(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
बुद्धिजीवी होने का भ्रम पाल लेने वाले पत्रकारों की जमात इस बार अन्ना और उनकी टीम के आंदोलन पर लगातार सवालिया निशान लगा रही है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोग विशेष रूप से सवालों की बौछार कर रहे हैं ।
इनके सवाल अपने-अपने चैनलों पर तो तथाकथित शालीनता के दायरे में होते हैं पर फेसबुक व टि्वटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स और वेब पोर्टल्स पर वह शालीनता लगभग गायब मिलती है । वहां यह तबका भी वही आचरण करता है जो जनसामान्य कहने वाला वर्ग कर रहा है ।
पत्रकारिता की आड़ में इनके अपने ऐसे नितांत व्यक्तिगत विचारों अथवा बिकी हुई सोच पर इन्हें वहीं के वहीं जबर्दस्त तीखी प्रतिक्रिया भी मिलती हैं लेकिन सरकार की तरह ये पत्रकार भी इन प्रतिक्रियाओं की अनदेखी कर रहे हैं ।
खुद को पत्रकार कहने वाले एक चैनल के एंकर ने आज फेसबुक पर लिखा है- ''अन्ना हजारे के आंदोलन को जितना समर्थन पिछले साल मिलता दिख रहा था, क्या उसमें कोई फर्क नजर आ रहा है ?
लंबे आंदोलन के लिए रणनीति की कमी दिखती है आपको ?
क्या टीम अन्ना (अन्ना हजारे को छोड़) के तौर-तरीके आंदोलन को सही दिशा दे पा रहे हैं ?
इस आंदोलन में कोई भटकाव दिख रहा है आपको ?
अन्ना और टीम अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार जैसे बड़े मुद्दे पर एक बड़े आंदोलन के खड़े होने की जो संभावना पिछले साल दिखी थी, क्या वो उसी तीव्रता से अब भी कायम है ?
क्या इस आंदोलन में ठोस और दूरगामी रणनीति की कमी खटकती है ?
मेरे इस सवालों में आपको मेरा पूर्वाग्रह झलक सकता है लेकिन आपके जवाब से ही शायद मुझे कुछ समझने में आसानी हो जाए ....और हां , भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है ...भ्रष्ट नेता और अफसर देश को लूट रहे हैं ....अन्ना ने सही मुद्दे को देश के सामने रखा और जनमानस को झकझोरने में कामयाब भी हुए हैं लेकिन आगे का रास्ता कहां जा रहा है ....
एक अन्य एंकर अपने चैनल की साइट पर ''टीम अन्ना की कहानी में कोई टि्विस्ट नहीं..'' शीर्षक वाले आर्टीकल में लिखते हैं- देश की जनता के हक की लड़ाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को अंजाम तक पहुंचाने की जी तोड़ कोशिश में लगी टीम अन्ना और अन्ना हजारे को सफलता मिलेगी या नहीं, ये तो शायद कोई ज्योतिषी भी नहीं बता सकता लेकिन उनकी डगर में राहु, केतु और शनि रूपी इतने सारे ग्रह मौजूद हैं कि अंत या अंजाम बहुत ही धूमिल दिखाई पड़ता है.
अब इसे निराशावादी रुख भी कहा जा सकता है या कुछ लोग मान सकते हैं कि ये सरकार के हाथों बिके हुये एक पत्रकार के बोल हैं. लेकिन आठ दिनों के अनशन के बाद भी टीम अन्ना आज भी उतनी ही खाली हाथ है, जितना अनशन शुरू करने से पहले थी या फिर पिछले साल मुबई के आंदोलन के बाद थी.
यह एंकर आगे लिखते हैं- टीम अन्ना के तमाम चेहरे ऐसे पेश आ रहे थे, मानो पूरे देश के रहनुमा हों. और अगर सरकार और राजनीतिक दलों ने इन रहनुमाओं की नहीं सुनी तो देश की वो जनता जिसका प्रतिनिधित्व करने का दावा ये रहनुमा करते हैं, उनके आह्वान पर नेताओं व सरकार को नेस्तनाबूद कर देगी. एक अजीब सा दंभ या घमंड दिख रहा था सबके चेहरों पर, भाषण में, शैली में. मंच पर घमंड और दंभ के इस प्रदर्शन से विरक्ति सी हो रही थी.
किसी प्रकाशन हाउस के एडीटर लिखते हैं- सब कुछ घालमेल है- लोकपाल चाहिए, भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहिए, इस सरकार की छुट्टी चाहिए या फिर नई सरकार में एंट्री चाहिए ?
अन्ना-सम्प्रदाय इस तरह के अंतरविरोधों से घिरा है- यह तय है कि लोकपाल बिल संसद में ही बनेगा और सत्र आठ अगस्त से शुरू होगा। जाहिर है कि इनकी भूख हड़ताल के कारण सत्र पहले नहीं बुलाया जा सकता, संसद में कानून बनाने की घोषणा तब तक नहीं की जा सकती जब तक सदन में वह पारित न हो। नारे उछालना अलग बात है, भूखे रह कर तबियत खराब होने का बुलेटिन जारी कर सहानुभूति की लहर पर सवार होकर "अनियोजित" अप्रिशिक्षित भीड़ को जोड़ना अलग बात है।
ये तो चंद उदाहरण भर हैं अलबत्ता दिल्ली में बैठे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े अधिकांश एंकर्स के विचार लगभग ऐसे ही हैं ।
अब जरा इनके विचारों पर प्रतिक्रिया स्वरूप आमजन द्वारा जो पोस्ट किया जा रहा है, उसकी बानगी देखिये-
''मीडिया की असलियत सामने आई । जन्तर-मन्तर का प्रसारण बन्द... अन्ना आन्दोलन के दमन के बाद कल 10 जनपथ पर ताली बजाके अपना हक़ माँगने जायेंगें ये भाण्ड ....''
इसके साथ स्वनिर्मित एक फोटो भी पोस्ट की गई है जिसे मैं यहां बांईं ओर दूसरे नम्बर पर लगा रहा हूं । यह फोटो बताती है कि मीडिया के बारे में आमजन अब कैसी धारणा रखता है और अन्ना के आंदोलन पर नकारात्मक टिप्पणी उसे किस कदर अखर रही है ।
हालांकि व्यक्तिगत तौर पर न तो मैं कभी इस भाषा शैली का हिमायती रहा हूं और ना घृणा का इजहार करने वाले ऐसे फोटोग्राफ्स का, लेकिन इन्हें जगह इसलिए दे रहा हूं ताकि जनभावना को दरकिनार करके पत्रकारिता के नाम पर कुछ भी परोस देने का हक किसी को नहीं । कम से कम इस दौर में तो नहीं जब मीडिया खुद ''पेड न्यूज़'' से लेकर नेताओं के साथ भ्रष्टाचार में लिप्त होने जैसे आरोपों से घिरा है ।
बहरहाल, टीम अन्ना और उसके आंदोलन को अनेक सवालों के कठघरे में खड़ा करने, उनके आचरण पर टीका-टिप्पणी करने और आंदोलन के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले पत्रकारों से कुछ सवाल मैं भी पूछना चाहता हूं, यह जानते व समझते हुए भी कि मेरे प्रश्नों का जवाब शायद ही कोई दे।
मैं जानना चाहता हूं कि जिस तरह के सवाल आज टीम अन्ना की चाल व चरित्र पर खड़े किये जा रहे हैं, वैसे सवाल क्या कभी किसी पत्रकार ने देश को करीब-करीब 65 सालों से लूट रहे नेताओं के सामने खड़े किये हैं ?
क्या किसी राजनीतिक पार्टी से कभी पूछा है कि भ्रष्टाचार के आरोपों पर वह कोई जवाब देने की बजाय उसके नुमाइंदे विपक्षी पार्टी के भ्रष्टाचार को क्यों गिनाने लगते हैं जैसे देश में भ्रष्टाचार का कोई तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा हो ?
क्या किसी राजनीतिक दल के मुखिया से यह पूछने की हिम्मत दिखाई है कि उनके यहां नेताओं के परस्पर विरोधाभासी बयान जब उनके निजी विचार व पार्टी में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाते हैं तो टीम अन्ना के अलग-अलग बयान आंदोलन का भटकाव क्यों बताये जा रहे हैं ?
टीम अन्ना के सदस्य शांतिभूषण द्वारा मीडिया में कवरेज को लेकर की गई टिप्पणी पर खुद अन्ना हजारे द्वारा माफी मांगे जाने के बावजूद आंदोलन को ही हिंसक करार देने वाले पत्रकारों ने कभी किसी नेता से सरेआम बेइज्जत होने पर इतना रोष जताया है जबकि नेता आये दिन पत्रकारों को विभिन्न तरीकों से बेइज्जत करते हैं ?
किसी पत्रकार ने कभी किसी राजनीतिक दल से पूछा है कि सत्ता पर काबिज होने के बाद उनका आचार-व्यवहार ऐसा क्यों हो जाता है जैसे वह जनता के प्रति जवाबदेह न होकर जनता के मालिक हो, राजा हों और यह देश उनकी निजी जागीर हो ?
पूरी रणनीति से लगातार देश को लूट रहे नेताओं से तो कभी किसी पत्रकार ने नहीं पूछा कि उन्होंने और कितने वर्षों तक देश को लूटने की योजना बना रखी है लेकिन टीम अन्ना से जरूर यह पूछा जा रहा है कि जनलोकपाल व भ्रष्टाचार के लिए लड़ी जा रही लड़ाई के लिए उनकी रणनीति क्या है ?
देश को सुनियोजित षड्यंत्र के तहत लगातार गर्त में ले जाने वालों से कोई पत्रकार नहीं पूछ रहा कि वो देश को आखिर किस दिशा में ले जा रहे हैं पर टीम अन्ना को लेकर कह रहे हैं कि उनके तौर-तरीके आंदोलन को दिशाहीन बना रहे हैं।
टीम अन्ना की कहानी में कोई टि्वस्ट न देखने वाले एंकर को कभी किसी नेता से यह पूछते नहीं देखा कि उनकी पार्टी के विचारों में इतना टि्वस्ट क्यों है ?
क्यों उनकी कथनी और करनी में इतना भारी टि्वस्ट होता है जो देश को विकास के रास्ते पर टि्वस्ट नहीं करने दे रहा ?
टीम अन्ना के वक्तव्यों में दंभ महसूस करने वालों ने क्या कभी सोनिया गांधी, राहुल गांधी तथा उनकी जमात में शामिल तमाम लोगों में से किसी से पूछा है कि महंगाई, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, सीमापार के आतंकवाद, गरीबी को अपने हिसाब से परिभाषित करने, सेना को खोखला करने एवं अपने अजीबो-गरीब फैसलों से देश की साख को मिटटी में मिला देने जैसे मामलों पर चुप्पी क्यों साधी हुई है और क्या यह चुप्पी दंभ की परिचायक नहीं ?
ऊर्जा मंत्री के रूप में देश को सबसे बड़े ब्लैक आउट का तोहफा देने वाले सुशील कुमार शिंदे द्वारा गृहमंत्री का पद संभालते ही कहा जाता है कि अमेरिका में तो चार-चार दिनों तक ग्रिड फेल रहती हैं, तो कोई पत्रकार नहीं पूछता कि ये कैसा जवाब है ?
गृहमंत्री के पद पर रहते हुए पी चिदम्बरम जब कहते हैं कि आइसक्रीम खाने और मिनरल वाटर पीने वालों को महंगाई पर बोलने का अधिकार नहीं है, तब कोई पत्रकार उनसे नहीं पूछता कि ऐसे बेहूदे तर्क देने का अधिकार उन्हें किसने दिया ?
तब उन्हें उनके बयानों में कहीं कोई तंभ या अहंकार दिखाई नहीं देता ।
तब सभी चैनल स्टूडियो में उनके ही कुछ चमचों और हमपेशा लोगों के साथ बहस का तमाशा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं क्योंकि सीधे पूछने की न हिम्मत है और ना माद्दा ।
नेताओं से आयेदिन बेइज्जत होने वाले मीडियाकर्मी क्या इस बात का जवाब देंगे कि उन्हें टीम अन्ना की नीयत में खोट किसलिए दिखाई देने लगा है ?
भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है यह तो कोई नहीं बता सकता लेकिन आज जब देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है तब यदि टीम अन्ना जन आंदोलन कर रही है तो उसे लेकर इतने सवाल क्यों ?
ऐसे में अगर जनता इस आशय की सचित्र तीखी प्रतिक्रिया देती है कि ''मीडिया की असलियत सामने आई । जन्तर-मन्तर का प्रसारण बन्द... अन्ना आन्दोलन के दमन के बाद कल 10 जनपथ पर ताली बजाके अपना हक़ माँगने जायेंगें ये भाण्ड ....'' तो क्या गलत करती है।
मीडिया को समझना होगा कि जंतर-मंतर पर अन्ना के आंदोलन में जनता की सहभागिता चाहे जितनी हो, वह घरों से निकले या ना निकले पर सूचना तंत्र ने उसे बहुत कुछ जानने व समझने की सुविधा दे दी है ।
वह अन्ना के आंदोलन की सच्चाई समझ रही है, वह नेताओं की असलियत जान चुकी है और यह भी जान चुकी है कि मीडिया हाउसेस कैसे संचालित किये जाते हैं तथा वहां बैठने वाले उनके गुमाश्ते कैसे काम करते हैं । उनके लिए किसी की सफलता या असफलता का पैमाना कौन व कैसे तय करता है ।
बुद्धिजीवी होने का भ्रम पाल लेने वाले पत्रकारों की जमात इस बार अन्ना और उनकी टीम के आंदोलन पर लगातार सवालिया निशान लगा रही है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोग विशेष रूप से सवालों की बौछार कर रहे हैं ।
इनके सवाल अपने-अपने चैनलों पर तो तथाकथित शालीनता के दायरे में होते हैं पर फेसबुक व टि्वटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स और वेब पोर्टल्स पर वह शालीनता लगभग गायब मिलती है । वहां यह तबका भी वही आचरण करता है जो जनसामान्य कहने वाला वर्ग कर रहा है ।
पत्रकारिता की आड़ में इनके अपने ऐसे नितांत व्यक्तिगत विचारों अथवा बिकी हुई सोच पर इन्हें वहीं के वहीं जबर्दस्त तीखी प्रतिक्रिया भी मिलती हैं लेकिन सरकार की तरह ये पत्रकार भी इन प्रतिक्रियाओं की अनदेखी कर रहे हैं ।
खुद को पत्रकार कहने वाले एक चैनल के एंकर ने आज फेसबुक पर लिखा है- ''अन्ना हजारे के आंदोलन को जितना समर्थन पिछले साल मिलता दिख रहा था, क्या उसमें कोई फर्क नजर आ रहा है ?
लंबे आंदोलन के लिए रणनीति की कमी दिखती है आपको ?
क्या टीम अन्ना (अन्ना हजारे को छोड़) के तौर-तरीके आंदोलन को सही दिशा दे पा रहे हैं ?
इस आंदोलन में कोई भटकाव दिख रहा है आपको ?
अन्ना और टीम अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार जैसे बड़े मुद्दे पर एक बड़े आंदोलन के खड़े होने की जो संभावना पिछले साल दिखी थी, क्या वो उसी तीव्रता से अब भी कायम है ?
क्या इस आंदोलन में ठोस और दूरगामी रणनीति की कमी खटकती है ?
मेरे इस सवालों में आपको मेरा पूर्वाग्रह झलक सकता है लेकिन आपके जवाब से ही शायद मुझे कुछ समझने में आसानी हो जाए ....और हां , भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है ...भ्रष्ट नेता और अफसर देश को लूट रहे हैं ....अन्ना ने सही मुद्दे को देश के सामने रखा और जनमानस को झकझोरने में कामयाब भी हुए हैं लेकिन आगे का रास्ता कहां जा रहा है ....
एक अन्य एंकर अपने चैनल की साइट पर ''टीम अन्ना की कहानी में कोई टि्विस्ट नहीं..'' शीर्षक वाले आर्टीकल में लिखते हैं- देश की जनता के हक की लड़ाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को अंजाम तक पहुंचाने की जी तोड़ कोशिश में लगी टीम अन्ना और अन्ना हजारे को सफलता मिलेगी या नहीं, ये तो शायद कोई ज्योतिषी भी नहीं बता सकता लेकिन उनकी डगर में राहु, केतु और शनि रूपी इतने सारे ग्रह मौजूद हैं कि अंत या अंजाम बहुत ही धूमिल दिखाई पड़ता है.
अब इसे निराशावादी रुख भी कहा जा सकता है या कुछ लोग मान सकते हैं कि ये सरकार के हाथों बिके हुये एक पत्रकार के बोल हैं. लेकिन आठ दिनों के अनशन के बाद भी टीम अन्ना आज भी उतनी ही खाली हाथ है, जितना अनशन शुरू करने से पहले थी या फिर पिछले साल मुबई के आंदोलन के बाद थी.
यह एंकर आगे लिखते हैं- टीम अन्ना के तमाम चेहरे ऐसे पेश आ रहे थे, मानो पूरे देश के रहनुमा हों. और अगर सरकार और राजनीतिक दलों ने इन रहनुमाओं की नहीं सुनी तो देश की वो जनता जिसका प्रतिनिधित्व करने का दावा ये रहनुमा करते हैं, उनके आह्वान पर नेताओं व सरकार को नेस्तनाबूद कर देगी. एक अजीब सा दंभ या घमंड दिख रहा था सबके चेहरों पर, भाषण में, शैली में. मंच पर घमंड और दंभ के इस प्रदर्शन से विरक्ति सी हो रही थी.
किसी प्रकाशन हाउस के एडीटर लिखते हैं- सब कुछ घालमेल है- लोकपाल चाहिए, भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहिए, इस सरकार की छुट्टी चाहिए या फिर नई सरकार में एंट्री चाहिए ?
अन्ना-सम्प्रदाय इस तरह के अंतरविरोधों से घिरा है- यह तय है कि लोकपाल बिल संसद में ही बनेगा और सत्र आठ अगस्त से शुरू होगा। जाहिर है कि इनकी भूख हड़ताल के कारण सत्र पहले नहीं बुलाया जा सकता, संसद में कानून बनाने की घोषणा तब तक नहीं की जा सकती जब तक सदन में वह पारित न हो। नारे उछालना अलग बात है, भूखे रह कर तबियत खराब होने का बुलेटिन जारी कर सहानुभूति की लहर पर सवार होकर "अनियोजित" अप्रिशिक्षित भीड़ को जोड़ना अलग बात है।
ये तो चंद उदाहरण भर हैं अलबत्ता दिल्ली में बैठे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े अधिकांश एंकर्स के विचार लगभग ऐसे ही हैं ।
अब जरा इनके विचारों पर प्रतिक्रिया स्वरूप आमजन द्वारा जो पोस्ट किया जा रहा है, उसकी बानगी देखिये-
''मीडिया की असलियत सामने आई । जन्तर-मन्तर का प्रसारण बन्द... अन्ना आन्दोलन के दमन के बाद कल 10 जनपथ पर ताली बजाके अपना हक़ माँगने जायेंगें ये भाण्ड ....''
इसके साथ स्वनिर्मित एक फोटो भी पोस्ट की गई है जिसे मैं यहां बांईं ओर दूसरे नम्बर पर लगा रहा हूं । यह फोटो बताती है कि मीडिया के बारे में आमजन अब कैसी धारणा रखता है और अन्ना के आंदोलन पर नकारात्मक टिप्पणी उसे किस कदर अखर रही है ।
हालांकि व्यक्तिगत तौर पर न तो मैं कभी इस भाषा शैली का हिमायती रहा हूं और ना घृणा का इजहार करने वाले ऐसे फोटोग्राफ्स का, लेकिन इन्हें जगह इसलिए दे रहा हूं ताकि जनभावना को दरकिनार करके पत्रकारिता के नाम पर कुछ भी परोस देने का हक किसी को नहीं । कम से कम इस दौर में तो नहीं जब मीडिया खुद ''पेड न्यूज़'' से लेकर नेताओं के साथ भ्रष्टाचार में लिप्त होने जैसे आरोपों से घिरा है ।
बहरहाल, टीम अन्ना और उसके आंदोलन को अनेक सवालों के कठघरे में खड़ा करने, उनके आचरण पर टीका-टिप्पणी करने और आंदोलन के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले पत्रकारों से कुछ सवाल मैं भी पूछना चाहता हूं, यह जानते व समझते हुए भी कि मेरे प्रश्नों का जवाब शायद ही कोई दे।
मैं जानना चाहता हूं कि जिस तरह के सवाल आज टीम अन्ना की चाल व चरित्र पर खड़े किये जा रहे हैं, वैसे सवाल क्या कभी किसी पत्रकार ने देश को करीब-करीब 65 सालों से लूट रहे नेताओं के सामने खड़े किये हैं ?
क्या किसी राजनीतिक पार्टी से कभी पूछा है कि भ्रष्टाचार के आरोपों पर वह कोई जवाब देने की बजाय उसके नुमाइंदे विपक्षी पार्टी के भ्रष्टाचार को क्यों गिनाने लगते हैं जैसे देश में भ्रष्टाचार का कोई तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा हो ?
क्या किसी राजनीतिक दल के मुखिया से यह पूछने की हिम्मत दिखाई है कि उनके यहां नेताओं के परस्पर विरोधाभासी बयान जब उनके निजी विचार व पार्टी में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाते हैं तो टीम अन्ना के अलग-अलग बयान आंदोलन का भटकाव क्यों बताये जा रहे हैं ?
टीम अन्ना के सदस्य शांतिभूषण द्वारा मीडिया में कवरेज को लेकर की गई टिप्पणी पर खुद अन्ना हजारे द्वारा माफी मांगे जाने के बावजूद आंदोलन को ही हिंसक करार देने वाले पत्रकारों ने कभी किसी नेता से सरेआम बेइज्जत होने पर इतना रोष जताया है जबकि नेता आये दिन पत्रकारों को विभिन्न तरीकों से बेइज्जत करते हैं ?
किसी पत्रकार ने कभी किसी राजनीतिक दल से पूछा है कि सत्ता पर काबिज होने के बाद उनका आचार-व्यवहार ऐसा क्यों हो जाता है जैसे वह जनता के प्रति जवाबदेह न होकर जनता के मालिक हो, राजा हों और यह देश उनकी निजी जागीर हो ?
पूरी रणनीति से लगातार देश को लूट रहे नेताओं से तो कभी किसी पत्रकार ने नहीं पूछा कि उन्होंने और कितने वर्षों तक देश को लूटने की योजना बना रखी है लेकिन टीम अन्ना से जरूर यह पूछा जा रहा है कि जनलोकपाल व भ्रष्टाचार के लिए लड़ी जा रही लड़ाई के लिए उनकी रणनीति क्या है ?
देश को सुनियोजित षड्यंत्र के तहत लगातार गर्त में ले जाने वालों से कोई पत्रकार नहीं पूछ रहा कि वो देश को आखिर किस दिशा में ले जा रहे हैं पर टीम अन्ना को लेकर कह रहे हैं कि उनके तौर-तरीके आंदोलन को दिशाहीन बना रहे हैं।
टीम अन्ना की कहानी में कोई टि्वस्ट न देखने वाले एंकर को कभी किसी नेता से यह पूछते नहीं देखा कि उनकी पार्टी के विचारों में इतना टि्वस्ट क्यों है ?
क्यों उनकी कथनी और करनी में इतना भारी टि्वस्ट होता है जो देश को विकास के रास्ते पर टि्वस्ट नहीं करने दे रहा ?
टीम अन्ना के वक्तव्यों में दंभ महसूस करने वालों ने क्या कभी सोनिया गांधी, राहुल गांधी तथा उनकी जमात में शामिल तमाम लोगों में से किसी से पूछा है कि महंगाई, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, सीमापार के आतंकवाद, गरीबी को अपने हिसाब से परिभाषित करने, सेना को खोखला करने एवं अपने अजीबो-गरीब फैसलों से देश की साख को मिटटी में मिला देने जैसे मामलों पर चुप्पी क्यों साधी हुई है और क्या यह चुप्पी दंभ की परिचायक नहीं ?
ऊर्जा मंत्री के रूप में देश को सबसे बड़े ब्लैक आउट का तोहफा देने वाले सुशील कुमार शिंदे द्वारा गृहमंत्री का पद संभालते ही कहा जाता है कि अमेरिका में तो चार-चार दिनों तक ग्रिड फेल रहती हैं, तो कोई पत्रकार नहीं पूछता कि ये कैसा जवाब है ?
गृहमंत्री के पद पर रहते हुए पी चिदम्बरम जब कहते हैं कि आइसक्रीम खाने और मिनरल वाटर पीने वालों को महंगाई पर बोलने का अधिकार नहीं है, तब कोई पत्रकार उनसे नहीं पूछता कि ऐसे बेहूदे तर्क देने का अधिकार उन्हें किसने दिया ?
तब उन्हें उनके बयानों में कहीं कोई तंभ या अहंकार दिखाई नहीं देता ।
तब सभी चैनल स्टूडियो में उनके ही कुछ चमचों और हमपेशा लोगों के साथ बहस का तमाशा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं क्योंकि सीधे पूछने की न हिम्मत है और ना माद्दा ।
नेताओं से आयेदिन बेइज्जत होने वाले मीडियाकर्मी क्या इस बात का जवाब देंगे कि उन्हें टीम अन्ना की नीयत में खोट किसलिए दिखाई देने लगा है ?
भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है यह तो कोई नहीं बता सकता लेकिन आज जब देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है तब यदि टीम अन्ना जन आंदोलन कर रही है तो उसे लेकर इतने सवाल क्यों ?
ऐसे में अगर जनता इस आशय की सचित्र तीखी प्रतिक्रिया देती है कि ''मीडिया की असलियत सामने आई । जन्तर-मन्तर का प्रसारण बन्द... अन्ना आन्दोलन के दमन के बाद कल 10 जनपथ पर ताली बजाके अपना हक़ माँगने जायेंगें ये भाण्ड ....'' तो क्या गलत करती है।
मीडिया को समझना होगा कि जंतर-मंतर पर अन्ना के आंदोलन में जनता की सहभागिता चाहे जितनी हो, वह घरों से निकले या ना निकले पर सूचना तंत्र ने उसे बहुत कुछ जानने व समझने की सुविधा दे दी है ।
वह अन्ना के आंदोलन की सच्चाई समझ रही है, वह नेताओं की असलियत जान चुकी है और यह भी जान चुकी है कि मीडिया हाउसेस कैसे संचालित किये जाते हैं तथा वहां बैठने वाले उनके गुमाश्ते कैसे काम करते हैं । उनके लिए किसी की सफलता या असफलता का पैमाना कौन व कैसे तय करता है ।
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