मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि भारत
तब अधिक गौरवशाली था जब गरीबी के बावजूद उसकी सांस्कृतिक समृद्धि का सारी
दुनिया लोहा मानती थी या आज अधिक गौरवशाली है जब उसकी गिनती विश्व के
भ्रष्टतम देशों में की जाती है ?
कुछ समय पहले तक भारत को सपेरों और साधु-सन्यासियों का देश कहा जाता था । गरीब देश कहा जाता था । नेता कहते हैं कि भारत ने बहुत तरक्की की है । अब दुनिया का कोई देश भारत को सपेरों का देश नहीं कहता ।
गरीब देश कहता है या नहीं, इस बारे में नेता कुछ नहीं कहते। कहना भी नहीं चाहते क्योंकि जब योजना आयोग के अनुसार 26 या 32 रु. हर रोज कमाने वाला गरीब नहीं है, तो तय है कि अब कोई गरीब भी नहीं रहा लिहाजा उसकी चर्चा करना बेमानी है ।
देश की तरक्की को लेकर नेताओं द्वारा गढ़ी गई इस कहानी में कितना दम है, इसका तो मुझे पूरा इल्म नहीं लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि नेताओं ने बहुत तरक्की की है।
मुझे लगता है कि अब कोई भारत को साधु-सन्यासियों का देश भी नहीं कहता होगा क्योंकि यहां के साधु-संन्यासियों ने हर क्षेत्र में नेताओं से कम तरक्की नहीं की है ।
कृपालु महाराज, उनके शिष्य प्रकाशानंद, निर्मल बाबा, नित्यानंद स्वामी तथा राधे मां से लेकर भीमानंद तक एक लंबी सूची है ऐसे बाबाओं की जिन्होंने अपने देश का नाम तमाम कारणों से विश्वभर में रौशन किया है । जाहिर है कि ये वो कारण नहीं जो भारत को साधु-सन्यासियों का देश कहलवाते थे।
भारत के बाबाओं की अकूत संपत्ति भी अक्सर उसी तरह चर्चा का विषय रहती है जिस तरह नेताओं की संपत्ति के चर्चे होते हैं । सोनिया गांधी जिन प्रमुख कारणों से चर्चा में हैं उनमें से एक है उनका विश्व के सर्वाधिक धनवान नेताओं में शुमार किया जाना ।
बाबा रामदेव भी योगगुरू से कहीं अधिक अपनी बेशुमार संपत्ति के कारण पहचाने जाने लगे हैं।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भारत की तरक्की या तो नेताओं की तरक्की में निहित है या फिर किस्म-किस्म के बाबाओं की तरक्की में ।
फिलहाल भारत और भी कई कारणों से चर्चा में है।
उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को टाइम मेग्जीन द्वारा अंडर अचीवर बताया जाना। उसका यह लिखना कि प्रधानमंत्री शिथिल हैं और सरकार को पर्दे के पीछे से कोई और यानी सोनिया गांधी चला रही हैं।
गृहमंत्री पी चिदम्बरम का यह कहकर देश की तरक्की को रेखांकित करना कि 'हम' 15 रु. मिनरल वाटर की एक बोतल पर तथा 20 रु. आइसक्रीम के कोन पर खर्च करते वक्त कुछ नहीं कहते लेकिन गेहूं या चावल की कीमतों में एक रु. बढ़ जाता है तो शोर मचाने लगते हैं।
अब यहां कुछ सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। पहला सवाल तो यही है कि जिस तरह की तरक्की देश या यूं कहें कि नेता कर रहे हैं, क्या उस पर फ़क्र किया जाना चाहिए ?
कॉमन वेल्थ गेम घोटाला, 2जी घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, कोयला घोटाला, नरेगा घोटाला और रक्षा सौदों में होने वाले घोटाले। क्या यह देश की तरक्की का सबब हैं ?
क्या देश की जनता को वाकई इस बात पर अभिमान करना चाहिए कि उनका प्रधानमंत्री एक ऐसा शख्स है जिसके डेढ़ दर्जन मंत्रियों के ऊपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं ?
क्या देश की जनता को खुश होना चाहिए कि भ्रष्टाचार की बात होते ही सरकार कहती है कि उसके मूल में वो नीतियां हैं जो सत्ता में रहते विपक्षी दल ने बनाई थीं ?
क्या जनता को यह पूछने का हक है कि उन नीतियों के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ सरकार ने क्या कार्यवाही अब तक की और क्या करने जा रही है ?
क्या कोई जान सकता है कि सीबीआई ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर बसपा सुप्रीमो मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का केस कैसे रजिस्टर्ड कर लिया और क्यों देश के सर्वोच्च न्यायालय को यह जानने में नौ साल का समय लग गया ?
अनेक ऐसे सवाल हैं और अनेक रोज पैदा हो रहे हैं लेकिन जवाब किसी का नहीं। जब जवाबदेही ही नहीं, तो जवाब देगा भी कौन।
देश के कानून मंत्री कहते हैं कि पार्टी में दिशाहीनता की स्थिति है, राहुल गांधी बड़ी जिम्मेदारी लेने से बच रहे हैं।
सच तो यह है कि केन्द्र सरकार दिशाहीनता की नहीं आत्ममुग्धता की शिकार है। सुपीरियेरिटी कॉम्लेक्स के शिकार हैं अधिकांश मंत्री और नेता। उन्हें संभवत: यह लगने लगा है कि सत्ता उन्हें कुल पांच सालों के लिए नहीं, हमेशा-हमेशा के लिए मिली है। उन्हें नहीं पता कि इन पांच सालों में से तीन साल उनके हाथ से फिसल चुके हैं । जरूरी नहीं कि अगले चुनाव 2014 में ही हों। हालात और परिस्थितियां बार-बार ऐसे संकेत दे रही हैं कि चुनाव होना इससे पहले भी संभव है।
सरकार ने न तो विगत माह हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से कोई सबक सीखा और ना जनता में व्याप्त आक्रोश से कुछ सीखना चाहती है।
देश की जनता खुश नहीं है। दुश्मनों से हम घिरे हुए हैं। आतंकवादियों के हम सॉफ्ट टार्गेट हैं। विदेश नीति फेल है और रुपया रसातल में है। फिर भी सरकार कहती है कि देश तरक्की कर रहा है। नेता कहते हैं कि अब भारत को कोई सपेरों का देश नहीं कहता।
अब सबसे बड़ा और आखिरी सवाल यह है कि भ्रष्टाचारी, अकर्मण्य, निष्क्रिय, कमजोर तथा दिशाहीन नेतृत्व का मुल्क कहलवाना ज्यादा अच्छा है या फिर सपेरों, साधु-सन्यासियों अथवा गरीबों का देश कहलवाना ?
मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि भारत तब अधिक गौरवशाली था जब गरीबी के बावजूद उसकी सांस्कृतिक समृद्धि का सारी दुनिया लोहा मानती थी या आज अधिक गौरवशाली है जब उसकी गिनती विश्व के भ्रष्टतम देशों में की जाती है ?
आपकी समझ में आये तो जरूर लिखना ताकि मैं भी आत्ममुग्धता से उपजे अहंकार का शिकार न बनूं।
कुछ समय पहले तक भारत को सपेरों और साधु-सन्यासियों का देश कहा जाता था । गरीब देश कहा जाता था । नेता कहते हैं कि भारत ने बहुत तरक्की की है । अब दुनिया का कोई देश भारत को सपेरों का देश नहीं कहता ।
गरीब देश कहता है या नहीं, इस बारे में नेता कुछ नहीं कहते। कहना भी नहीं चाहते क्योंकि जब योजना आयोग के अनुसार 26 या 32 रु. हर रोज कमाने वाला गरीब नहीं है, तो तय है कि अब कोई गरीब भी नहीं रहा लिहाजा उसकी चर्चा करना बेमानी है ।
देश की तरक्की को लेकर नेताओं द्वारा गढ़ी गई इस कहानी में कितना दम है, इसका तो मुझे पूरा इल्म नहीं लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि नेताओं ने बहुत तरक्की की है।
मुझे लगता है कि अब कोई भारत को साधु-सन्यासियों का देश भी नहीं कहता होगा क्योंकि यहां के साधु-संन्यासियों ने हर क्षेत्र में नेताओं से कम तरक्की नहीं की है ।
कृपालु महाराज, उनके शिष्य प्रकाशानंद, निर्मल बाबा, नित्यानंद स्वामी तथा राधे मां से लेकर भीमानंद तक एक लंबी सूची है ऐसे बाबाओं की जिन्होंने अपने देश का नाम तमाम कारणों से विश्वभर में रौशन किया है । जाहिर है कि ये वो कारण नहीं जो भारत को साधु-सन्यासियों का देश कहलवाते थे।
भारत के बाबाओं की अकूत संपत्ति भी अक्सर उसी तरह चर्चा का विषय रहती है जिस तरह नेताओं की संपत्ति के चर्चे होते हैं । सोनिया गांधी जिन प्रमुख कारणों से चर्चा में हैं उनमें से एक है उनका विश्व के सर्वाधिक धनवान नेताओं में शुमार किया जाना ।
बाबा रामदेव भी योगगुरू से कहीं अधिक अपनी बेशुमार संपत्ति के कारण पहचाने जाने लगे हैं।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भारत की तरक्की या तो नेताओं की तरक्की में निहित है या फिर किस्म-किस्म के बाबाओं की तरक्की में ।
फिलहाल भारत और भी कई कारणों से चर्चा में है।
उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को टाइम मेग्जीन द्वारा अंडर अचीवर बताया जाना। उसका यह लिखना कि प्रधानमंत्री शिथिल हैं और सरकार को पर्दे के पीछे से कोई और यानी सोनिया गांधी चला रही हैं।
गृहमंत्री पी चिदम्बरम का यह कहकर देश की तरक्की को रेखांकित करना कि 'हम' 15 रु. मिनरल वाटर की एक बोतल पर तथा 20 रु. आइसक्रीम के कोन पर खर्च करते वक्त कुछ नहीं कहते लेकिन गेहूं या चावल की कीमतों में एक रु. बढ़ जाता है तो शोर मचाने लगते हैं।
अब यहां कुछ सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। पहला सवाल तो यही है कि जिस तरह की तरक्की देश या यूं कहें कि नेता कर रहे हैं, क्या उस पर फ़क्र किया जाना चाहिए ?
कॉमन वेल्थ गेम घोटाला, 2जी घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, कोयला घोटाला, नरेगा घोटाला और रक्षा सौदों में होने वाले घोटाले। क्या यह देश की तरक्की का सबब हैं ?
क्या देश की जनता को वाकई इस बात पर अभिमान करना चाहिए कि उनका प्रधानमंत्री एक ऐसा शख्स है जिसके डेढ़ दर्जन मंत्रियों के ऊपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं ?
क्या देश की जनता को खुश होना चाहिए कि भ्रष्टाचार की बात होते ही सरकार कहती है कि उसके मूल में वो नीतियां हैं जो सत्ता में रहते विपक्षी दल ने बनाई थीं ?
क्या जनता को यह पूछने का हक है कि उन नीतियों के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ सरकार ने क्या कार्यवाही अब तक की और क्या करने जा रही है ?
क्या कोई जान सकता है कि सीबीआई ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर बसपा सुप्रीमो मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का केस कैसे रजिस्टर्ड कर लिया और क्यों देश के सर्वोच्च न्यायालय को यह जानने में नौ साल का समय लग गया ?
अनेक ऐसे सवाल हैं और अनेक रोज पैदा हो रहे हैं लेकिन जवाब किसी का नहीं। जब जवाबदेही ही नहीं, तो जवाब देगा भी कौन।
देश के कानून मंत्री कहते हैं कि पार्टी में दिशाहीनता की स्थिति है, राहुल गांधी बड़ी जिम्मेदारी लेने से बच रहे हैं।
सच तो यह है कि केन्द्र सरकार दिशाहीनता की नहीं आत्ममुग्धता की शिकार है। सुपीरियेरिटी कॉम्लेक्स के शिकार हैं अधिकांश मंत्री और नेता। उन्हें संभवत: यह लगने लगा है कि सत्ता उन्हें कुल पांच सालों के लिए नहीं, हमेशा-हमेशा के लिए मिली है। उन्हें नहीं पता कि इन पांच सालों में से तीन साल उनके हाथ से फिसल चुके हैं । जरूरी नहीं कि अगले चुनाव 2014 में ही हों। हालात और परिस्थितियां बार-बार ऐसे संकेत दे रही हैं कि चुनाव होना इससे पहले भी संभव है।
सरकार ने न तो विगत माह हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से कोई सबक सीखा और ना जनता में व्याप्त आक्रोश से कुछ सीखना चाहती है।
देश की जनता खुश नहीं है। दुश्मनों से हम घिरे हुए हैं। आतंकवादियों के हम सॉफ्ट टार्गेट हैं। विदेश नीति फेल है और रुपया रसातल में है। फिर भी सरकार कहती है कि देश तरक्की कर रहा है। नेता कहते हैं कि अब भारत को कोई सपेरों का देश नहीं कहता।
अब सबसे बड़ा और आखिरी सवाल यह है कि भ्रष्टाचारी, अकर्मण्य, निष्क्रिय, कमजोर तथा दिशाहीन नेतृत्व का मुल्क कहलवाना ज्यादा अच्छा है या फिर सपेरों, साधु-सन्यासियों अथवा गरीबों का देश कहलवाना ?
मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि भारत तब अधिक गौरवशाली था जब गरीबी के बावजूद उसकी सांस्कृतिक समृद्धि का सारी दुनिया लोहा मानती थी या आज अधिक गौरवशाली है जब उसकी गिनती विश्व के भ्रष्टतम देशों में की जाती है ?
आपकी समझ में आये तो जरूर लिखना ताकि मैं भी आत्ममुग्धता से उपजे अहंकार का शिकार न बनूं।
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