सोमवार, 31 दिसंबर 2012

अब ताज़ा सितम ईजाद ना कर, यूँ ज़ुल्म ना कर..

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
31 दिसंबर, साल का आखिरी दिन। देश को मिली स्‍वतंत्रता का वो एक और साल जो इतिहास के पन्‍ने तो जरूर काले कर गया पर ऐसा कुछ नहीं कर पाया जिससे देश तथा देशवासी गौरव महसूस करें।
साल 2012 यूं तो तमाम घटनाक्रमों के लिए याद किया जायेगा लेकिन सबसे अधिक याद रहेगा उन धरने व प्रदर्शनों के लिए जिसकी दरकार लंबे समय से महसूस की जा रही थी।
चाहे बात महंगाई व भ्रष्‍टाचार की हो या फिर कानून-व्‍यवस्‍था की लाचारी से उपजे हालातों की, आमजन ने विशिष्‍टजनों को यह अहसास करा दिया कि अब और नहीं।
यह बात अलग है कि सत्‍ता के मद में चूर और अपनी-अपनी मांदों के अंदर से सशस्‍त्र बलों के बूते देश तथा देशवासियों को 'चला' रहे नेतागण अब भी सच्‍चाई समझने की कोशिश नहीं कर रहे।
वह नहीं समझ रहे कि 65 सालों की स्‍वतंत्रता ठीक उसी तरह चुक चुकी है जिस तरह वह खुद चुक गये हैं। 65 सालों का धैर्य अब जवाब देने लगा है क्‍योंकि किसी भी स्‍तर से उम्‍मीद की कोई किरण कहीं दिखाई नहीं दे रही।
शांतिपूर्वक अपनी बात कहने के लिए जुटने वाले 'लोक' को 'तंत्र' से लाठी व गोली खानी पड़ती हैं, आंसू गैस के गोले तथा पानी की बौछारें झेलनी पड़ती हैं।
क्‍या कोई बता सकता है कि यह कैसी स्‍वतंत्रता है और कैसा लोकतंत्र ?
क्‍या इसी दिन के लिए लोगों ने अपने प्राणों की आहुति देकर फिरंगियों से मुक्‍ति पाई थी ?  
क्‍या यह दिन देखने के लिए किसी ने अपनी पूरी जवानी जेल के सींखचों में काट दी थी और किसी ने अपना घर-परिवार भी दांव पर लगा दिया था?
जिस तापमान पर दूध को गर्म करने के लिए रखा जाता है, उसी तापमान पर एक समय वह न केवल उबलने लगता है बल्‍कि बर्तन से बाहर निकल जाता है। आग का तापमान नहीं बदलता पर दूध का तापमान बदलने लगता है।
आज यही हो रहा है क्‍योंकि 65 वर्षों से देश के तथाकथित भाग्‍यविधाताओं ने लोकतंत्र की आड़ में एक ऐसा तंत्र चला रखा है जिसमें लोक कहीं नहीं है।
बात चाहे केन्‍द्र सरकार की हो या राज्‍यों की। जो जहां काबिज हुआ, उसने अपने तरीके से लोकतंत्र की वो परिभाषा गढ़ ली, जो सिर्फ और  सिर्फ उसके अपने लिए मुफीद थी। सत्‍ता पर काबिज होने वालों की सूरतें बेशक कई मर्तबा बदली-बदली नजर आईं परंतु सीरतें किसी की नहीं बदलीं लिहाजा 65 सालों बाद भी हालात जस के तस बने हुए हैं।
यही कारण है कि जहां कहीं स्‍वतंत्रता के थोड़े बहुत सेनानी शेष हैं या ऐसे बुजुर्ग मौजूद हैं जिन्‍होंने वह दौर देखा है, उनकी जुबान यह कहते कतई नहीं लड़खड़ाती कि इससे अच्‍छा तो फिरंगियों का शासन था।
कहने-सुनने में बेशक यह बात एक किस्‍म का अपराधबोध कराती हो लेकिन विचारणीय अवश्‍य है।
ऐसा लगता है कि अब तक गोरों की कार्बन कापियों ने ही देश पर शासन किया, अपने तो कहीं खो गये।
ऐसा नहीं होता तो संवैधानिक अधिकारों के तहत अपनी बात रखने वाले या यूं कहें कि गूंगे, बहरे व अंधे सत्‍ताधीशों के कानों तक अपनी आवाज़ पहुंचाने का प्रयास करने वालों को बल पूर्वक खदेड़ा नहीं जाता।
ऐसा नहीं होता तो अपनों के बीच से नक्‍सलवाद पैदा नहीं होता और अपने ही लोग कश्‍मीर से इसलिए निर्वासित न होते क्‍योंकि हमारी राजनीति व राजनेता तमाशबीन बनकर बैठे रहे हैं।
वर्ष 2012 की यह आखिरी तारीख सोचने, समझने और भविष्‍य को रेखांकित करने का भी संभवत: आखिरी अवसर है। जो बीत गया, जो घट गया उसे वापस कोई नहीं ला सकता अलबत्‍ता उससे सबक जरूर सीखा जा सकता है।
कहते हैं कि जो इतिहास से सबक नहीं सीखता, वह इतिहास दोहराने को अभिशप्‍त होता है।
65 सालों से हमारी राजनीतिक पार्टियां और उन्‍हें संचालित करने वाले राजनेता जो तमाशा देख रहे हैं अथवा लोकतंत्र के नाम पर जैसा तमाशा कर रहे हैं, उन्‍हें अब समय रहते समझ लेना चाहिए कि वक्‍त जब करवट लेता है तो कई बार तमाशा देखने वालों को खुद भी तमाशा बनते देर नहीं लगती।
विश्‍व ने ऐसे कई तमाशे गत वर्षों में देखे भी हैं।
दिल्‍ली में एक लड़की के साथ किये गये सामूहिक दुराचार से उपजा आक्रोश भी यही ताक़ीद कर रहा है कि वक्‍त करवट ले चुका है। हमारे सत्‍ताधीश वक्‍त की इस हलचल को सिर्फ लड़की के साथ हुए दुराचार के परिपेक्ष में न देखें तो ही बेहतर है। लड़की के साथ किया गया घिनौना कृत्‍य तो प्रतीक मात्र था वरना सच्‍चाई यह है कि 'लोक' का 'तंत्र' पर से भरोसा पूरी तरह उठ चुका है क्‍योंकि 65 सालों से यह तंत्र लोक को सिर्फ और सिर्फ धोखा देता चला आया है।
राजनेता अगर समझना चाहते हैं तो समझ लें-
अब ताज़ा सितम ईजाद ना कर ...........यूँ ज़ुल्म ना कर .....बेदाद ना कर..........
पहले ही बहुत नाशाद हैं हम ........तू और हमें नाशाद ना कर .............

साल 2012 की आखिरी तारीख, उन सभी के लिए समझने का भी संभवत: अंतिम अवसर है जिन्‍होंने देश को अपनी जागीर तथा देशवासियों को अपने हुक्‍म का गुलाम समझ रखा है।
उन्‍हें समझ लेना चाहिए कि जनता को अब उनसे घिन आने लगी है और उनका कोई कृत्‍य भरोसा पैदा नहीं करता। उनकी सहानुभूति खोखली लगती है और आंसू घड़ियाली।
जनता की नजर में 65 साल पहले देश को छोड़कर जाने वाले फिरंगी शासकों तथा 65 सालों से काबिज उनके अनुयायियों में कोई फर्क नहीं लगता।
लोकतंत्र के फटे हुए ढोल का सुर देश की नौजवान पीढ़ी को इस कदर कर्कश लगने लगा है कि वह उसकी बात करने वालों के सामने ही अपने कानों पर हाथ रख लेते हैं।
बिना किसी दोष के पुलिस की लाठी खाने वाले और नेताओं के आगे बेबस कई लोग पूछते भी हैं कि यदि यही लोकतंत्र है तो तानाशाही क्‍या होती है।

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