बुधवार, 19 दिसंबर 2012

पुलिस ही बेचती है नक्सलियों को हथियार

नक्सली आंदोलन पर लिखी गई एक किताब में एक नक्सली नेता के बयान से दावा किया गया है कि पुलिस वाले न सिर्फ नक्सलियों को हथियार बेचते हैं बल्कि गोला बारूद तक देते हैं.
पेंगुइन प्रकाशन से हिन्दी और अंग्रेज़ी में प्रकाशित किताब ‘उसका नाम वासु नहीं’ में वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी ने नक्सलियों के सांगठनिक ढाँचे और उसकी आर्थिक-सामरिक व्यवस्था के बारे में भी विस्तार पूर्वक लिखा है.
इस किताब में लिखा गया है कि किस तरह से नक्सलियों के ख़िलाफ़ चलाए गए कथित जन आंदोलन सलवा जुड़ूम की योजना लालकृष्ण आडवाणी के गृहमंत्री रहते हुए दिल्ली में बनी थी.
इसमें नक्सली नेताओं के हवाले से कहा गया है कि देशद्रोह का मुक़द्दमा झेल रहे मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन नक्सलियों के संदेशवाहक थे.
इस किताब का आज दिल्ली में विमोचन होने जा रहा है.
'विदेशी हथियार नहीं'
नक्सलियों के एक नेता राजन्ना के हवाले से इस किताब में लिखा गया है कि नक्सलियों के पास पहली एके 47 बंदूक 1987 में आई थी. तब ये बंदूक डेढ़ लाख में आती थी लेकिन अब पाँच लाख तक में आती है.
लेखक के मुताबिक राजन्ना का कहना है, “हम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से हथियार नहीं ख़रीद सकते. कश्मीर और नॉर्थ ईस्ट के संगठन हमारा छोटा बजट देखकर घबरा जाते हैं.” उनका कहना है कि वे आईईडी और आरडीएक्स आदि का भी प्रयोग नहीं करते.
गोला-बारूद के सवाल पर राजन्ना ने कहा, “हमारा गोला बारूद पुलिस से हमारे पास बिचौलियों के द्वारा आता है. पुलिस बहुत लालची है. इस तरह के सौदे हर पुलिस स्टेशन में किए जाते हैं. बहुत से पुलिस वाले ऊपर से नीचे तक इसमें लगे हैं. यूं भी भारत में कोई एके 47 के लिए गोलियाँ नहीं बनाता. वे इंपोर्ट ही करनी होती हैं....हम अपनी ज़रुरतों का एक चौथाई हिस्सा ही ख़रीदते हैं. बाक़ी तो पुलिस से लूटा जाता है.”
इस किताब में बताया गया है कि नक्सली किस तरह हथियारों की अपनी फ़ैक्ट्री चलाते हैं और अपनी ज़रूरत का 80 प्रतिशत हथियार ख़ुद ही बनाते हैं.
किताब में एक वरिष्ठ नक्सली नेता कोसा के हवाले से लेखक ने लिखा है कि वर्ष 2002 में सीपीआई माओवादी का बजट एक करोड़ से ऊपर निकल गया था जो वर्ष 2010-11 में दस से बारह करोड़ हो गया. किताब में कोसा के हवाले से लिखा गया है, “तेंदू पत्ता से हमें पाँच से सात करोड़ तक की कमाई होती है. दंडकारण्य में हम दो तीन करोड़ खर्च करते हैं. ”
शुभ्रांशु चौधरी के मुताबिक नक्सली नेताओं ने इस बात की पुष्टि की कि उन्होंने एस्सार से भी एक करोड़ रुपए लिए थे. हालांकि इसे कुछ नक्सली नेताओं ने ‘भूल’ क़रार दिया.
लेखक इस बात पर आश्चर्य भी जताते हैं कि बस्तर से विशाखापट्टनम तक लौह अयस्क ले जाने वाली पाइप लाइन पर नक्सलियों ने हमला नहीं किया जबकि उसी दौरान सरकारी खनन कंपनियों पर लगातार हमले होते रहे.
‘आडवाणी की योजना थी सलवा जुड़ूम’
किताब में दावा किया गया है कि छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार भले ही नक्सलियों के ख़िलाफ़ चले विवादित आंदोलन सलवा जुड़ूम को स्वत: स्फूर्त जनांदोलन बताती हो, लेकिन सच्चाई ये है कि इसकी योजना भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के दिमाग की उपज है.
केंद्र सरकार के एक अधिकारी के हवाले से कहा गया है कि सलवा जुडूम की योजना लालकृष्ण आडवाणी के गृहमंत्री रहते हुए दिल्ली में बनी थी और इस आंदोलन को शुरु करने से पहले सरकार ने एक वर्ष की तैयारी की थी.
इस किताब में शुभ्रांशु चौधरी ने दस्तावेजी सबूतों के आधार पर लिखा है कि इस जन-जागरण अभियान की सूचना देने वाला फ़ैक्स जिस नंबर से आया था वह स्थानीय पुलिस थाने का था.
लेखक ने एक टेप का भी ज़िक्र किया है जिसमें बीजापुर के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक (एसपी) मनहर को कहते हुए सुना जा सकता है कि सलवा जुड़ूम में शामिल होने वाले हर गाँव को ढाई लाख रुपए दिए जाएंगे. लेखक का दावा है कि इस टेप में कहा गया है कि एक-दो बार समझाने पर गाँव वाले न मानें तो गाँव में आग लगा दी जाए और कोई पत्रकार दिखे तो गोली मार दी जाए.
इस किताब में कहा गया है कि यह संयोग नहीं था कि वर्ष 2005 में टाटा और एस्सार जैसी कंपनियों ने छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के साथ स्टील प्लांट लगाने के सहमति पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए और इसके बाद सलवा जूड़ूम आंदोलन शुरु हुआ.
दंतेवाड़ा के कलेक्टर की एक कार्ययोजना के हवाले से इस किताब में कहा गया है कि औद्योगिक समूह एस्सार ने सलवा जुड़ूम कैंप के लिए आर्थिक सहयोग देना भी स्वीकार किया था.
‘नक्सलियों के संदेश वाहक थे विनायक सेन’
इस किताब में शुभ्रांशु चौधरी ने नक्सली नेताओं के हवाले से लिखा है कि विनायक सेन नक्सलियों के लिए संदेशवाहक का काम करते थे और उन्हें वरिष्ठ नक्सली नेता नारायण सान्याल की क़ानूनी सहायता के लिए 50 हज़ार रुपए भी भेजे गए थे.
विनायक सेन को छत्तीसगढ़ पुलिस ने गिरफ़्तार किया था और नक्सली आंदोलन में सहयोग देने का आरोप लगाते हुए उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया था. विनायक सेन इस बात से इंकार करते रहे हैं कि उन्होंने नक्सलियों के संदेश वाहक की कोई भूमिका निभाई.
इस किताब में इस बात का ज़िक्र है कि जेल से ज़मानत पर रिहा होने के बाद जब विनायक सेन ने नक्सलियों की हिंसा की निंदा की तो कुछ नक्सली चौंक गए थे.
विनायक सेन के बारे में शुभ्रांशु चौधरी ने लिखा है कि हैदराबाद के मानवाधिकार कार्यकर्ता के बालगोपाल की मृत्यु से कुछ दिन पहले उनसे कहा था, “मैंने आंध्र की तरह छत्तीसगढ़ में शांति वार्ता शुरु करने का प्रयत्न किया था लेकिन विनायक सेन ने उसका विरोध किया. हमारा पूरा अभियान उनके विरोध से ढह गया. ”
लेखक का कहना है कि बालगोपाल के कई साथियों ने भी इस घटनाक्रम की पुष्टि की थी.
शुभ्रांशु चौधरी ने अपनी किताब में लिखा है कि एक समय छत्तीसगढ़ में श्रमिक आंदोलन का नेतृत्व करके देशभर में पहचान बनाने वाले शंकर गुहा नियोगी के बेटे जीत गुहा नियोगी और उनकी बेटी मुक्ति नियोगी दोनों नक्सली आंदोलन में काम कर चुके हैं.
हालांकि बाद में दोनों नक्सली आंदोलन से अलग हो गए. जीत भिलाई इस्पात संयंत्र में काम करने लगे और मुक्ति कांग्रेस पार्टी की ओर से दल्ली राजहरा की मेयर बन गईं.
डॉ. विनायक सेन भी छत्तीसगढ़ में अपने काम की शुरूआत नियोगी की ओर से स्थापित अस्पताल में सेवा देने से की थी.

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