जले पर नमक छिड़कने की कला
आतंकवादियों की यह कार्यवाही घृणित है। मेरी सहानुभूति विस्फोट में जान गंवाने वाले लोगों के परिजनों से है। मैं अस्पताल में इलाज करा रहे घायलों के शीघ्र स्वस्थ्य होने की कामना करती हूँ।
-प्रतिभा देवीसिंह पाटिल (राष्ट्रपति) ।
हमारी सुरक्षा व्यवस्था में खामी है। इसका आतंकी फायदा उठा रहे हैं। मैं इस घटना में मारे गये लोगों के परिजनों और घायलों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करता हूं। यह एक कायरतापूर्ण आतंकी घटना थी। हम कभी भी आतंकवाद के आगे घुटने नहीं टेकेंगे बल्िक उसका उचित तरीके से जवाब देंगे।
-मनमोहन सिंह (प्रधानमंत्री) ।
कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि आगे से आतंकी हमले नहीं होंगे। भारत आंतकियों के निशाने पर है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान भारत के पड़ोसी देश हैं। ऐसे में आतंक का खतरा हमेशा बना रहता है। आतंकी घटनाएं रोकने में राज्यों की भी अहम भूमिका होती है।
-पी. चिदम्बरम (केन्द्रीय गृहमंत्री) ।
भारतीय जनता बम धमाकों की आदी हो गई है। आतंकवादी हमले जीवनशैली में रच बस गए हैं।
-सुबोधकांत सहाय (केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री)।
ये वो बयान हैं जो दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर 7 सितम्बर की सुबह आतंकियों द्वारा किये गये बम विस्फोट के बाद राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री तथा खाद्य प्रसंस्करण मंत्री ने दिये। इस ब्लास्ट में 12 लोगों की जान चली गई तथा सौ से अधिक घायल हुए।
इससे पूर्व मुम्बई में आतंकियों द्वारा किये गये बम धमाके के बाद केन्दीय गृहमंत्री का बयान आया था कि इसे खुफिया एजेंसियों की असफलता नहीं माना जा सकता।
दूसरी ओर कांग्रेस के युवराज व महासचिव राहुल गांधी ने तो तभी यह कह दिया था कि सब आतंकी हमले रोक पाना संभव नहीं है। आज उन्हीं के शब्दों को चिदम्बरम साहब कुछ यूं दोहरा रहे हैं- 'इस आशय का दावा कोई नहीं कर सकता कि आगे आतंकी हमले नहीं होंगे'।
सोनिया जी विदेश से सर्जरी करवा कर लौटीं तो उन्होंने भी बम विस्फोट में मारे गये लोगों व उनके परिजनों के प्रति दुख व्यक्त करने की रस्म अदा कर डाली।
जरा गौर कीजिये सत्ताधारी दल के इन नेताओं की भाषा शैली पर। क्या ऐसा नहीं लगता कि देश के सभी माननीयों को पद व गोपनीयता की शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद पहले से छपी एक स्क्रिप्ट पकड़ा दी जाती हो ताकि वह उसका वक्त पर इस्तेमाल कर सकें और जिससे किसी किस्म की कोई कंट्रोवर्सी पैदा न हो। यानि पूरा अमला सुर में सुर मिलाये लेकिन ऐसा प्रतीत न हो।
कुछ-कुछ उस तरह जैसे प्रत्येक सत्ताधारी पार्टी चाहे वह किसी राज्य पर काबिज हो अथवा केन्द्र में, अपने मंत्रियों व पदाधिकारियों से एडवांस में त्यागपत्र लिखवा लेती है जिससे समय पर उसका इस्तेमाल किया जा सके लेकिन कहा यह जाता है कि फलां मंत्री ने त्यागपत्र दे दिया।
बेशक महामहिम राष्ट्रपति को किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं माना जाता लेकिन हकीकत सब जानते हैं क्योंकि उनकी स्क्रिप्ट भी सत्ता पर काबिज पार्टी द्वारा ही लिखी जाती है लिहाजा वक्त जरूरत जब उनके बयान आते हैं तो सत्ता की भाषा निकलना स्वाभाविक होता है।
यह तो रही बयानों की बात। अब बात करते हैं उस व्यवस्था की जिसके माध्यम से हमारा तंत्र काम करता है।
इस व्यवस्था के अनुसार किसी भी विभाग का मुखिया अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकता और यदि वह ऐसा करता है अथवा करने का प्रयास भी करता है तो वह न सिर्फ सरकारी सेवा शर्तों के उल्लंघन का दोषी माना जाता है बल्िक उसे पद के अयोग्य मानते हुए तत्काल प्रभाव से पदमुक्त कर दिया जाता है क्यों कि उसे वेतन-भत्तों से लेकर समस्त सुविधाएं तथा रुतबा इसीलिए मुहैया कराया जाता है।
आश्चर्यजनक रूप से यह बात सरकार कहलाने वाले माननीयों पर लागू नहीं होती अत: वह गैरजिम्मेदाराना बयान देने के लिए अधिकृत हो जाते हैं।
विचार करिये कि कानून-व्यवस्था की बहाली में रीढ़ की हड्डी कहलाने वाला पुलिस का कोई दरोगा अगर यह कहने लगे कि वह न तो सारे अपराध रोक सकता है और न सभी अपराधियों को पकड़ सकता है तो क्या होगा। क्या उसे उसका महकमा माफ कर पायेगा। क्या उसे उसका बॉस कोई जिम्मेदारी देगा।
सीमा पर तैनात सेना के जवान और अफसर यदि कहें कि वह समस्त सीमा की चौकसी नहीं कर सकते। कुछ हिस्सा तो छूट ही सकता है। तब क्या होगा। क्या देश सुरक्षित रह पायेगा।
यही लोग क्यों, किसी भी विभाग का कोई कर्मचारी ऐसी बात कह सकता है क्या। और यदि वह कहता है तो उसका अपराध अक्षम्य माना जायेगा क्या। शायद नहीं, क्योंकि कोई सरकारी मुलाजिम अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हो सकता। उसकी सेवा शर्तें उसे इसकी इजाजत नहीं देतीं। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी नहीं क्योंकि हर हाल में उन्हें जनता का भरोसा बनाये रखना होता है। उन्हीं के सहारे देश चलता है और उन्हीं से वो व्यवस्थाएं संचालित होती हैं जिन्हें तंत्र कहते हैं।
अब सवाल यह पैदा होता है कि जब कोई छोटे से छोटा सरकारी मुलाजिम अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता तो सरकार कैसे बच सकती है। प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक और मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों तक पर यह नियम लागू क्यों नहीं होता।
जिस देश के प्रधानमंत्री व गृहमंत्री अपने यहां आये दिन होने वाली आतंकी वारदातों पर ऐसा बयान दें, वह देश कितने दिन सुरक्षित रहेगा इसका अंदाज सहज लगाया जा सकता है।
ताज्जुब तो इस बात पर होता है कि सरकार के मंत्री लगातार गैरजिम्मेदाराना बयान देकर भी सत्तासुख भोग रहे हैं। प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री महंगाई रोक पाने में खुद को असहाय बताते हैं, प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक आतंकी वारदातों को रोक पाने में अक्षम साबित हो रहे हैं और इसका प्रचार भी करते हैं लेकिन उनका कुछ नहीं बिगड़ता। ऐसा क्यों ?
यदि किसी थानेदार को उसके इलाके में गंभीर आपराधिक वारदात होने पर हटा दिया जाता है, बड़ा उपद्रव होने पर जिले के डीएम व एसएसपी तक को पदावनत किया जा सकता है, तो अपनी जिम्मेदारी न निभा पाने वाले तथा अक्षम मंत्रियों को क्यों नहीं हटाया जाता। क्यों वह देश तथा देशवासियों से खिलवाड़ करने को स्वतंत्र हैं।
सवा अरब की आबादी वाले देश में दर्जन-दो दर्जन लोगों का मारा जाना संख्या की दृष्टि से शायद कोई अहमियत न रखता हो परन्तु जिस परिवार का कोई व्यक्ित इस तरह अकाल मौत का शिकार होता है, उसकी अहमियत उसके आश्रित ही समझ पाते हैं। उन पर टूटने वाले दुख के पहाड़ का अंदाज सत्ता सुख भोग रहे लोग लगा भी कैसे सकते हैं।
पहले इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की त्रासद मौत के बाद शासन ने प्रत्येक पूर्व व वर्तमान प्रधानमंत्रियों एवं उनके परिजनों तक की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम कर दिया लेकिन मुंबई पर हुए हमले से कोई सबक नहीं सीखा जिसका खामियाजा निर्दोष जनता लगातार भुगत रही है।
जिस लोक के लिए मजबूत व सुरक्षित तंत्र संचालित करने के नाम पर हमारे माननीय ऐश कर रहे हैं और लोकतंत्र की आड़ में राजा-महाराजाओं सा जीवन जी रहे हैं, उसके प्रति उनकी क्या कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।
क्या वह कभी भी और कुछ भी बोलने को स्वतंत्र हैं और उनकी अक्षमता व निर्लज्जता का तमाशा ऐसे ही देखा जाता रहेगा।
इन प्रश्नों का जवाब फिलहाल भले ही ना सूझ रहा हो लेकिन जल्द ही नजर आयेगा। वह किस रूप में सामने होगा, यह बता पाना अभी संभव न सही लेकिन यह कहना संभव है कि अति हर बात की बुरी होती है और जब अति हो जाती है तो उसका इंतजाम भी किसी न किसी तरह होता ही है। जनता को भी संभवत: इंतजार है सही समय का, सही मौके का। उस मौके का जब वह इन सारे बयानों का और सरकार की असंवेदनशीलता का माकूल जवाब दे पायेगी।
जनता जान चुकी है कि असली गुनाहगार कौन हैं। उसे अहसास हो चुका है कि निर्दोष लोगों की अकाल मौत के जितने जिम्मेदार आतंकवादी हैं, उतने ही वह लोग भी हैं जो ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने की बजाय बेशर्मी के साथ जले पर नमक छिड़कने का काम कर रहे हैं। उनकी सहानुभूति तक रटे-रटाये शब्दों में सिमट कर रह गई है। तभी तो चेहरे व पद चाहे कोई हो लेकिन सहानुभूति के शब्द एक जैसे होते हैं।
नेताओं की इस फितरत पर याद आता है नरेन्द्र वशिष्ठ का यह शेर-
नाग जब लोगों को डसकर हो गया नजरों से दूर।
बीन लेकर शहर में कितने सपेरे आ गये।।
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