जरा विचार
कीजिये कि जिन्हें न तो कोई वेतन-भत्ता मिलता है, न कोई सुविधा प्राप्त
होती है। निर्णय लेने का कोई अधिकार हासिल नहीं है। संविधान ने कोई विशेष
दर्जा भी नहीं दे रखा तो फिर घर फूंक कर तमाशा देखने को यह इतने उतावले
क्यों हैं ?
(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
यूपी में निकाय चुनाव यूं तो लगभग सम्पन्न हो चुके हैं पर विभिन्न कारणों से कुछ जनपदों में मतदान होना अभी बाकी है। इन जनपदों में मथुरा भी शामिल है।
यहां 20 जुलाई के दिन मतदान होना है जबकि मतगणना की तारीख 24 जुलाई तय है।
ऐसे में चुनाव प्रचार और प्रत्याशियों की सरगर्मी का चरम पर होना स्वाभाविक है।
एक ओर जहां मोहल्ले-मोहल्ले और घर-घर पर प्रत्याशी स्वयं दस्तक दे रहे हैं वहीं दूसरी ओर अखबारों में बड़े-बड़े रंगीन विज्ञापनों के माध्यम से जनता को वायदों की पोटली पकड़ाई जा रही है। इस पोटली में साफ-सफाई का वायदा है, सड़क-नाली व खरंजों के निर्माण का वायदा है, साफ व शुद्ध पानी की सप्लाई का वायदा है और ऐसे तमाम वायदे हैं जो जनसुविधाओं की श्रेणी में आते हैं। कुछ ऐसे सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं जैसे चुनाव सम्पन्न होते ही यह धर्मिक जनपद समस्या विहीन हो जायेगा, या फिर यूरोप के किसी उस शहर जैसा दिखाई देगा जिसकी कल्पना करते-करते पूरी एक पीढ़ी अपनी उम्र के चौथेपन तक पहुंच चुकी है।
सब जानते हैं कि चुनावी वायदे झूठ का पर्याय बन गये हैं क्योंकि आज तक किसी पार्टी और किसी नेता ने जीतने के बाद अपने वायदों पर अमल नहीं किया।
आश्चर्य की बात यह है कि अखबारों में विज्ञापन व समाचारों के द्वारा लिखा-पढ़ी में किये गये इन वायदों को पूरा न किये जाने के बावजूद आज तक किसी जनप्रतिनिधि पर धोखाधड़ी अथवा वादाखिलाफी का मुकद्दमा दर्ज नहीं हुआ।
इस बात को भी फिलहाल यहीं छोड़ते हैं और उस मुद्दे पर आते हैं जो यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम पूरी तरह नेताओं के हाथ की कठपुतली बन कर रह गये हैं अथवा फिरंगियों से विरासत में मिली व्यवस्था ने हमें इस कदर मानसिक व शारीरिक रूप से अपाहिज बना दिया है कि हम सोचने-समझने तथा कुछ कर पाने की सामर्थ्य ही खो चुके हैं।
मुद्दा यह है कि पालिका अध्यक्ष और सदस्य पद का चुनाव लड़ रहे करीब-करीब सारे प्रत्याशी सभी प्रमुख अखबारों में अपने लम्बे-चौड़े रंगीन विज्ञापन प्रकाशित करा रहे हैं।
जाहिर है कि इन विज्ञापनों पर मोटी रकम खर्च हो रही है , साथ ही अन्य मदों में भी अच्छा-खासा खर्च किया जा रहा है।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि महानगरपालिका के मेयर हों या पार्षद तथा नगरपालिकाओं के चेयरमैन हों या सदस्य, किसी को न तो कोई वेतन-भत्ता मिलता है और ना कोई मानदेय। मेयर व चेयरमैन को गाड़ी, अर्दली व फोन आदि की कुछ सुविधाएं अवश्य प्राप्त हैं लेकिन पार्षद व सदस्यों के लिए वह भी नहीं मिलतीं।
सांसद और विधायकों की तरह जनप्रतिनिधि का तमगा पाने वाले इन माननीयों के लिए किसी किस्म का वेतन-भत्ता मिलना शासन स्तर पर अब तक प्रस्तावित भी नहीं है । ऐसे में पैंशन की तो बात करना ही बेमानी है।
बताया जाता है कि मेयर को करीब सात हजार और चेयरमैन को पांच हजार रुपये प्रतिमाह बतौर शिष्टाचार व्यय लेने का अधिकार है पर इसे लेना अधिकांश प्रथम नागरिक अपनी गरिमा के अनुकूल नहीं मानते।
इसी तरह पालिका सदस्यों को बोर्ड बैठक में शामिल होने पर 200 रुपये प्राप्त करने का अधिकार है लेकिन कोई सदस्य इसे लेता नहीं है।
पार्षदों अथवा सदस्यों को तो कोई निर्णय तक लेने का अधिकार नहीं है। यह लोग बोर्ड बैठक में मात्र अपने विचार रख सकते हैं।
गौरतलब है कि प्रदेश में राज्यपाल को एवं देश में राष्ट्रपति को जिस तरह प्रथम नागरिक का सम्मान हासिल है, उसी तरह महानगर में मेयर तथा नगर में चेयरमैन को प्रथम नागरिक माना जाता है लेकिन गवर्नर व राष्ट्रपति की तरह इन्हें न कोई संवैधानिक अधिकार दिये गये हैं और न वेतन-भत्ते मिलते हैं। सुविधाएं भी जो हैं, उनका होना न होना बराबर है।
अब जरा विचार कीजिये कि जब इन्हें न तो कोई वेतन-भत्ता मिलता है, न कोई सुविधा प्राप्त होती है, निर्णय लेने का कोई अधिकार हासिल नहीं है, संविधान ने कोई विशेष दर्जा भी नहीं दे रखा तो फिर घर फूंक कर तमाशा देखने को यह इतने उतावले क्यों हैं ?
निर्वाचन आयोग के दिशा-निर्देशों को धता बताकर लाखों रुपये खर्च करने वाले प्रत्याशियों में से जो भी चुना जायेगा, वह पहले अपने इस खर्च की भारी-भरकम सूद सहित भरपाई करेगा या क्षेत्र के विकास में रुचि लेगा ?
क्या हमारी समूची व्यवस्था के मूल में ही भ्रष्टाचार के वो बीज नहीं हैं जो देश को लगातार खोखला कर रहे हैं ?
क्या इस व्यवस्था में विकास और भ्रष्टाचार से मुक्ति की उम्मीद की जानी चाहिए ?
क्या हमारी समूची व्यवस्था आउटडेटेड नहीं हो चुकी और यदि इसमें शीघ्र आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया गया तो आगे आने वाला समय देश व समाज के लिए बेहद खतरनाक साबित होगा।
नगरपालिका मथुरा के निवर्तमान अध्यक्ष और कांग्रेसी नेता श्यामसुंदर उपाध्याय बिट्टू ने इस सम्बन्ध में पूछे जाने पर कहा कि वाकई यह व्यवस्था चिंता का विषय बन चुकी है। मेयर और चेयरमैन लोकायुक्त की जांच के दायरे में तो आते हैं लेकिन अधिकार के नाम पर उनका पद एक किस्म का झुनझुना है। ये कैसी व्यवस्था है जिसमें किसी पद के लिए सजा का प्राविधान तो है लेकिन न कोई अधिकार हैं और ना जीवन यापन का मुकम्मल इंतजाम।
जो भी हो लेकिन फिर भी तय है यह बात कि लाखों रुपया खर्च करके चुनाव लड़ने वाले जनसेवक तो कतई नहीं हो सकते। यह बात दीगर है कि इस सबके बावजूद पालिका अध्यक्ष से लेकर सभासद तक के पद हेतु बेहिसाब प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं।
मथुरा में प्रत्याशियों की इस बहुतायत का एक बड़ा कारण जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूअल मिशन जैसी केन्द्र की महत्वाकांक्षी योजना के तहत मिलने वाले करीब साढ़े अठारह सौ करोड़ की वह बड़ी रकम भी है जिसके बंदरबांट का सिलसिला जारी है और जिसके बारे में प्रदेश के कद्दावर मंत्री आजम खां ने पिछले दिनों कहा था कि एनआरएचएम घोटाले से भी कई गुना बड़ा घोटाला ''जे नर्म'' में हो रहा है।
(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
यूपी में निकाय चुनाव यूं तो लगभग सम्पन्न हो चुके हैं पर विभिन्न कारणों से कुछ जनपदों में मतदान होना अभी बाकी है। इन जनपदों में मथुरा भी शामिल है।
यहां 20 जुलाई के दिन मतदान होना है जबकि मतगणना की तारीख 24 जुलाई तय है।
ऐसे में चुनाव प्रचार और प्रत्याशियों की सरगर्मी का चरम पर होना स्वाभाविक है।
एक ओर जहां मोहल्ले-मोहल्ले और घर-घर पर प्रत्याशी स्वयं दस्तक दे रहे हैं वहीं दूसरी ओर अखबारों में बड़े-बड़े रंगीन विज्ञापनों के माध्यम से जनता को वायदों की पोटली पकड़ाई जा रही है। इस पोटली में साफ-सफाई का वायदा है, सड़क-नाली व खरंजों के निर्माण का वायदा है, साफ व शुद्ध पानी की सप्लाई का वायदा है और ऐसे तमाम वायदे हैं जो जनसुविधाओं की श्रेणी में आते हैं। कुछ ऐसे सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं जैसे चुनाव सम्पन्न होते ही यह धर्मिक जनपद समस्या विहीन हो जायेगा, या फिर यूरोप के किसी उस शहर जैसा दिखाई देगा जिसकी कल्पना करते-करते पूरी एक पीढ़ी अपनी उम्र के चौथेपन तक पहुंच चुकी है।
सब जानते हैं कि चुनावी वायदे झूठ का पर्याय बन गये हैं क्योंकि आज तक किसी पार्टी और किसी नेता ने जीतने के बाद अपने वायदों पर अमल नहीं किया।
आश्चर्य की बात यह है कि अखबारों में विज्ञापन व समाचारों के द्वारा लिखा-पढ़ी में किये गये इन वायदों को पूरा न किये जाने के बावजूद आज तक किसी जनप्रतिनिधि पर धोखाधड़ी अथवा वादाखिलाफी का मुकद्दमा दर्ज नहीं हुआ।
इस बात को भी फिलहाल यहीं छोड़ते हैं और उस मुद्दे पर आते हैं जो यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम पूरी तरह नेताओं के हाथ की कठपुतली बन कर रह गये हैं अथवा फिरंगियों से विरासत में मिली व्यवस्था ने हमें इस कदर मानसिक व शारीरिक रूप से अपाहिज बना दिया है कि हम सोचने-समझने तथा कुछ कर पाने की सामर्थ्य ही खो चुके हैं।
मुद्दा यह है कि पालिका अध्यक्ष और सदस्य पद का चुनाव लड़ रहे करीब-करीब सारे प्रत्याशी सभी प्रमुख अखबारों में अपने लम्बे-चौड़े रंगीन विज्ञापन प्रकाशित करा रहे हैं।
जाहिर है कि इन विज्ञापनों पर मोटी रकम खर्च हो रही है , साथ ही अन्य मदों में भी अच्छा-खासा खर्च किया जा रहा है।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि महानगरपालिका के मेयर हों या पार्षद तथा नगरपालिकाओं के चेयरमैन हों या सदस्य, किसी को न तो कोई वेतन-भत्ता मिलता है और ना कोई मानदेय। मेयर व चेयरमैन को गाड़ी, अर्दली व फोन आदि की कुछ सुविधाएं अवश्य प्राप्त हैं लेकिन पार्षद व सदस्यों के लिए वह भी नहीं मिलतीं।
सांसद और विधायकों की तरह जनप्रतिनिधि का तमगा पाने वाले इन माननीयों के लिए किसी किस्म का वेतन-भत्ता मिलना शासन स्तर पर अब तक प्रस्तावित भी नहीं है । ऐसे में पैंशन की तो बात करना ही बेमानी है।
बताया जाता है कि मेयर को करीब सात हजार और चेयरमैन को पांच हजार रुपये प्रतिमाह बतौर शिष्टाचार व्यय लेने का अधिकार है पर इसे लेना अधिकांश प्रथम नागरिक अपनी गरिमा के अनुकूल नहीं मानते।
इसी तरह पालिका सदस्यों को बोर्ड बैठक में शामिल होने पर 200 रुपये प्राप्त करने का अधिकार है लेकिन कोई सदस्य इसे लेता नहीं है।
पार्षदों अथवा सदस्यों को तो कोई निर्णय तक लेने का अधिकार नहीं है। यह लोग बोर्ड बैठक में मात्र अपने विचार रख सकते हैं।
गौरतलब है कि प्रदेश में राज्यपाल को एवं देश में राष्ट्रपति को जिस तरह प्रथम नागरिक का सम्मान हासिल है, उसी तरह महानगर में मेयर तथा नगर में चेयरमैन को प्रथम नागरिक माना जाता है लेकिन गवर्नर व राष्ट्रपति की तरह इन्हें न कोई संवैधानिक अधिकार दिये गये हैं और न वेतन-भत्ते मिलते हैं। सुविधाएं भी जो हैं, उनका होना न होना बराबर है।
अब जरा विचार कीजिये कि जब इन्हें न तो कोई वेतन-भत्ता मिलता है, न कोई सुविधा प्राप्त होती है, निर्णय लेने का कोई अधिकार हासिल नहीं है, संविधान ने कोई विशेष दर्जा भी नहीं दे रखा तो फिर घर फूंक कर तमाशा देखने को यह इतने उतावले क्यों हैं ?
निर्वाचन आयोग के दिशा-निर्देशों को धता बताकर लाखों रुपये खर्च करने वाले प्रत्याशियों में से जो भी चुना जायेगा, वह पहले अपने इस खर्च की भारी-भरकम सूद सहित भरपाई करेगा या क्षेत्र के विकास में रुचि लेगा ?
क्या हमारी समूची व्यवस्था के मूल में ही भ्रष्टाचार के वो बीज नहीं हैं जो देश को लगातार खोखला कर रहे हैं ?
क्या इस व्यवस्था में विकास और भ्रष्टाचार से मुक्ति की उम्मीद की जानी चाहिए ?
क्या हमारी समूची व्यवस्था आउटडेटेड नहीं हो चुकी और यदि इसमें शीघ्र आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया गया तो आगे आने वाला समय देश व समाज के लिए बेहद खतरनाक साबित होगा।
नगरपालिका मथुरा के निवर्तमान अध्यक्ष और कांग्रेसी नेता श्यामसुंदर उपाध्याय बिट्टू ने इस सम्बन्ध में पूछे जाने पर कहा कि वाकई यह व्यवस्था चिंता का विषय बन चुकी है। मेयर और चेयरमैन लोकायुक्त की जांच के दायरे में तो आते हैं लेकिन अधिकार के नाम पर उनका पद एक किस्म का झुनझुना है। ये कैसी व्यवस्था है जिसमें किसी पद के लिए सजा का प्राविधान तो है लेकिन न कोई अधिकार हैं और ना जीवन यापन का मुकम्मल इंतजाम।
जो भी हो लेकिन फिर भी तय है यह बात कि लाखों रुपया खर्च करके चुनाव लड़ने वाले जनसेवक तो कतई नहीं हो सकते। यह बात दीगर है कि इस सबके बावजूद पालिका अध्यक्ष से लेकर सभासद तक के पद हेतु बेहिसाब प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं।
मथुरा में प्रत्याशियों की इस बहुतायत का एक बड़ा कारण जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूअल मिशन जैसी केन्द्र की महत्वाकांक्षी योजना के तहत मिलने वाले करीब साढ़े अठारह सौ करोड़ की वह बड़ी रकम भी है जिसके बंदरबांट का सिलसिला जारी है और जिसके बारे में प्रदेश के कद्दावर मंत्री आजम खां ने पिछले दिनों कहा था कि एनआरएचएम घोटाले से भी कई गुना बड़ा घोटाला ''जे नर्म'' में हो रहा है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया बताते चलें कि ये पोस्ट कैसी लगी ?