किसी भी देश का भविष्य वहां के युवाओं पर और युवाओं का भविष्य शिक्षा पर टिका होता है। अब सवाल यह पैदा होता है कि जिस देश की समूची शिक्षा व्यवस्था को एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत शिक्षा माफिया ने मात्र अपने आर्थिक लाभ का जरिया बना डाला हो, उस देश का भविष्य क्या होगा? यूं तो जब से शिक्षा व्यवस्था का व्यवसायीकरण हुआ है, तब से पूरे देश में ''शिक्षा'' सिर्फ ''पढ़ाई'' बनकर रह गई है लेकिन फिलहाल यदि हम बात करें केवल कृष्ण की पावन जन्मस्थली का गौरव प्राप्त मथुरा जनपद की तो यहां के शिक्षा व्यवसाइयों ने न केवल छात्र-छात्राओं बल्िक शिक्षा व्यवस्था की ही जड़ में मठ्ठा डालकर उसे नष्ट करने का जैसे अभियान चला रखा है।
हजारों साल का इतिहास अपने अंक में सहेज कर रखने वाली विश्व प्रसिद्ध धार्मिक नगरी मथुरा ने जब समय के साथ करवट ली तो यह तकनीकी शिक्षा का एक हब बन गई। शहर को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तथा ताजनगरी आगरा से जोड़ने वाले नेशनल हाईवे नम्बर दो पर करीब डेढ़ दशक पहले जब इसकी शुरूआत हुई थी तब शायद ही किसी ने सोचा हो कि इतने कम समय में कृष्ण की नगरी के अंदर तकनीकी शिक्षा के व्यवसायिक केन्द्र जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो जायेंगे और मथुरा से आगरा के बीच का सारा नेशनल हाईवे इनसे पट जायेगा।
बहुत समय नहीं बीता जब शिक्षा का प्रचार व प्रसार एक बड़ी समाज सेवा तथा श्रेष्ठ दान कहलाता था और इसलिए समाज के उदारमना लोग इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे परन्तु वक्त के साथ जहां शिक्षक मात्र मास्टर बन गये वहीं शिक्षा देना बाकायदा व्यवसाय में तब्दील हो गया। यहां तक भी काफी कुछ ठीक रहा लेकिन तेजी के साथ हालात बद से बदतर होते गये। आज हाल यह है कि शिक्षक और शिक्षा व्यवसाइयों के अनैतिक गठजोड़ ने शिक्षा माफिया का रूप ले लिया है और वो युवाओं के माध्यम से देश के भविष्य को चौपट करने का घिनौना खेल खेल रहे हैं। जाहिर है कि मथुरा की पावन भूमि को भी तरक्की की अंधी दौड़ में शामिल लोगों ने अपने इस घिनौने खेल का बड़ा मैदान बना लिया है। अब इसमें जितने लोग बाहर के शामिल हैं, उससे कहीं अधिक स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी है।
शिक्षा माफिया द्वारा संचालित इस पूरे खेल को समझने के लिए इन बातों पर ध्यान देना जरूरी है कि मात्र डेढ़ दशक पहले तक किसी विद्यालय की सुचारू व्यवस्था के लिए उसके संचालकों को एक ओर जहां दानदाताओं की मेहरबानी पर निर्भर रहना पड़ता था वहीं दूसरी ओर सरकार से भी वित्तीय मदद की दरकार रहती थी, फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि दानदाताओं व सरकारी मदद के बिना ही आलीशान शिक्षण संस्थाएं खड़ी की जाने लगीं। यही नहीं, इन आलीशान इमारतों का विस्तार भी काफी तेजी के साथ होने लगा। जिन शिक्षा व्यवयाइयों ने एक शिक्षा केन्द्र खोला था, उन्होंने कुछ वर्षों में ही कई-कई केन्द्र खोल लिये। जाहिर है कि विद्यार्थियों से ली जाने वाली फीस के बल पर तो ऐसा कर पाना संभव नहीं है।
यह किस तरह संभव हुआ और क्यों मथुरा जैसे धार्मिक स्थान की पहचान अचानक टैक्नीकल एजुकेशन के हब की बन गई, इसके पीछे एक-दो नहीं अनेक कारण हैं। ये सभी कारण उस भ्रष्ट व्यवस्था से जुड़े हैं जिसने देश की तरक्की को ग्रहण लगा दिया है और जिसकी गूंज आज देश के अंदर तथा बाहर तक सुनाई दे रही है।
समाज का एक बड़ा तबका एडमीशन के लिए डोनेशन के नाम पर ली जाने वाली रिश्वत तथा फीस के स्ट्रक्चर में की जाने वाली हेराफेरी से तो वाकिफ है लेकिन भ्रष्टाचार के दूसरे ऐसे तमाम रूपों से अपरिचित है जो शिक्षा के इन तथाकथित मंदिरों का विस्तार कराने में अहम् भूमिका निभाते हैं।
अभी हम बात करते हैं इसके मात्र एक उस छद्म रूप की, जो प्लेसमेंट की आड़ में छुपा है।
जी हां, प्लेसमेंट। जॉब प्लेसमेंट। 100% जॉब प्लेसमेंट। जिस इंस्टीट्यूट व जिस कॉलेज को देखो, वह अपने यहां एडमीशन लेने वालों को जॉब प्लेसमेंट की गारंटी दे रहा है। कुछ तो ऐसे भी हैं जो इसके लिए लिखित गारंटी तक देने का दावा करते हैं। आखिर कैसे संभव है यह?
जिस देश में एक बड़े से बड़ा ब्यूरोक्रेट और यहां तक कि शासन चलाने वाली विधायिका भी किसी को रोजगार देने की शत-प्रतिशत गारंटी नहीं दे सकते। जहां कोई बड़े से बड़ा उद्योगपति अपनी संतान के भी सफल होने का दावा नहीं कर सकता, वहां सब के सब शिक्षा व्यवसाई कैसे अपने छात्रों को जॉब दिलाने की गारंटी दे रहे हैं। वर्तमान हालातों में जब IIT व IIM से निकलने वाले छात्रों को रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध नहीं हैं, तब कैसे देश तथा विदेश की नामचीन कंपनियों में कोई शिक्षण संस्था अपने छात्रों को नियुक्त कराने का दावा ही नहीं करती बल्िक अखबार उनकी इस उपलब्िध से भरे पड़े रहते हैं। क्या यह संभव है, या यही वो खेल है जिसकी आड़ में शिक्षा माफिया देश का भविष्य कहलाने वाले युवकों को लूटकर अपनी तिजोरियां भर रहा है और शिक्षा व्यवस्था को समूल नष्ट कर देश का भविष्य भी चौपट कर रहा है।
इस पूरे खेल का पता लगाने की कोशिश जब ''लीजेण्ड न्यूज़'' ने की तो इतने चौंकाने वाले कारनामे सामने आये जिसकी कल्पना तक करना आम लोगों के वश की बात नहीं।
इस पूरे खेल की नींव उसी दिन रख दी जाती है जिस दिन कोई स्टुडेंट या उसके अभिभावक शिक्षा माफिया द्वारा प्रचारित शत-प्रतिशत जॉब गारंटी के झांसे में फंसकर उनसे संपर्क स्थापित करते हैं। रही-सही कसर तब पूरी हो जाती है जब वो एडमीशन कराने पर सहमत हो जाते हैं।
दरअसल जॉब प्लेसमेंट के लिए लगभग सभी बड़े व छोटे कॉलेज तथा इंस्टीट्यूट्स और यहां तक कि दो-दो कमरों में चलने वाली विभिन्न शिक्षण संस्थाएं भी अपने स्टुडेंट्स से प्लेसमेंट फीस वसूलती हैं जो 10 से 15 हजार रुपये तक होती है। इस फीस का लिखा-पढ़ी में कोई जिक्र नहीं होता अलबत्ता कुछ शिक्षा व्यवसाई इसकी कच्ची रसीद मांगने पर दे देते हैं जिसका कोई महत्व नहीं होता।
छात्र-छात्राओं से वसूली गई इस अवैध फीस का एक हिस्सा पहले से सेट विभिन्न कंपनियों के एच.आर. यानी ह्यूमेन रिसोर्सेज डिपार्टमेंट के अधिकारी को बतौर रिश्वत भेज दिया जाता है।
उदाहरण के लिए अगर किसी कॉलेज ने किसी कंपनी से अपने 50 स्टुडेंट्स का प्लेसमेंट कराने की सेटिंग की है तो वह प्रति स्टुडेंट 10 हजार रुपये की रिश्वत (कुल 5 लाख रुपये) उस कंपनी के एच. आर. विभाग को भेज देता है। जब उक्त कंपनी के अधिकारी सम्बन्धित शिक्षण संस्था में आने का कार्यक्रम रखते हैं तब एकबार फिर उन छात्र-छात्राओं के अभिभावकों से संपर्क स्थापित किया जाता है जिनसे प्लेसमेंट फीस ले रखी होती है। इस बार उन्हें यह समझाया जाता है कि जिस विश्व स्तरीय कंपनी में आपके बच्चे का प्लेसमेंट होना है वह बॉण्ड के रूप में नकद रकम चाहती है ताकि एक निर्धारित समय तक न तो कंपनी आपके बच्चे को काम से निकाल सके और ना आपका बच्चा काम छोड़ सके।
बॉण्ड की यह रकम जॉब के अनुरूप पचास हजार, लाख, डेढ़ लाख व दो लाख तक हो सकती है। अगर कोई अभिभावक नकद बॉण्ड भरने में आनाकानी करता है या असमर्थता जताता है तो उसे समझाया जाता है कि आपका बच्चा जब पढ़ाई पूरी करके निकलेगा तब भी उसे एक्सपीरिऐंस के बगैर कहीं कोई जॉब मिलने वाला नहीं है।
बेहतर होगा कि आप उसे पढ़ाई के चलते यह अपॉर्चुनिटी दिलवा दें। रही बात आपके द्वारा दिये गये पैसों की तो कंपनी आपके बच्चे को जो वेतन देगी, उसमें आपकी भरपायी हो जायेगी।
अधिकांश अभिभावक शिक्षा माफिया के इस जाल में फंस जाते हैं क्योंकि बात बच्चे के भविष्य की जो होती है। अब इस नकद पर्सनल बॉण्ड का भी बड़ा हिस्सा कंपनी को पहुंचा दिया जाता है और अपना हिस्सा अपने पास रख लिया जाता है।
सब-कुछ तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक चलता है और फिर मीडिया के माध्यम से प्लेसमेंट की बड़ी-बड़ी खबरें मय फोटो छपवायी जाती हैं जिसमें स्टुडेंट के साथ कॉलेज का प्रबंधतंत्र बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है।
उधर प्लेसमेंट करने वाली कंपनी से इस आशय की सेटिंग होती ही है कि वह अपनी कंपनी के निर्धारित प्रशिक्षण काल तक उक्त छात्रों को अपने यहां रखेगी और उसके बाद यदि किसी छात्र में उसकी रुचि है तो परमानेंट करेगी अन्यथा प्रशिक्षण काल के लिए तय मामूली वेतन देकर निकाल देगी।
कुल मिलाकर बॉण्ड के रूप में अभिभावकों द्वारा दी गई नकदी के एक हिस्से को बतौर वेतन उसे देकर कंपनी से निकाल दिया जाता है या ऐसे हालात पैदा कर दिये जाते हैं कि वह खुद-ब-खुद जॉब छोड़कर चल देता है। खुद छोड़कर आने वाले छात्रों को प्रशिक्षण काल का वेतन भी नहीं दिया जाता और बतौर बॉण्ड दी गई नकदी भी डूब जाती है इसलिए अधिकांश छात्र कम से कम वह कार्यकाल तो पूरा करते ही हैं।
छात्रों के साथ चाहे जो हो और अभिभावकों को कुछ भी भुगतना पड़े, शिक्षा माफिया के दोनों हाथों में लड्डू रहते हैं। उन्हें प्लेसमेंट फीस तथा नकद बॉण्ड दोनों से हिस्सा मिल जाता है, साथ ही प्लेसमेंट का नि:शुल्क प्रचार-प्रसार होता है जो उसकी शौहरत में चार-चांद लगाता है।
बेशक इस पूरे खेल के लिए स्टुडेंट्स व उनके परिजन भी कम जिम्मेदार नहीं हैं लेकिन कड़वा सच यह भी है कि शिक्षा माफिया द्वारा बिछाये गये इस जाल से बच पाना आसान नहीं होता क्योंकि भविष्य बनाने की चाह हर किसी को होती है।
यही कारण है कि साल-दो साल में ही लगभग हर शिक्षा माफिया अपना विस्तार करता दिखाई देता है और प्रत्येक शिक्षण संस्थान की इमारत, दूसरी शिक्षण संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा करती नजर आती है।
सच तो यह है कि यह शिक्षण संस्थान न होकर ऐसे व्यावसायिक केन्द्र हैं जो निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए देश के भविष्य पर ही गहरा प्रश्नवाचक चिन्ह अंकित कर रहे हैं लेकिन भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे शासक सब-कुछ जानते व समझते हुए तमाशबीन बने हुए हैं क्योंकि किसी न किसी रूप में इस लूट के माल में उनकी भी हिस्सेदारी है। जिसका विस्तृत ब्यौरा आगे दिया जायेगा।
प्लेसमेंट तो शिक्षा के क्षेत्र में किये जाने वाले घपले का एक पार्ट भर है अन्यथा इससे भी बड़ा घपला स्कॉलरशिप तथा प्रॉस्पेक्टस से लेकर फीस तक और एडमीशन से लेकर पढ़ाई पूरी होने तक तरह-तरह की शक्लों में सामने आता है जिसका विस्तृत ब्यौरा आगे दिया जायेगा।
हजारों साल का इतिहास अपने अंक में सहेज कर रखने वाली विश्व प्रसिद्ध धार्मिक नगरी मथुरा ने जब समय के साथ करवट ली तो यह तकनीकी शिक्षा का एक हब बन गई। शहर को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तथा ताजनगरी आगरा से जोड़ने वाले नेशनल हाईवे नम्बर दो पर करीब डेढ़ दशक पहले जब इसकी शुरूआत हुई थी तब शायद ही किसी ने सोचा हो कि इतने कम समय में कृष्ण की नगरी के अंदर तकनीकी शिक्षा के व्यवसायिक केन्द्र जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो जायेंगे और मथुरा से आगरा के बीच का सारा नेशनल हाईवे इनसे पट जायेगा।
बहुत समय नहीं बीता जब शिक्षा का प्रचार व प्रसार एक बड़ी समाज सेवा तथा श्रेष्ठ दान कहलाता था और इसलिए समाज के उदारमना लोग इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे परन्तु वक्त के साथ जहां शिक्षक मात्र मास्टर बन गये वहीं शिक्षा देना बाकायदा व्यवसाय में तब्दील हो गया। यहां तक भी काफी कुछ ठीक रहा लेकिन तेजी के साथ हालात बद से बदतर होते गये। आज हाल यह है कि शिक्षक और शिक्षा व्यवसाइयों के अनैतिक गठजोड़ ने शिक्षा माफिया का रूप ले लिया है और वो युवाओं के माध्यम से देश के भविष्य को चौपट करने का घिनौना खेल खेल रहे हैं। जाहिर है कि मथुरा की पावन भूमि को भी तरक्की की अंधी दौड़ में शामिल लोगों ने अपने इस घिनौने खेल का बड़ा मैदान बना लिया है। अब इसमें जितने लोग बाहर के शामिल हैं, उससे कहीं अधिक स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी है।
शिक्षा माफिया द्वारा संचालित इस पूरे खेल को समझने के लिए इन बातों पर ध्यान देना जरूरी है कि मात्र डेढ़ दशक पहले तक किसी विद्यालय की सुचारू व्यवस्था के लिए उसके संचालकों को एक ओर जहां दानदाताओं की मेहरबानी पर निर्भर रहना पड़ता था वहीं दूसरी ओर सरकार से भी वित्तीय मदद की दरकार रहती थी, फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि दानदाताओं व सरकारी मदद के बिना ही आलीशान शिक्षण संस्थाएं खड़ी की जाने लगीं। यही नहीं, इन आलीशान इमारतों का विस्तार भी काफी तेजी के साथ होने लगा। जिन शिक्षा व्यवयाइयों ने एक शिक्षा केन्द्र खोला था, उन्होंने कुछ वर्षों में ही कई-कई केन्द्र खोल लिये। जाहिर है कि विद्यार्थियों से ली जाने वाली फीस के बल पर तो ऐसा कर पाना संभव नहीं है।
यह किस तरह संभव हुआ और क्यों मथुरा जैसे धार्मिक स्थान की पहचान अचानक टैक्नीकल एजुकेशन के हब की बन गई, इसके पीछे एक-दो नहीं अनेक कारण हैं। ये सभी कारण उस भ्रष्ट व्यवस्था से जुड़े हैं जिसने देश की तरक्की को ग्रहण लगा दिया है और जिसकी गूंज आज देश के अंदर तथा बाहर तक सुनाई दे रही है।
समाज का एक बड़ा तबका एडमीशन के लिए डोनेशन के नाम पर ली जाने वाली रिश्वत तथा फीस के स्ट्रक्चर में की जाने वाली हेराफेरी से तो वाकिफ है लेकिन भ्रष्टाचार के दूसरे ऐसे तमाम रूपों से अपरिचित है जो शिक्षा के इन तथाकथित मंदिरों का विस्तार कराने में अहम् भूमिका निभाते हैं।
अभी हम बात करते हैं इसके मात्र एक उस छद्म रूप की, जो प्लेसमेंट की आड़ में छुपा है।
जी हां, प्लेसमेंट। जॉब प्लेसमेंट। 100% जॉब प्लेसमेंट। जिस इंस्टीट्यूट व जिस कॉलेज को देखो, वह अपने यहां एडमीशन लेने वालों को जॉब प्लेसमेंट की गारंटी दे रहा है। कुछ तो ऐसे भी हैं जो इसके लिए लिखित गारंटी तक देने का दावा करते हैं। आखिर कैसे संभव है यह?
जिस देश में एक बड़े से बड़ा ब्यूरोक्रेट और यहां तक कि शासन चलाने वाली विधायिका भी किसी को रोजगार देने की शत-प्रतिशत गारंटी नहीं दे सकते। जहां कोई बड़े से बड़ा उद्योगपति अपनी संतान के भी सफल होने का दावा नहीं कर सकता, वहां सब के सब शिक्षा व्यवसाई कैसे अपने छात्रों को जॉब दिलाने की गारंटी दे रहे हैं। वर्तमान हालातों में जब IIT व IIM से निकलने वाले छात्रों को रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध नहीं हैं, तब कैसे देश तथा विदेश की नामचीन कंपनियों में कोई शिक्षण संस्था अपने छात्रों को नियुक्त कराने का दावा ही नहीं करती बल्िक अखबार उनकी इस उपलब्िध से भरे पड़े रहते हैं। क्या यह संभव है, या यही वो खेल है जिसकी आड़ में शिक्षा माफिया देश का भविष्य कहलाने वाले युवकों को लूटकर अपनी तिजोरियां भर रहा है और शिक्षा व्यवस्था को समूल नष्ट कर देश का भविष्य भी चौपट कर रहा है।
इस पूरे खेल का पता लगाने की कोशिश जब ''लीजेण्ड न्यूज़'' ने की तो इतने चौंकाने वाले कारनामे सामने आये जिसकी कल्पना तक करना आम लोगों के वश की बात नहीं।
इस पूरे खेल की नींव उसी दिन रख दी जाती है जिस दिन कोई स्टुडेंट या उसके अभिभावक शिक्षा माफिया द्वारा प्रचारित शत-प्रतिशत जॉब गारंटी के झांसे में फंसकर उनसे संपर्क स्थापित करते हैं। रही-सही कसर तब पूरी हो जाती है जब वो एडमीशन कराने पर सहमत हो जाते हैं।
दरअसल जॉब प्लेसमेंट के लिए लगभग सभी बड़े व छोटे कॉलेज तथा इंस्टीट्यूट्स और यहां तक कि दो-दो कमरों में चलने वाली विभिन्न शिक्षण संस्थाएं भी अपने स्टुडेंट्स से प्लेसमेंट फीस वसूलती हैं जो 10 से 15 हजार रुपये तक होती है। इस फीस का लिखा-पढ़ी में कोई जिक्र नहीं होता अलबत्ता कुछ शिक्षा व्यवसाई इसकी कच्ची रसीद मांगने पर दे देते हैं जिसका कोई महत्व नहीं होता।
छात्र-छात्राओं से वसूली गई इस अवैध फीस का एक हिस्सा पहले से सेट विभिन्न कंपनियों के एच.आर. यानी ह्यूमेन रिसोर्सेज डिपार्टमेंट के अधिकारी को बतौर रिश्वत भेज दिया जाता है।
उदाहरण के लिए अगर किसी कॉलेज ने किसी कंपनी से अपने 50 स्टुडेंट्स का प्लेसमेंट कराने की सेटिंग की है तो वह प्रति स्टुडेंट 10 हजार रुपये की रिश्वत (कुल 5 लाख रुपये) उस कंपनी के एच. आर. विभाग को भेज देता है। जब उक्त कंपनी के अधिकारी सम्बन्धित शिक्षण संस्था में आने का कार्यक्रम रखते हैं तब एकबार फिर उन छात्र-छात्राओं के अभिभावकों से संपर्क स्थापित किया जाता है जिनसे प्लेसमेंट फीस ले रखी होती है। इस बार उन्हें यह समझाया जाता है कि जिस विश्व स्तरीय कंपनी में आपके बच्चे का प्लेसमेंट होना है वह बॉण्ड के रूप में नकद रकम चाहती है ताकि एक निर्धारित समय तक न तो कंपनी आपके बच्चे को काम से निकाल सके और ना आपका बच्चा काम छोड़ सके।
बॉण्ड की यह रकम जॉब के अनुरूप पचास हजार, लाख, डेढ़ लाख व दो लाख तक हो सकती है। अगर कोई अभिभावक नकद बॉण्ड भरने में आनाकानी करता है या असमर्थता जताता है तो उसे समझाया जाता है कि आपका बच्चा जब पढ़ाई पूरी करके निकलेगा तब भी उसे एक्सपीरिऐंस के बगैर कहीं कोई जॉब मिलने वाला नहीं है।
बेहतर होगा कि आप उसे पढ़ाई के चलते यह अपॉर्चुनिटी दिलवा दें। रही बात आपके द्वारा दिये गये पैसों की तो कंपनी आपके बच्चे को जो वेतन देगी, उसमें आपकी भरपायी हो जायेगी।
अधिकांश अभिभावक शिक्षा माफिया के इस जाल में फंस जाते हैं क्योंकि बात बच्चे के भविष्य की जो होती है। अब इस नकद पर्सनल बॉण्ड का भी बड़ा हिस्सा कंपनी को पहुंचा दिया जाता है और अपना हिस्सा अपने पास रख लिया जाता है।
सब-कुछ तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक चलता है और फिर मीडिया के माध्यम से प्लेसमेंट की बड़ी-बड़ी खबरें मय फोटो छपवायी जाती हैं जिसमें स्टुडेंट के साथ कॉलेज का प्रबंधतंत्र बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है।
उधर प्लेसमेंट करने वाली कंपनी से इस आशय की सेटिंग होती ही है कि वह अपनी कंपनी के निर्धारित प्रशिक्षण काल तक उक्त छात्रों को अपने यहां रखेगी और उसके बाद यदि किसी छात्र में उसकी रुचि है तो परमानेंट करेगी अन्यथा प्रशिक्षण काल के लिए तय मामूली वेतन देकर निकाल देगी।
कुल मिलाकर बॉण्ड के रूप में अभिभावकों द्वारा दी गई नकदी के एक हिस्से को बतौर वेतन उसे देकर कंपनी से निकाल दिया जाता है या ऐसे हालात पैदा कर दिये जाते हैं कि वह खुद-ब-खुद जॉब छोड़कर चल देता है। खुद छोड़कर आने वाले छात्रों को प्रशिक्षण काल का वेतन भी नहीं दिया जाता और बतौर बॉण्ड दी गई नकदी भी डूब जाती है इसलिए अधिकांश छात्र कम से कम वह कार्यकाल तो पूरा करते ही हैं।
छात्रों के साथ चाहे जो हो और अभिभावकों को कुछ भी भुगतना पड़े, शिक्षा माफिया के दोनों हाथों में लड्डू रहते हैं। उन्हें प्लेसमेंट फीस तथा नकद बॉण्ड दोनों से हिस्सा मिल जाता है, साथ ही प्लेसमेंट का नि:शुल्क प्रचार-प्रसार होता है जो उसकी शौहरत में चार-चांद लगाता है।
बेशक इस पूरे खेल के लिए स्टुडेंट्स व उनके परिजन भी कम जिम्मेदार नहीं हैं लेकिन कड़वा सच यह भी है कि शिक्षा माफिया द्वारा बिछाये गये इस जाल से बच पाना आसान नहीं होता क्योंकि भविष्य बनाने की चाह हर किसी को होती है।
यही कारण है कि साल-दो साल में ही लगभग हर शिक्षा माफिया अपना विस्तार करता दिखाई देता है और प्रत्येक शिक्षण संस्थान की इमारत, दूसरी शिक्षण संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा करती नजर आती है।
सच तो यह है कि यह शिक्षण संस्थान न होकर ऐसे व्यावसायिक केन्द्र हैं जो निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए देश के भविष्य पर ही गहरा प्रश्नवाचक चिन्ह अंकित कर रहे हैं लेकिन भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे शासक सब-कुछ जानते व समझते हुए तमाशबीन बने हुए हैं क्योंकि किसी न किसी रूप में इस लूट के माल में उनकी भी हिस्सेदारी है। जिसका विस्तृत ब्यौरा आगे दिया जायेगा।
प्लेसमेंट तो शिक्षा के क्षेत्र में किये जाने वाले घपले का एक पार्ट भर है अन्यथा इससे भी बड़ा घपला स्कॉलरशिप तथा प्रॉस्पेक्टस से लेकर फीस तक और एडमीशन से लेकर पढ़ाई पूरी होने तक तरह-तरह की शक्लों में सामने आता है जिसका विस्तृत ब्यौरा आगे दिया जायेगा।
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