शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

..और सरकारी खाप पंचों का क्‍या!

देश व प्रदेशों में कुछ खाप सरकारी हैं और कुछ गैर सरकारी। कुछ फरमान व फतवे सरकारी स्‍तर से जारी किये जाते हैं, कुछ गैर सरकारी स्‍तर से  लेकिन हर हाल में शिकार होती है आमजनता । वह आमजनता जो सरकारी व गैर सरकारी यानी दोनों किस्‍म की खापों को खास बनाती है ।
(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
अपने अजीबो-गरीब फैसलों के कारण हाल ही में खाप पंचायतें एकबार फिर चर्चा का विषय बनीं । एनडीटीवी पर इसे लेकर प्राइम टाइम में बाकायदा एक घण्‍टे की बहस हुई । बहस में न केवल युवा चिंतक व विचारक बल्‍कि खाप से जुड़े लोग भी शामिल थे ।
जिस तरह खाप पंचायतों के फरमान चर्चा में रहते हैं, उसी प्रकार मुल्‍ला-मौलवियों द्वारा समय-समय पर दिये जाने वाले फतवे भी चर्चा व बहस का मुद्दा बनते रहते हैं। ज़ाहिर है कि बहस चाहे खाप के फैसलों पर हो या फिर मुल्‍लाओं द्वारा जारी किये जाने वाले फतवों पर, अंतत: निरर्थक साबित होती है क्‍योंकि सब अपने-अपने-अपने कु-तर्कों को अंतिम सत्‍य मानते हैं ।
बहरहाल, मैं यहां खाप के फरमान और मुल्‍लाओं के फतवों की बात करना नहीं चाहता। मैं बात करना चाहता हूं देश के उन हालातों की जिनके कारण आज तक हम फरमान या फतवों के साये में जीने के लिए अभिशप्‍त हैं ।
कहते हैं कि लोकतंत्र में किसी भी किस्‍म की कट्टरवादिता तथा कट्टरपंथियों के लिए कोई जगह नहीं है क्‍योंकि लोकतंत्र जनता के लिए जनता द्वारा स्‍थापित की गई वो व्‍यवस्‍था है  जिसकी नुमाइंदगी जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि अर्थात जनप्रतिनिधि ही करते हैं । यानि जनता सर्वोपरि है । सारे  नियम-कानून उसी की भलाई के लिए हैं और उसी के हित में बनाये जाते हैं। लेकिन क्‍या वाकई ऐसा है । अगर है भी तो क्‍या इस पर अमल किया जा रहा है ।
15 अगस्‍त 2012 को  फिरंगियों की दास्‍ता से मुक्‍ति के 65 वर्ष पूर्ण करने जा रहा हमारा देश लोकतंत्र का ढोल अपने गले में जरूर लटकाये हुए है परन्‍तु उसके तथाकथित भाग्‍यविधाता उस मानसिकता से अब भी मुक्‍ति नहीं पा सके हैं । वह मानसिकता जिसके तहत गोरों ने सैंकड़ों वर्ष इस देश पर शासन किया और वह मानसिकता जिसके तहत कोई खाप पंचायत फरमान सुनाती है अथवा कोई मुल्‍ला या मौलवी फतवा जारी करता है ।
गौर से देखें तो आपको स्‍पष्‍ट महसूस होगा कि जैसे पूरा देश ही खाप पंचायतों के स्‍वयंभू मुखियाओं व कठमुल्‍लाओं की गिरफ्त में है । फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ लोग कानून को ताक पर रखकर एक समानांतर सत्‍ता कायम करने के लिए सामाजिक भलाई की आड़ में फरमान सुनाते हैं जबकि कुछ लोग जनमत से प्राप्‍त सत्‍ता तथा उससे मिले संवैधानिक अधिकारों की आड़ में कानून को हथियार बनाकर मनमाफिक फैसले थोपते हैं ।
जिसे जनता या अवाम कहा जाता है, वह किसी के जेहन में नहीं रहती। जेहन में रहती है तो बस एक भीड़ और भीड़ में दिमाग नहीं होता । बेदिमाग लोगों का इस्‍तेमाल समझदार लोग हमेशा अपने हित में करते रहे हैं लिहाजा आज भी यही हो रहा है ।
कहीं खाप पंचायतों के स्‍वयंभू मुखिया इसे इस्‍तेमाल कर रहे हैं तो कहीं मुल्‍ला और मौलवी । कहीं जनप्रतिनिधि करते हैं तो कहीं चुना हुआ पूरा सत्‍तातंत्र ।
क्‍या अंतर रह जाता है खाप पंचायतों के फरमान व मुल्‍ला-मौलवियों के फतवों और निर्वाचित सरकार द्वारा थोपे गये फैसलों में जब जनभावना के कोई मायने ही न हों, जब जनता को मात्र निर्जीव मोहरों की तरह इस्‍तेमाल किया जा रहा हो ।
अंतर तो केवल इतना ही रहता है कि खाप के फरमान व मुल्‍लाओं के फतवे एक खास दायरे में वर्ग विशेष को प्रभावित करते हैं जबकि सरकारी तंत्र के फैसले प्रदेश और देशभर पर लागू होते हैं ।
प्रदेश में एक सरकार आती है और वह खजाने के अरबों रुपये खर्च करके अपने मनमाफिक मायावी पार्कों का निर्माण कराती है । जिलों व शिक्षण संस्‍थाओं का और तमाम योजनाओं का नामकरण समाज विशेष की पहचान जताते हुए करती है । जनता के पैसों को सरकारी आवासों की साज-सज्‍जा पर इसलिए बेदर्दी से बर्बाद करती है ताकि उसके राजसी ठाठ-बाट में कोई कमी न रह जाए ।
फिर दूसरी सरकार आती है और वह निवर्तमान सरकार द्वारा लिये गये ऐसे सारे निर्णयों को यथासंभव पलट देती है । वह कुछ ऐसे नये फैसले लेती है जो दूसरी जाति व धर्म विशेष के हितों की तुष्‍टि करते दिखाई देते हों । साथ ही अपने अहम् व स्‍वार्थों की भी पूर्ति करते हों ।
इसी प्रकार केन्‍द्र की सत्‍ता अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता तथा विरोध जताने के संवैधानिक अधिकार का इसलिए बलपूर्वक हनन करती है क्‍योंकि सत्‍ता पर काबिज कुछ लोगों को यह विरोध रास नहीं आता ।
क्‍योंकि महंगाई व भ्रष्‍टाचार के खिलाफ उठाई जाने वाली आवाजें सत्‍ता की गलत नीतियों को रेखांकित करती हैं । वह आवाजें जनता को बताती हैं कि कैसे कुछ लोग उसी से प्राप्‍त शक्‍तियों का अपने हित में भारी दुरुपयोग कर रहे हैं ।
गंगा को प्रदूषणमुक्‍त कराने के लिए अनशनरत वृद्ध संत स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप सानंद ( प्रोफेसर जी. डी. अग्रवाल ) को जबरन उठाकर अस्‍पताल में भर्ती करा देना अथवा देश की विदेशों में जमा ब्‍लैकमनी को वापस लाने के लिए अनशनरत हजारों लोगों को सोते समय लाठीचार्ज करके खदेड़ देना क्‍या कानून सम्‍मत है।
हो सकता है कि उनका निजी आचरण संदिग्‍ध हो, उनके क्रिया-कलाप पूरी तरह पारदर्शी न हों, तो भी क्‍या इससे संविधान प्रदत्‍त अधिकारों के हनन का अधिकार सरकारी तंत्र को  मिल जाता है ।
देश की गरीब जनता को दो जून की रोटी मयस्‍सर न हो और सरकार अनाज को इसलिए सड़ा दे ताकि शराब बनाने वाली कंपनियों को उसे औने-पौने दामों पर बेचा जा सके । जब सुप्रीम कोर्ट उसे गरीबों में बांट देने का आदेश सुनाए तो प्रधानमंत्री कहें कि सुप्रीम कोर्ट को नीतिगत मामलों में दखल देने का अधिकार नहीं है । अनाज यूं ही नहीं बांटा जा सकता ।
देश की सर्वोच्‍च अदालत के फैसले को सार्वजनिक रूप से चुनौती देना क्‍या खाप मानसिकता नहीं है ?
माननीयों के वेतन-भत्‍ते उनकी मांग व सुख-सुविधा अनुसार यूं ही चाहे जब बढ़ाये जा सकते हों पर सड़ रहा अनाज गरीबों को यूं ही (कम कीमत पर) नहीं दिया  जा सकता ।
किसानों की ज़मीन बिल्‍डर्स को, उद्योगपतियों को जबरन अधिग्रहण करके इसलिए दी जा सकती हो जिससे वह बेहिसाब मुनाफा कमा सकें और सरकारी तंत्र उसके एवज में अपनी तिजोरियां भर सके लेकिन खेती के लिए जरूरी बीज व रसायन पर दी जा रही सब्‍सिडी अखरती हो ।
अपनों या बच्‍चों का मन बहलाने के लिए कभी-कभी आइसक्रीम खा लेना अथवा मजबूरी में बोतलबंद पानी खरीदकर पी लेने की तुलना बेलगाम महंगाई एवं भ्रष्‍टाचार के समर्थन में करना क्‍या किसी खाप मानसिकता से कम है ? 
निर्वाचन आयोग जैसी संवैधानिक संस्‍था को आदर्श आचार संहिता की धज्‍जियां उड़ाते हुए खुली चुनौती देना क्‍या खाप मानसिकता को नहीं दर्शाता ? 
एक-दो नहीं, ऐसे तमाम उदाहरण मिल जायेंगे जब सरकारी तंत्र ने अपनी ताकत के बल पर जनविरोधी निर्णय लिये हैं और खाप मानसिकता के तहत या कठमुल्‍लाओं की तर्ज पर उन्‍हें जायज ठहराया है ।
खाप पंचायतों को भी ताकत व अधिकार वही जनता देती है जो सरकारी तंत्र को देती है । हां इतना अंतर अवश्‍य है कि खाप या मुल्‍ला-मौलवियों को एक खास किस्‍म के लोग समर्थन देते हैं और उनका दायरा उतना बड़ा नहीं होता जितना सरकारी तंत्र का होता है । उनके पास कानून की आड़ व माननीय होने का विशेषाधिकार भी नहीं होता जिससे वह उसके हनन की बात कर सकें लेकिन आड़ वह भी सरकारी तंत्र की तरह जनहित की ही लेते हैं ।
जिस तरह सरकार या सत्‍ताधारी पार्टी के प्रवक्‍ता अपने मंत्रियों का हर निर्णय जायज ठहराने की कवायद करते हैं, ठीक उसी तरह खाप पंचायत व मुल्‍ला-मौलवियों के फरमान और फतवों  को सर्वथा उचित ठहराने वालों की भी कोई कमी नहीं ।
बस इतना माना जा सकता है कि देश व प्रदेशों में कुछ खाप सरकारी हैं और कुछ गैर सरकारी। कुछ फरमान व फतवे सरकारी स्‍तर से जारी किये जाते हैं, कुछ गैर सरकारी स्‍तर से  लेकिन हर हाल में शिकार होती है आमजनता । वह आमजनता जो सरकारी व गैर सरकारी यानी दोनों किस्‍म की खापों को खास बनाती है ।
गैर सरकारी खापों के स्‍वयंभू मुखियाओं का एक मकसद अपने ऊल-जुलूल फरमानों के जरिये प्रसिद्धि पाना भी हो सकता है पर सरकारी खाप केवल सत्‍ता की हनक दिखाने व थोथे अहम् की तुष्‍टि के लिए यह सब करते हैं । उन्‍हें इसमें मजा आता है ।
अब ज़रा विचार कीजिये कि जब सरकारें ही खाप मानसिकता की शिकार हैं और उनका भी आचरण दंभ भरा है तो वह कैसे खाप पंचायतों के खिलाफ कठोर कार्यवाही कर सकती हैं और कैसे उन पर पाबंदी लगा सकती हैं ।
ऐसे में यह उम्‍मीद करना कि खाप पंचायतों के फरमान और मुल्‍ला मौलवियों के फतवों से समाज को फिलहाल मुक्‍ति मिल सकती है, खुद को धोखे में रखने से अधिक कुछ नहीं ।
जब तक शासक वर्ग अपनी खाप मानसिकता और कठमुल्‍लापन से बाहर नहीं निकलता तब तक किसी न किसी रूप में इस तरह की समानांतर सत्‍ताएं भी कायम रहेंगी।

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