बुधवार, 1 अगस्त 2012

जन-लोकपाल नहीं, लोकपाल कहिए

रकार ''लोकपाल'' की बात तो करती है पर ''जन-लोकपाल'' का जिक्र तक उसे नागवार गुजरता है क्‍योंकि उसके साथ ''जन'' जो जोड़ दिया गया है।
धारावाहिक उपनिषद गंगा के 12 वें भाग में धनंजय नामक श्रेष्‍ठी कोटिकर्ण (करोड़पति व्‍यापारी) गंगा के घाट पर खड़े होकर कहता है कि कोई याचक बच गया हो तो वह भी मांग ले। है कोई और याचक यहां ?
इतने में भगवा वस्‍त्रधारी एक वृद्ध अपने हाथ में मौजूद मिट्टी का पात्र कोटिकर्ण की ओर आगे बढ़ाते हुए कहता है- याचक यहां है।
कोटिकर्ण उस वृद्ध से पूछता है- बोलो याचक, क्‍या दूं तुम्‍हें ?
वृद्ध उसके उत्‍तर में कोटिकर्ण से प्रतिप्रश्‍न करता है- इस याचक को क्‍या दे सकते हो श्रेष्‍ठी ?
इस पर कोटिकर्ण कहता है- मांग कर तो देखो याचक ।
वृद्ध इसके बाद कहता है- मेरा पेट तो वृक्षों की जड़ें भी भर देती हैं श्रेष्‍ठी, दे ही सकते हो तो मुझे अपना अहंकार दे दो।
वृद्ध के इस कथन पर कोटिकर्ण उससे कहता है- अहंकार कोई वस्‍तु नहीं है याचक, जो तुम्‍हें दे दूं। कुछ और मांगो। सोना, चांदी, धन, वस्‍त्र, अन्‍न। कुछ भी।
इस बार वृद्ध उस करोड़पति से कहता है- सोना, चांदी और यहां तक कि साम्राज्‍य भी देना आसान है श्रेष्‍ठी, पर अहंकार देना बहुत मुश्‍किल है।
तू पहचान, खुद को पहचान श्रेष्‍ठी। जो तू दिखता है, वह है नहीं। जो तू है, उसे देखना नहीं चाहता। पहचान, खुद को पहचान।
यह कहकर हरिओम तत्‍सत् का उच्‍चारण करते हुए वह वृद्ध चला जाता है।
कोटिकर्ण जब घर पहुंचता है तो वृद्ध के शब्‍द उसके कानों में गूंजते रहते हैं। उसका चैन छिन जाता है, शांति भंग हो जाती है।
वह सोचने लगता है- क्‍या उस याचक के लिए मेरे साम्राज्‍य का कोई मूल्‍य नहीं। उस याचक के सामने क्‍यों मैं आज खुद को काफी छोटा महसूस कर रहा हूं।
उसे फिर वृद्ध के शब्‍द याद आते हैं- जो तू दिखाई देता है, वह है नहीं। जो है, उसे देखना नहीं चाहता। तो मैं कौन हूं ?
इस प्रश्‍न का उत्‍तर मैं ढूंढ कर रहूंगा।
खुद को पहचानने की चाहत और अहंकार को त्‍यागने की मंशा ने उन्‍हें उसी रात अपना सब-कुछ त्‍यागने पर बाध्‍य कर दिया। वह अपनी सारी संपत्‍ति दान करके चले गये।
बाद में पता लगा कि वह श्रेष्‍ठी कोटिकर्ण से भिक्षु कोटिकर्ण बन चुके थे।
कभी गंगा के घाट पर खड़े होकर भिक्षा देने वाला अब घर-घर जाकर भिक्षा मांगने लगा।
उपनिषद गंगा के 12 वें भाग की इस कहानी का यहां उल्‍लेख इसलिए किया गया है ताकि लोग यह समझ सकें कि टीम अन्‍ना और सरकार के बीच जो विवाद दिखाई दे रहा है, उसके मूल में वह नहीं है जो लोग समझ रहे हैं।
सच तो यह है कि यहां भी विवाद की जड़ वही अहंकार है जो श्रेष्‍ठी कोटिकर्ण को था।
टीम अन्‍ना का उद्देश्‍य सरकार को यह समझाना है कि वह अपने आप में कुछ नहीं है। जो कुछ है, वह जनता है और सरकार मात्र जनता की नुमाइंदगी करती है इसलिए जनता कभी याचक नहीं हो सकती।
सांसद हों या मंत्री, और या प्रधानमंत्री भी। ये सब देश के रक्षकभर हैं न कि उसके मालिक। लेकिन सरकार इसे मानने को तैयार नहीं है।
वह लोकपाल की बात तो करती है पर जन-लोकपाल का ज़िक्र तक उसे नागवार गुजरता है क्‍योंकि उसके साथ 'जन' जोड़ दिया गया है।
सरकार की दलील है कि कानून सड़क पर नहीं संसद में बनते हैं और संसद पर हम काबिज हैं।
आमजन अगर सांसदों को उनके कु-कृत्‍यों का हवाला देकर उन्‍हें कर्तव्‍य का बोध कराते हैं तो वह कहते हैं कि विशेषाधिकार प्राप्‍त सांसदों की शान में गुस्‍ताखी करना भी संसद का अपमान है और उसके लिए संसद उन्‍हें कठघरे में खड़ा कर सकती है।
अगर गौर से देखें तो अन्‍ना द्वारा शुरू किये गये जनआंदोलन को आजतक मान्‍यता न दिये जाने के पीछे यही अहंकार है । विशेषाधिकार का अहंकार, पद का अहंकार, श्रेष्‍ठता का अहंकार।
ये अहंकार ही है कि सरकार कानून बनाकर जनसूचना अधिकार तो जनता को दे देती है लेकिन उसे पचा नहीं पाती लिहाजा कहीं उसका सार्थक इस्‍तेमाल करने वाले मरवा दिये जाते हैं और कहीं उनकी राह में इतने रोड़े अटकाये जाते हैं कि वह हारकर चुप बैठने पर मजबूर हो जाते हैं।
अहंकार ही है जिसके कारण सरकार को लगता है कि कालेधन को वापस लाने की मांग करना और जनलोकपाल बनाने की फरियाद करना, सत्‍ता को चुनौती देना है।
भ्रष्‍टाचार करके देश का पैसा विदेशी तिजोरियों में जमा करने वाले खुद को राष्‍ट्रभक्‍त कहते हैं और उस पैसे को वापस लाने तथा भ्रष्‍टाचारियों को सजा दिलाने की मांग करने वालों को इसलिए राष्‍ट्रद्रोही सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है क्‍योंकि अधिकांश राष्‍ट्रद्रोही आज संसद में जा बैठे हैं।
श्रेष्‍ठी कोटिकर्ण की तरह यहां भी समस्‍या खुद को पहचानने और अहंकार से ग्रस्‍त होने की ही है।
याचक बनकर जनता उनसे कह रही है कि हमें आपका साम्राज्‍य (सत्‍ता) नहीं चाहिए। हमें आप अपना अहंकार दे दीजिये और सोचिये कि आप हैं कौन। खुद को पहचानिये। पहचानिये कि आप जनप्रतिनिधि हैं। आपको माननीय होने का जो दंभ है, वह भी जनता ने उपलब्‍ध कराया है। आप अपने आपमें कुछ नहीं हैं और इसलिए आपको हर पांच साल बाद जनता से उसके पास भीख मांगने जाना पड़ता है। आज आप बेशक एक स्‍थान पर बैठकर भीख देने की क्षमता रखते हों लेकिन क्‍यों भूल जाते हैं कि आपको भी श्रेष्‍ठी कोटिकर्ण की तरह एक दिन भिक्षु बनकर दर-दर पर वोटों की भीख मांगनी है और वह दिन ज्‍यादा दूर नहीं।
जहां तक सवाल टीम अन्‍ना पर या स्‍वामी रामदेव पर लांछन लगाने का है तो ऐसा हर युग में हुआ है। इसमें कुछ नया नहीं है। सत्‍ता को किसी रूप में दी हुई चुनौती कभी स्‍वीकार नहीं होती क्‍योंकि सत्‍ता से बड़ा नशा दूसरा कोई नहीं होता।
यह सत्‍ता मद ही है जो सोनिया व राहुल के मौन में प्रतिध्‍वनित होता है और दिग्‍विजय सिंह, सलमान खुर्शीद, नारायाण सामी, कपिल सिब्‍बल, पी. चिदम्‍बरम, मनीष तिवारी, राशिद अल्‍वी, अंबिका सोनी तथा उनके जैसे तमाम दूसरे नेताओं के अट्टहास में साफ नजर आता है। 
हो सकता है कि 77 साल के वृद्ध अन्‍ना हजारे के तरीके में खामी हों। हो सकता है कि उनकी टीम के सदस्‍य अरविंद केजरीवाल, संजय सिंह, गोपाल राय, किरण बेदी, मनीष सिसौदिया और कुमार विश्‍वास का जीवन पूरी तरह पाक-साफ न हो लेकिन इस सब से क्‍या उनके वो अधिकार समाप्‍त हो जाते हैं जो उसी संविधान ने आमजन को दिये हैं जिनकी आड़ लेकर माननीय मंत्रीगण व सांसद खुद के विशेषाधिकारों की बार-बार दुहाई देते हैं।
समस्‍या सिर्फ और सिर्फ इतनी है कि उस दौर में एक कोटिकर्ण श्रेष्‍ठी को याचक की बातें कचोटती हैं इसलिए वह रातों-रात सब-कुछ छोड़कर भिक्षु बन जाता है क्‍योंकि उसकी आत्‍मा पूरी तरह मर नहीं चुकी होती लेकिन आज के कोटिकर्णों की आत्‍मा पूरी तरह मर चुकी है।
चुनाव परिणामों के रूप में सामने आने वाले नतीजे उनके भविष्‍य का संकेत दे रहे हैं परन्‍तु वह अहंकार के वशीभूत उनकी भी अनदेखी कर रहे हैं।
आश्‍चर्य और दु:ख की बात यह है कि इस मामले में सत्‍ताधरी दलों के साथ-साथ विपक्ष का भी आचरण कोई बहुत अलग नहीं है।
संभवत: वह इस बात को लेकर आश्‍वस्‍त हैं कि जनता के पास कोई विकल्‍प नहीं है।
वह भूल जाते हैं कि हर युग में विकल्‍प हमेशा गहन अंधकार के बीच से तभी सामने आया है जब सत्‍ता का नशा अपने पूरे शबाब पर होता है।

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