गुरुवार, 28 जून 2012

नेहरू की विरासत को समर्पित ....''जब जनता की सहनशक्‍ित जवाब दे....

आज कुछ लिखने से पहले मैं आपको यह बता देना चाहता हूं कि ना तो मैं निराशावादी हूं और ना ही किसी राजनीतिक दल या उसके किसी नेता विशेष से मेरा लगाव है।
मैं खालिस पत्रकार हूं और उस नाते हर वक्‍त देश, समाज और आम नागरिक की तकलीफों के बावत सोचता रहता हूं।
बेशक आज पत्रकारिता भी ऐसे रास्‍ते पर चल पड़ी है, जहां आम लोगों का भरोसा उसके ऊपर से उठने लगा है लेकिन उम्‍मीद अभी बाकी है।
इस उम्‍मीद को जिंदा रखने के लिए पत्रकारों के ही स्‍तर से यथासंभव कोशिश की भी जा रही है लेकिन समस्‍या यह है कि उनकी कोशिश फिलहाल नक्‍कारखाने में तूती की आवाज बनी हुई है।
देश इस समय एक भयावह दौर से गुजर रहा है। निजी समस्‍याओं के बीच आर्थिक स्‍टेटस मेंटेन रखने की जद्दोजहद ने यूं तो लोगों को देश व समाज से लगभग काट कर रख दिया है लेकिन जब कभी वह देश के
वर्तमान हालातों पर सोचता है तो चारों ओर शून्‍य के अलावा कुछ नजर नहीं आता।
इसमें कोई दो राय नहीं कि देश की यह दुर्दशा साल-दो साल में नहीं हुई और ना कोई एक पार्टी इसके लिए जिम्‍मेदार है। यह एक लम्‍बे समय से घुन की तरह देश को लगातार खोखला करते रहने का परिणाम है जो अब विकराल रूप में सामने आ खड़ा हुआ है।
भ्रष्‍टाचार, महंगाई, जातिवाद, भाई-भतीजावाद जैसे देश को गर्त में ले जाने वाले कारक राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की  सत्‍ता लोलुपता तथा अकूत संपत्‍ति हासिल करने की हवस से उपजे हैं।
आम आदमी के लिए 26 रुपये रोज की कमाई पर्याप्‍त बताने वाले नेता लाखों करोड़ का घपला कर रहे हैं और फिर भी बेशर्मी से कहते हैं कि वह निर्दोष हैं।
अपनी ऐश-मौज में कमी करना तो दूर, उनमें सर्वसम्‍मति से लगातार इजाफा करके आम जनता के जले पर पेट्रोल व महंगाई का नमक छिड़कने वाली सरकार कहती है कि सारी समस्‍याओं के पीछे विश्‍वव्‍यापी मंदी है। उसके पास कोई ऐसी जादुई छड़ी नहीं है जिससे हालात बदले जा सकें।
दरअसल कांग्रेस के नेतृत्‍व वाली केन्‍द्र सरकार यह समझ बैठी है कि देश उसकी निजी जागीर है और इसलिए उसे सत्‍ता से कभी कोई बेदखल नहीं कर सकता।
नि:संदेह कांग्रेस की इस सोच का कारण देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा का बेदम हो जाना है लेकिन इतिहास गवाह है कि वक्‍त की कोख से विकल्‍प पैदा होते रहे हैं और ऐसे विकल्‍पों की भविष्‍यवाणी कोई नहीं
कर सकता।
भविष्‍य के गर्भ में क्‍या छिपा है और स्‍वतंत्र भारत का आम नागरिक कब यह महसूस कर पायेगा कि देश पर फिरंगियों की कार्बन कॉपी नहीं देश का ही कोई नेता काबिज है, यह बता पाना तो संभव नहीं अलबत्‍ता
इतना जरूर कहा जा  सकता है कि आमजन की सहनशक्‍ित जवाब देने लगी है।
नेहरू की राजनीतिक विरासत को राजाओं की तरह भोगने वाले उनके तथाकथित उत्‍तराधिकारी और उनकी पार्टी के वो लोग जो खुद को देश व देश की जनता का भाग्‍य विधाता समझ बैठे हैं, शायद ''नेहरू एक जीवनी'' में उद्धृत शब्‍दों का मर्म समय रहते समझ सकें।
''नेहरू एक जीवनी'' में लिखी इन दो बातों से मैं अपनी बात भी खत्‍म करता हूं, जो इस प्रकार हैं-
''जो सत्‍ता हमारी उपेक्षा करती है और हमारे साथ घृणा का बर्ताव करती है, उसके सामने दबना तथा उसी से अपील करना बेहद शर्मनाक है।''
''जब जनता की सहनशक्‍ित जवाब दे जाती है तब उसके क्रोध से ज्‍यादा पवित्र, न्‍यायसंगत और भयंकर कुछ नहीं होता।''

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