जिस तरह से असीम त्रिवेदी को गिरफ्तार किया गया है उससे लगता है कि इस
सरकार का आम जनता के साथ, भारत के लोकतंत्र के साथ रिश्ता खत्म हो चुका गया
है.
पिछले छह महीनों से मैं देख रहा हूं कि इस पागलपन में एक नियमितता है. पहले ममता बनर्जी एक प्रोफेसर को गिरफ्तार कराती हैं. उसके बाद 60 साल पुराने अंबेडकर कार्टून पर संसद में बवाल होता है. सभी राजनीतिक दल इसे हटाने के लिए इकट्ठे होते हैं...उस शंकर के खिलाफ जो कार्टूनिंग के पितामह थे, जिनका नेहरु जैसे लोग भी सम्मान करते थे.
संसद के अंदर तो इनका 'सेंस ऑफ ह्युमर' खत्म हो चुका है. संसद के बाहर भी इन्हें यह मंज़ूर नहीं है.
साल 1975 में घोषित रूप से आपातकाल था. तब एक सेंसर बोर्ड होता था जो खबरों और कार्टूनों को सेंसर करता था.
अब सेंसरशिप और आपातकाल की घोषणा नहीं की गई है. लेकिन यह अघोषित आपातकाल है जो और भी दुखद है, और भी खतरनाक है.
ये लोग भेड़िए की खाल में छिपे हुए खतरनाक लोग हैं. हर कार्टून की आवाज़ को चुप कराने की कोशिश करते हैं.
मैं इस वक्त जर्मनी में हूँ और मैं इस कार्य की तुलना हिटलर से करूंगा. मुझे इसका वर्णन करने के लिए इससे उचित शब्द नज़र नहीं आता.
बड़ी सोच
हमारे 65 साल के लोकतंत्र में बड़े बड़े कार्टून आए हैं. अपने 30 वर्ष में यह काम करते हुए मैंने दस प्रधानमंत्रियों पर कार्टून बनाए हैं.
आम तौर पर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, माधवराव सिंधिया और टीएन सेशन जैसे बड़े लोग और नेता इनकी तारीफ करते रहे हैं और कार्टून की मूल प्रतियों की मांग करते रहे हैं.
मुझे याद है जब बीजेपी नेता और भारत के पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह पाकिस्तान स्थित चरमपंथियों के बदले अगवा किए गए जहाज़ के मुसाफिरों के साथ कंधार से वापस आए तो मैंने उन पर एक कार्टून बनाया.
इसमें जसवंत सिंह को तालिबान की वेशभूषा में दिखाया था और वे कंधे पर रॉकेट लॉंन्चर उठाकर प्रधानमंत्री वाजपेयी के कमरे में दाखिल हो रहे थे.
अगले दिन मुझे जसवंत सिंह का फोन आया और उन्होंने मुझसे उस कार्टून की मूल प्रति मांगी. उन्होंने कहा कि वे तालिबानी पहनावे में बड़े अच्छे लग रहे हैं और उस कार्टून को फ्रेम करवा कर अपने कमरे में लगाना चाहते हैं.
अभी आपने देखा होगा कि राष्ट्रपति बनने से पहले प्रणब मुखर्जी इंटरव्यू दे रहे थे तो उन्होंने अपने पीछे दीवार पर आरके लक्षमण के दो कार्टून लगा रखे हैं जो प्रणब मुखर्जी पर थे.
मुझे लगता है कि राजनीति में पिछले सालों में जैसे लोग आ गए हैं उनके स्तर में गिरावट आई है. वो कार्टून को समझ नहीं पाते और गलत मतलब निकालते हैं.
असीम के खिलाफ जिस तरह से कार्टून के आधार पर कार्रवाई की गई है वह निहायत ही शर्मनाक है और लोकतंत्र पर धब्बा है.
क्यों हैं असहनशील
जो असुरक्षित और कमज़ोर सरकारें होती हैं वो असहनशील भी होती हैं. क्योंकि हर विरोध में उन्हें लगता है कि यह हमारे प्रति विरोध है और जो सरकार के विरुद्ध होता है वो उन्हें देशद्रोह लगता है.
उसे ऐसे ही साबित करने के लिए वे कानून को तोड-मरोड़ कर अपने फायदे के लिए पेश करते हैं.
चाहे वो अन्ना हज़ारे का आंदोलन हो या रामदेव और अरविंद केजरीवाल हों, अगर कोई उनके खिलाफ कुछ कहे तो वो देशद्रोह है. अगर संसद के अंदर मुक्का घूसेबाज़ी पर उतर आए तो वो देशद्रोह नहीं है.
सीमा नहीं लांघी
यह कहना कि असीम ने अपनी सीमा लांघी गलत होगा. भारत में कार्टूनिंग सबसे कम भड़काने वाले होते हैं.
आप जा कर अमरीका, ब्रिटेन में देखिए यहां जर्मनी में देखिए जहां मैं इस वक्त बैठा हूँ. इन देशों में अपने नेताओं को नग्न दिखाया जाता है.
सीमा हर जगह होती है. यह विरोध की कला है, विद्रोह की कला नहीं है.
अंग्रेजों ने भी कभी किसी कार्टूनिस्ट को कार्टून बनाने के आधार पर गिरफ्तार नहीं किया.
65 साल के लोकतंत्र में आत्मविश्वास होना चाहिए. जिस देश में लोकतंत्र है वहां कार्टूनिंग कला फली फूली है. जिस दिन यह कला मर जाएगी लोकतंत्र भी ज्यादा दिन नहीं चलने वाला.
पिछले छह महीनों से मैं देख रहा हूं कि इस पागलपन में एक नियमितता है. पहले ममता बनर्जी एक प्रोफेसर को गिरफ्तार कराती हैं. उसके बाद 60 साल पुराने अंबेडकर कार्टून पर संसद में बवाल होता है. सभी राजनीतिक दल इसे हटाने के लिए इकट्ठे होते हैं...उस शंकर के खिलाफ जो कार्टूनिंग के पितामह थे, जिनका नेहरु जैसे लोग भी सम्मान करते थे.
संसद के अंदर तो इनका 'सेंस ऑफ ह्युमर' खत्म हो चुका है. संसद के बाहर भी इन्हें यह मंज़ूर नहीं है.
साल 1975 में घोषित रूप से आपातकाल था. तब एक सेंसर बोर्ड होता था जो खबरों और कार्टूनों को सेंसर करता था.
अब सेंसरशिप और आपातकाल की घोषणा नहीं की गई है. लेकिन यह अघोषित आपातकाल है जो और भी दुखद है, और भी खतरनाक है.
ये लोग भेड़िए की खाल में छिपे हुए खतरनाक लोग हैं. हर कार्टून की आवाज़ को चुप कराने की कोशिश करते हैं.
मैं इस वक्त जर्मनी में हूँ और मैं इस कार्य की तुलना हिटलर से करूंगा. मुझे इसका वर्णन करने के लिए इससे उचित शब्द नज़र नहीं आता.
बड़ी सोच
हमारे 65 साल के लोकतंत्र में बड़े बड़े कार्टून आए हैं. अपने 30 वर्ष में यह काम करते हुए मैंने दस प्रधानमंत्रियों पर कार्टून बनाए हैं.
आम तौर पर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, माधवराव सिंधिया और टीएन सेशन जैसे बड़े लोग और नेता इनकी तारीफ करते रहे हैं और कार्टून की मूल प्रतियों की मांग करते रहे हैं.
मुझे याद है जब बीजेपी नेता और भारत के पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह पाकिस्तान स्थित चरमपंथियों के बदले अगवा किए गए जहाज़ के मुसाफिरों के साथ कंधार से वापस आए तो मैंने उन पर एक कार्टून बनाया.
इसमें जसवंत सिंह को तालिबान की वेशभूषा में दिखाया था और वे कंधे पर रॉकेट लॉंन्चर उठाकर प्रधानमंत्री वाजपेयी के कमरे में दाखिल हो रहे थे.
अगले दिन मुझे जसवंत सिंह का फोन आया और उन्होंने मुझसे उस कार्टून की मूल प्रति मांगी. उन्होंने कहा कि वे तालिबानी पहनावे में बड़े अच्छे लग रहे हैं और उस कार्टून को फ्रेम करवा कर अपने कमरे में लगाना चाहते हैं.
अभी आपने देखा होगा कि राष्ट्रपति बनने से पहले प्रणब मुखर्जी इंटरव्यू दे रहे थे तो उन्होंने अपने पीछे दीवार पर आरके लक्षमण के दो कार्टून लगा रखे हैं जो प्रणब मुखर्जी पर थे.
मुझे लगता है कि राजनीति में पिछले सालों में जैसे लोग आ गए हैं उनके स्तर में गिरावट आई है. वो कार्टून को समझ नहीं पाते और गलत मतलब निकालते हैं.
असीम के खिलाफ जिस तरह से कार्टून के आधार पर कार्रवाई की गई है वह निहायत ही शर्मनाक है और लोकतंत्र पर धब्बा है.
क्यों हैं असहनशील
जो असुरक्षित और कमज़ोर सरकारें होती हैं वो असहनशील भी होती हैं. क्योंकि हर विरोध में उन्हें लगता है कि यह हमारे प्रति विरोध है और जो सरकार के विरुद्ध होता है वो उन्हें देशद्रोह लगता है.
उसे ऐसे ही साबित करने के लिए वे कानून को तोड-मरोड़ कर अपने फायदे के लिए पेश करते हैं.
चाहे वो अन्ना हज़ारे का आंदोलन हो या रामदेव और अरविंद केजरीवाल हों, अगर कोई उनके खिलाफ कुछ कहे तो वो देशद्रोह है. अगर संसद के अंदर मुक्का घूसेबाज़ी पर उतर आए तो वो देशद्रोह नहीं है.
सीमा नहीं लांघी
यह कहना कि असीम ने अपनी सीमा लांघी गलत होगा. भारत में कार्टूनिंग सबसे कम भड़काने वाले होते हैं.
आप जा कर अमरीका, ब्रिटेन में देखिए यहां जर्मनी में देखिए जहां मैं इस वक्त बैठा हूँ. इन देशों में अपने नेताओं को नग्न दिखाया जाता है.
सीमा हर जगह होती है. यह विरोध की कला है, विद्रोह की कला नहीं है.
अंग्रेजों ने भी कभी किसी कार्टूनिस्ट को कार्टून बनाने के आधार पर गिरफ्तार नहीं किया.
65 साल के लोकतंत्र में आत्मविश्वास होना चाहिए. जिस देश में लोकतंत्र है वहां कार्टूनिंग कला फली फूली है. जिस दिन यह कला मर जाएगी लोकतंत्र भी ज्यादा दिन नहीं चलने वाला.
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