शनिवार, 22 सितंबर 2012

सरकार है या शेखचिल्‍ली उवाच ?

कल प्रधानमंत्री का राष्‍ट्र के नाम पूरे 17 मिनट का संबोधन सुना। ना चेहरे पर कोई भाव, न किसी प्रकार का स्‍पंदन। आंखें जैसे एकदम ठहरी हुई। मुंह से शब्‍द जरूर निकल रहे थे पर कुछ इस तरह कि कोई जबरन बुलवा रहा हो। कोई स्‍क्रिप्‍ट सिर्फ पढ़ी जा रही हो।
सच तो यह है कि उनके चेहरे पर उतने भी भाव नहीं थे जितने कठपुतलियों को नचाते वक्‍त उनका सूत्रधार ले आता है।
कहा यह गया था कि रिटेल में एफडीआई की अनुमति देने तथा रसोई गैस व डीजल की कीमतें बढ़ाने की बाध्‍यता से देश की जनता को अवगत कराया जायेगा पर प्रधानमंत्री का संबोधन कहीं से जनता को मरहम लगाता प्रतीत नहीं हुआ। उन्‍होंने करीब-करीब वही सारी बातें दोहराईं, जिन्‍हें उनसे पूर्व उनके मंत्री या उनकी पार्टी के प्रवक्‍ता कह चुके थे।
प्रधानमंत्री की बॉडी लेंग्‍वेज ऐसी थी जैसे वह कल तक के अपने घटक दल तृणमूल कांग्रेस को सफाई दे रहे हों और उन दूसरे घटल दलों व बाहर से समर्थन दे रही पार्टियों को संतुष्‍ट करने का प्रयास कर रहे हों जिनके सहारे अब अल्‍पमत की सरकार को चलाना है।
यूपीए-2 में प्रधानमंत्री की कार्यशैली व उनके क्रियाकलापों को लेकर बहुत-कुछ लिखा जा चुका है पर कल राष्‍ट्र के नाम उनके संबोधन को सुनकर और उन्‍हें देखकर चुटकुलों की शक्‍ल में दो उदाहरण याद आ रहे हैं। और यही उदाहरण संभवत: उनकी मानसिकता को सही से रेखांकित भी करते हैं।
पहला उदाहरण कुछ इस तरह है-
एक शेखचिल्‍ली (खयाली पुलाव पकाने वाला) को कहीं से घी से भरा एक मटका मिल गया। उस मटके को उसने अपनी चारपाई के पास रख लिया और आंखें बंद करके सोचने लगा कि कल इस घी को बाजार में बेचकर अच्‍छे पैसे कमाऊंगा। जब पैसे मिल जायेंगे तब अच्‍छी सी लड़की से शादी करुंगा। शादी के बाद जब बच्‍चे होंगे तो उन्‍हें घुमाने के लिए घोड़ा गाड़ी खरीदूंगा। शाम को घर लौटकर बीबी से कहूंगा कि वह मेरी सेवा करे। मेरे पैर दबाये। और अगर उसने हील-हुज्‍जत की तो उसमें जोर की एक लात मारुंगा।
उसके इतना सोचते ही जोर की आवाज़ हुई क्‍योंकि उसने अपने खयालों में जिस काल्‍पनिक बीबी को लात मारी थी, वह दरअसल चारपाई के पास रखे घी के मटके में लगी और मटका फूटकर सारा घी जमीन पर जा गिरा। शेखचिल्‍ली के सारे सपने बिखर चुके थे।
यह उदाहरण पूरे यूपीए के संदर्भ में है जो खयाली पुलाव पकाने में मशगूल है। उसके मंत्री और कांग्रेस पार्टी के प्रवक्‍ता इस तरह का व्‍यवहार करते हैं कि देश उनकी जागीर है और वह उसके बावत जो चाहें, वह निर्णय लेने को स्‍वतंत्र हैं।
दूसरा उदाहरण उस संदर्भ में है जिसके बावत यूपीए सरकार दावा करती है कि 2जी स्‍पेक्‍ट्रम से लेकर कोयला ब्‍लॉकों का आवंटन और रिटेल में एफडीआई तक का निर्णय उन्‍होंने जनहित में किया। पेट्रोल व डीजल के दामों में बढ़ोत्‍तरी और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि के साथ-साथ उसकी राशनिंग देशहित में की।
यह उदाहरण कुछ इस तरह है-
किसी मानसिक रुग्‍णालय का एक कर्मचारी भागा-भागा डॉक्‍टर के पास पहुंचा और कहने लगा- डॉक्‍टर साहब- डॉक्‍टर साहब, लगता है फलां मरीज पूरी तरह ठीक हो चुका है।
डॉक्‍टर ने पूछा- तुम्‍हें ऐसा कैसे लगा ?
इस पर कर्मचारी ने बताया कि उसने हॉस्‍पीटल के तालाब में डूब रहे एक व्‍यक्‍ति को अपनी जान पर खेलकर बचा लिया। वह उसे सुरक्षित निकाल लाया।
डॉक्‍टर ने कहा- उसे बुलाओ, मैं उससे मिलना चाहता हूं।
कर्मचारी उसे अपने साथ लेकर आया तो डॉक्‍टर ने उसकी पीठ थपथपाकर शाबासी दी और पूछा कि जिस शख्‍स को तुमने मरने से बचाया, वह अब कहां है ?
इस पर उस मरीज का जवाब था- डॉक्‍टर साहब, वह तालाब में गिरने से भीग गया था ना इसलिए मैं उसके गले में रस्‍सी डालकर उसे वहीं पास वाले नीम के पेड़ पर सुखाने के लिए लटका आया हूं।
यूपीए सरकार आमजन के गले में महंगाई और भ्रष्‍टाचार का फंदा डालकर दलील दे रही है कि उसके सारे निर्णय जनहित में हैं और कीमतें बढ़ाना उसकी मजबूरी है।
यहां सवाल यह पैदा होता है कि अगर इतनी ही मजबूरी है तो मंत्री अपनी सुविधाओं और वेतन-भत्‍तों में कटौती करके जनता के सामने आदर्श प्रस्‍तुत क्‍यों नहीं करते?
अगर सरकार इतनी ही मजबूर है और देश की आर्थिक स्‍थिति बदहाल हो चुकी है तो अरबों का घोटाला करने वालों की संपत्‍ति जब्‍त करने की दिशा में कोई कदम क्‍यों नहीं उठाती?
कालेधन को वापस लाने की दिशा में किये जा रहे प्रयास इतने कमजोर क्‍यों हैं जबकि अब तो उस तृणमूल कांग्रेस ने भी उसे लाने की मांग कर दी है जो कल तक यूपीए सरकार का हिस्‍सा थी।
ऐसे तमाम उपाय हैं जिनसे देश की आर्थिक बदहाली दूर की जा सकती है, फिर सारा जोर केवल जन उपयोगी वस्‍तुओं की मूल्‍यवृद्धि करने पर ही क्‍यों है?
क्‍यों मंत्रियों की संपत्‍ति में हर साल कई सौ प्रतिशत की बढ़ोत्‍तरी हो रही है और क्‍यों आमजन का जीना मुहाल हो गया है?
अगर महंगाई और उदारवादी व्‍यवस्‍था से मंत्रियों व नेताओं की निजी संपत्‍ति दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है और राजनीतिक पार्टियों का फण्‍ड हजारों करोड़ हो रहा है तो किसान आत्‍महत्‍या करने पर कैसे मजबूर है, आमजनता को अपना घर चलाना भी क्‍यों मुश्‍किल होता जा रहा है?
जिस उदारवाद व उससे उपजी महंगाई तथा सरकार के जनहितकारी निर्णयों से देश के इन तथाकथित भाग्‍यविधाताओं का सेन्‍सेक्‍स लगातार ऊपर की ओर ही जा रहा है, वह तरीके आमजन को रसातल में क्‍यों ले जा रहे हैं और क्‍यों देश को आर्थिक बदहाली के दलदल में धंसाते जा रहे हैं?
एक सवाल और.......
आमजन अगर अपना सपना पूरा करने के लिए जैसे-तैसे कोई वाहन खरीद लेता है तो उस पर सरकार की पूरी नजर रहती है, उस पर टेक्‍स का बोझ तुरंत लाद दिया जाता है। वह आइसक्रीम खाता है या मिनरल वाटर की बोतल खरीद लेता है तो सरकार ताना कसती है लेकिन हजारों करोड़ की बेनामी संपत्‍ति हासिल करने वाले राजनीतिक दलों पर पूरी तरह मेहरबान रहती है। उनका हिसाब-किताब न देने की कानूनी व्‍यवस्‍था कर ली जाती है।
बेशक सत्‍ता पर काबिज लोग और उनके सहयोगी आज इन हालातों की गंभीरता को नकार रहे हैं लेकिन इसके परिणाम बहुत भयावह हो सकते हैं।
माना कि इस देश की जनता बहुत सहनशील है और वह कानून हाथ में लेने से परहेज करती है पर एक कड़वा सत्‍य यह भी है कि अति हर चीज की बुरी होती है और किसी न किसी स्‍तर पर आकर सहनशक्‍ति जवाब दे जाती है।
आग पर रखा हुआ पानी उसी ताप से उबलने लगता है, जिस ताप पर पहले वह सिर्फ गरम होता है।
समय रहते राजनेता और नेता इस सच्‍चाई को समझ लें तो बेहतर अन्‍यथा वो दिन ज्‍यादा दूर नहीं जब जनता इन्‍हें सब-कुछ समझा देगी। कई देश इसके उदाहरण हैं।
हो सकता है कि वह अभी और थोड़ा मौका दे लेकिन वह इतना जरूर जान चुकी है कि 65 सालों में किसी ने जनता के लिए कुछ नहीं किया। पहले गोरों ने उस पर अपने निर्णय थोपे और अब वही काम काले अंग्रेज कर रहे हैं।

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