तीमात्र सुधार न हो पाने की असल वजह अधिकारी, नेता तथा बदमाशों का यही गठजोड़ है।
अब इसे इनकी योग्‍यता कहें या सरकार की अयोग्‍यता कि यह सूबे की मुखिया सहित समूचे तंत्र की आंखों पर अपना चश्‍मा चढ़ाने में सफल रहते हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि शायद शासन तंत्र वही देखना चाहता है, जो ये उसे दिखाते हैं।
इन हालातों में ऐसी कोई उम्‍मीद भी नहीं की जा सकती कि सरकार बदल जाने से यूपी के हालात बदल जायेंगे। वह तो तभी बदलेंगे जब सरकार के अंग यानि ब्‍यूरोक्रेट्स अपना काम पूरी ईमानदारी, मेहनत व जिम्‍मेदारी से करेंगे। उनमें हालातों से मुकाबला करने तथा कानून का राज कायम कराने के प्रबल इच्‍छाशक्‍ित होगी।
ऐसा नहीं है कि प्रदेश में इस किस्‍म के अधिकारियों की कमी हो या वो काम न करना चाहते हों। सब-कुछ है लेकिन दुर्भाग्‍य से अपराधियों का गठजोड़ ठीक उसी तरह अच्‍छे अफसरों पर प्रभावी है जिस तरह बदबू के सामने खुशबू निष्‍प्रभावी हो जाती है।
जब तक कोई सरकार इस गठजोड़ को तोड़ने का तिलिस्‍मी कारनामा नहीं कर पाती, तब तक सत्‍ता पर काबिज होने वाले लोगों की मात्र सूरतें ही बदलती दिखाई देंगी, सीरत नहीं।
आज मायावती हैं, कल मुलायम थे। आगामी विधानसभा चुनावों के बाद हो सकता है कि कोई तीसरा या कई पार्टियों का गठजोड़ काबिज हो जाय लेकिन जब तक सरकारी मशीनरी से ऐसे तत्‍वों को दरकिनार नहीं किया जाता और ऐसे अधिकारियों को तरजीह नहीं दी जाती जो नेकनीयत से काम करना चाहते हैं, जिनमें कुछ कर दिखाने का जज्‍बा है, जिनमें विपरीत परिस्‍थितियों से जूझने का माद्दा है व अपने काम के प्रति लगन है, तब तक हालात बदलने वाले नहीं। ताश के पत्‍ते फेंट देने भर से जीत हासिल करने की योग्‍यता प्राप्‍त नहीं हो जाती, जीतने के लिए यह जानना भी जरूरी होता है कि कौन सा पत्‍ता कहां इस्‍तेमाल करना है और कब इस्‍तेमाल करना है। कौन सा मोहरा कहां फिट करना है क्‍योंकि सरकारी मशीनरी को ताश के पत्‍ते कहें या शतरंज के मोहरे, काम तो आखिर उन्‍हीं से लेना है।

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