(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
क्या भारत अराजकता और गृहयुद्ध की ओर बढ़ रहा है?
क्या देश की कानून-व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त होने के कगार तक जा पहुंची है?
हो सकता है कि पहली नजर में आपको यह प्रश्न बेमानी लगें... लेकिन गौर करें कि क्या इनमें थोड़ी सी भी सच्चाई है।
गौर करने को इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आज हमारे पास देश की किसी भी समस्या पर गौर करने के लिए वक्त ही कहां है।
हम सब 'उसकी कमीज, मेरी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों' के फेर में उलझे हुए हैं... या एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत उलझा दिए गये हैं।
यकीन न हो तो थोड़ा सा वक्त निकाल कर अपने चारों ओर नजरें घुमाकर देखिए। बहुत कम समय में पता लग जायेगा कि तरक्की की आड़ में हमें 'स्टेटस' की एक ऐसी दौड़ का हिस्सा बना दिया गया है जो कब और कहां जाकर खत्म होगी, कोई बताने वाला नहीं।
मास्टर से लेकर डॉक्टर तक और नेता से लेकर अभिनेता तक, वही सफल कहलाता है जिसने अच्छा पैसा कमाया हो। हर योग्यता का मापदण्ड सिर्फ और सिर्फ पैसा है।
कोई किसी से यह पूछने वाला नहीं कि उसकी कमाई का स्त्रोत क्या है... और वह स्त्रोत कितना पाक या कितना नापाक है।
देश में क्या हो रहा है, यह सोचने का वक्त किसके पास होगा जब वह हर वक्त इस सोच में डूबा रहेगा कि मेरा आर्थिक स्तर मेरे पड़ोसी या रिश्तेदारों की तुलना में ऊपर कैसे हो।
एकदम सच कहते हैं बचे-खुचे वो चंद लोग जिन्होंने फिरंगियों का शासन देखा है। जिन्होंने गांधी बाबा और सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां तथा उनके जैसे तमाम जाने-अनजाने क्रांतिकारियों को स्वतंत्रता की खातिर अपना सर्वस्व न्यौछावर करते देखा है।
वो कहते हैं कि 'जाया' हो गई हमारे शूरवीरों की 'शहादत' और 'निष्फल' हो गई 'स्वतंत्रता'।
वो ये भी कहते हैं कि कार्बन कापी कितनी ही अच्छी क्यों न हो, वो मूलप्रति की तुलना नहीं कर सकती।
इन बुजुर्गों का कहना है कि फिरंगियों ने भारत को गुलाम बनाए रखने के लिए नि:संदेह 'फूट डालो और राज्य करो' की नीति अपनाई तथा जाते-जाते अखण्ड भारत को खण्डित कर दिया.... लेकिन सवाल यह भी है कि आज के शासक क्या कर रहे हैं।
स्वतंत्र भारत के शासक तो वोट की राजनीति के लिए उनसे ज्यादा गिर चुके हैं।
जाति, धर्म, संप्रदाय, ऊंच-नीच, जात-पांत, गरीब-अमीर से लेकर पता नहीं कितने हिस्सों में लोगों को सिर्फ इसलिए बांटकर रख दिया ताकि कुर्सी पर कब्जा बरकरार रहे।
दिमाग पर जोर डालिए और बताइए कि क्या दुनिया के किसी मुल्क में कोई अपराधी यह कहकर अपने गुनाह को जायज ठहरा सकता है कि उससे पहले अनेक दूसरे लोगों ने वही अपराध किया है तथा बहुत से दूसरे लोग आज भी कर रहे हैं इसलिए मैंने गुनाह करके क्या गुनाह कर दिया।
आप विश्व के नक्शे में एक भी देश ऐसा नहीं तलाश पायेंगे....पर भारत के भाग्य विधाता यही कर रहे हैं।
बात चाहे भ्रष्टाचार की हो या दुराचार, कदाचार, अनाचार अथवा व्यभिचार की.....सभी को बड़ी चालाकी से दलगत राजनीति का हिस्सा बना दिया जाता है।
भ्रष्टाचार के आरोप लगें तो यूपीए कहती है कि हमारा भ्रष्टाचार राजग के भ्रष्टाचार से बहुत छोटा है। उनके शासनकाल में तो इससे ज्यादा भ्रष्टाचार था अथवा हमारे भ्रष्टाचार की नींव उनके शासनकाल में रखी गई थी।
ऐसा लगता है जैसे राजग के नेताओं का भ्रष्टाचार यूपीए के नेताओं को भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस दे गया।
निर्लज्जता की पराकाष्ठा तो देखिए। दामिनी और गुड़िया....या देश में हर रोज हवस का शिकार बनाई जा रही दूसरी महिलाएं, लड़कियों व बच्चियों के मामलों पर देश के गृहमंत्री का बयान आता है कि रेप केवल दिल्ली में ही नहीं हो रहे। गृहमंत्री का आशय उन आंकड़ों से था जिनके अनुसार देश में रेप के सर्वाधिक मामले मध्यप्रदेश में होते हैं, जहां भाजपा का शासन है।
यानि यहां भी दलगत राजनीति। यहां भी वही दलील कि जब दूसरे राज्यों में बलात्कार हो रहे हैं तो दिल्ली में बलात्कारों पर इतना शोर क्यों।
इन बेशर्मों से कोई यह पूछने वाला नहीं कि अगर 2जी में भ्रष्टाचार राजग की देन है, अगर कोलगेट का भ्रष्टाचार राजग की देन है, अगर हेलीकॉप्टर घोटाले की नींव राजग ने रखी थी तो तुम चुप क्यों थे और अब भी चुप क्यों हो?
देश को घुन की तरह खोखला करने वाले नेताओं को चिन्हित कर उन्हें जेल की सलाखों के पीछे क्यों नहीं भेजते ?
पिछले नौ सालों से सत्ता की बागडोर तुम्हारे हाथों में है। कानून-व्यवस्था की कमान तुम्हारे पास है, फिर किसका मुंह ताक रहे हो... और क्यों ताक रहे हो ?
क्या केवल इसलिए कि जनता को इस आशय की दलील देकर देश को लगातार लूटते रहने का मौका हाथ से न निकल जाए कि हर घोटाला राजग के शासनकाल से शुरू हुआ।
कहीं ऐसा तो नहीं कि 'चोर-चोर, मौसेरे भाई' की कहावत को चरितार्थ करते हुए आप सब देश को इसी तरह लूटते रहना चाहते हो और कानून-व्यवस्था का इस्तेमाल केवल निजी हित में करते हुए देश को 'हरम' बना देने पर आमादा हो।
एक ऐसा 'हरम'...जिसमें किसी महिला की आबरू कोई जब चाहे और जहां चाहे तार-तार कर सके। कोई जब चाहे और जितना चाहे देश को लूटकर विदेशों में अपनी तिजोरियां भर सके... जनता सवाल करे तो उनके जवाब देने की जगह यह कहा जाए कि हमसे अधिक तो तब हुआ जब हम विपक्षी दल थे।
इन स्थितियों के लिए केवल नेता और राजनीतिक दल ही जिम्मेदार नहीं है। इनके लिए वो मीडिया भी पूरी तरह जिम्मेदार है जो नेताओं की तरह ऐश-मौज भोगने, उन्हीं के जैसा चाल-चलन रखने तथा उन्हीं की तरह कथनी व करनी के भेद का हिमायती बन चुका है।
देश में हो रहे घोटालों, कालेधन, कानून-व्यवस्था की बदहाली तथा नेताओं की बदजुबानी पर चीखने-चिल्लाने वाले मीडिया घराने से कोई यह पूछे कि उनका दामन कितना पाक है।
टेबल के नीचे कोलगेट मामले में कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल से एक टीवी चैनल के संपादकों द्वारा कथित डील करने का मामला भले ही फिलहाल अदालत में लंबित है लेकिन क्या किसी से यह छिपा है कि ऐसी कितनी डील सरकार व सरकारी नुमाइंदों से मीडिया घराने के लोग हर रोज करते हैं।
यह डील तो नवीन जिंदल के अड़ियल रुख की वजह से सामने आ गई अलबत्ता किस पार्टी, किस नेता और किस खबर को कितना स्लॉट फिक्स करना है, यह भी अंदर की बात है। किस मामले को हवा देनी है... और हवा का रुख किस ओर मोड़ना है, सब-कुछ पहले से तय होता है। ये बात दीगर है कि जब हवा का रुख सत्ताधारी दल के खिलाफ दिखाई देने लगे और चुनाव नजदीक हों तो डील भी डोलने लगती है।
यही कारण है बच्ची से रेप जैसे अपराध को लेकर जब दिल्ली के पुलिस कमिश्नर से कोई पत्रकार उनकी अपनी जिम्मेदारी संबंधी बात करते हुए इस्तीफे के बावत प्रश्न पूछ बैठता है तो बड़ी हेकड़ी के साथ कमिश्नर साहब प्रतिप्रश्न करते हैं कि किसी रिपोर्टर की गलती पर संपादक इस्तीफा देता है क्या, जो मैं अपने अधीनस्थों की गलती पर दे दूं।
दरअसल ऐसा कहकर कमिश्नर साहब मीडिया को उसकी औकात बता रहे होते हैं जबकि सच्चाई इसके उलट है।
मीडिया से जुड़े लोग जानते हैं कि हर खबर के लिए संपादक न केवल जिम्मेदार होता है बल्कि यदि कोई कानून का सहारा लेता है तो सबसे पहले संपादक को ही कठघरे में खड़ा किया जाता है.. और संपादक ऐसा कोई जवाब नहीं दे सकता जैसा कि दिल्ली पुलिस के कमिश्नर ने दिया।
यदि आप कुछ जागरूक टाइप के नागरिक हैं तो इसी तरह के सीन लगभग हर रोज टीवी पर जरूर देखते होंगे। ये सीन होते हैं ज्वलंत मुद्दों पर आयोजित उन बहसों के रूप में जो इन दिनों समाचार जगत के लिए फैशन बन गयी हैं। उनकी अपनी भाषा में इसे 'पैनल डिस्कशन' कहते हैं। सभी प्रमुख समाचार चैनलों ने इसके लिए अलग नाम और समय निर्धारित कर लिए हैं। इस पैनल डिस्कशन में रटे-रटाए चेहरे शामिल होते हैं जिन्हें देखकर शायद आपको ऊब होती हो लेकिन आपके पास उसी तरह 'च्वॉइस' नहीं है जिस तरह प्रधानमंत्री चुनने की भी कोई 'च्वॉइस' नहीं होती।
बहरहाल, उन मुद्दों के लिए कोई जिम्मेदार... या 'बड़ा नेता' इस पैनल डिस्कशन का हिस्सा नहीं बनता। पार्टियां अपने दोयम दर्जे के नेताओं अथवा प्रवक्ताओं को भेज देती हैं और चैनल कुछ ऐसे तत्वों को बुला लाते हैं जो 'एक्सपायर' हो चुके होते हैं।
दिमाग पर जोर डालकर बताइये कि आपने कभी सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह, राजनाथ सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, मुलायम सिंह, अखिलेश यादव, मायावती, जयाललिता, शिवराज सिंह, शीला दीक्षित.... और यहां तक कि किसी कद्दावर वामपंथी या दूसरी पाटियों के बड़े नेताओं को 'पैनल डिस्कशन' का हिस्सा बनते देखा है। और देखा है तो आखिरी बार कब देखा है जबकि यूपीए के दूसरे शासनकाल में शायद ही कोई महीना ऐसा बीता हो जब देश उद्वेलित हुए बिना रह पाया हो।
इसका भी एक महत्वपूर्ण कारण मीडिया घरानों का दोहरा चरित्र है। रेप के मामलों पर पूरे-पूरे दिन हायतौबा करने वाले और अखबार के पहले पन्नों को रंगने वाले मीडिया घरानों को न तो 'बाबा बंगाली' के वशीकरण मंत्र व प्रेमिका से मिलवाने की गारंटीशुदा विज्ञापनों को छापने से परहेज है और ना 'मीठी-मीठी' बातों के लिए कॉल करने की आड़ में कॉलगर्ल्स से संपर्क स्थापित कराने वाले विज्ञापनों को छापने में कोई आपत्ति है। ना किसी 'डिओड्योरेंट' के उस विज्ञापन को देने में कोई शर्मिंदगी महसूस होती है जिसमें उसकी खुशबू के प्रभाववश लड़कियां, लड़के के पूरे बदन पर लिपिस्टिक से रंगे अपने होठों के निशान बना देती हैं।
इन विज्ञापनों का प्रसारण करते वक्त मीडिया घरानों की लज्जा को ग्रहण लग जाता है। तब उन्हें कहीं से नहीं लगता कि उनके द्वारा प्रसारित अश्लील विज्ञापन भी सामाजिक विकृति की बड़ी वजह बन रहे हैं। ऐसे किसी मुद्दे पर कभी कोई पैनल डिस्कशन आयोजित नहीं कराया जाता।
इसी प्रकार बाहरी आतंकवाद की बात हो या नक्सलवाद की, सीमाओं की सुरक्षा का मामला हो या पड़ोसी मुल्क के दुस्साहस का....कभी किसी मुद्दे पर देश के जिम्मेदार नेताओं को सामने आकर जन-सहभागी बनते पाया है?
शायद कभी नहीं।
हां! अपनी कुर्सी कैसे बचाए रखनी है, इस मामले में सब पारंगत हैं। कुर्सी खतरे में दिखाई देती है तो चौपाल पर बैठकर बात करने से भी परहेज नहीं होता।
नक्सलवाद दिन-दूनी, रात चौगुनी गति से अपने पैर पसार रहा है। आतंकवाद का दायरा बड़े शहरों से छोटे शहरों की ओर बढ़ रहा है। इन्हें लेकर धर्म, जाति व संप्रदाय विशेष की संलिप्तता अथवा उनके उत्पीड़न पर राजनीति तो जमकर की जाती है लेकिन समस्या के तौर पर इन्हें नहीं देखा जाता। कभी नहीं सोचा जाता कि आखिर ये समस्याएं क्यों बढ़ती जा रही हैं। क्या है इनके मूल में और क्यों लोग अपने ही देश के दुश्मन बने हुए हैं।
ऐसा इसलिए क्योंकि इन सबके मूल में वही लोग हैं जिन्हें जनता जिम्मेदारी तो सौंपती है समाधान करने के लिए लेकिन वह खुद समस्या बनकर खड़े हो जाते हैं। नक्सलवाद की जड़ में वही हैं...और आतंकवाद की जड़ में भी वही। मेड़ ही खेत को खा रही है। रक्षक बन गये हैं भक्षक। मुजरिमों के हिमायती बन बैठे हैं मुंसिफ। कमजोर, लाचार और गरीब आदमी को कहीं से कोई न्याय की उम्मीद नजर नहीं आती। चारों ओर उसे अंधकार ही अंधकार दिखाई देता है। पब्लिक के गुस्से को समझने की बजाए पुलिस नेताओं के हाथ की कठपुतली बन उस पर लाठियां भांजती है। निहत्थों पर जब-तब गोलियां बरसाने से नहीं चूकती। पब्लिक की जगह वह पॉलिटिशियन की हिफाजत करती है।
एक बच्ची के साथ हुई दरिंदगी की कीमत 2 हजार रुपये आंकी जाती है और ऊपर से नीचे तक सब कहते हैं कि जांच के बाद कार्यवाही होगी।
एक अरब से ऊपर की आबादी वाले देश में चंद लोग जब व्यवस्था के खिलाफ सड़कों पर उतरते हैं तो उन्हें लाठी-डण्डों का उपयोग तथा कानून का दुरुपयोग करके चुप रहने को मजबूर कर दिया जाता है।
अब बताइए कि क्या हमारा देश अराजकता और गृहयुद्ध की ओर नहीं बढ़ रहा है?
क्या देश में कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज है ?
क्या हमारी न्याय प्रणाली ऐसा कुछ कर पा रही है जिससे आमजन का कानून-व्यवस्था पर भरोसा कायम रह सके?
यदि नहीं....तो लोग और कितने दिन यह सब-कुछ सहेंगे?
कब तक इन नेताओं के षड्यंत्र का शिकार होते रहेंगे?
सब-कुछ जानते व समझते हुए कब तक तमाशबीन बने रहेंगे?
कब तक धैर्य रखेंगे?
क्या भारत अराजकता और गृहयुद्ध की ओर बढ़ रहा है?
क्या देश की कानून-व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त होने के कगार तक जा पहुंची है?
हो सकता है कि पहली नजर में आपको यह प्रश्न बेमानी लगें... लेकिन गौर करें कि क्या इनमें थोड़ी सी भी सच्चाई है।
गौर करने को इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आज हमारे पास देश की किसी भी समस्या पर गौर करने के लिए वक्त ही कहां है।
हम सब 'उसकी कमीज, मेरी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों' के फेर में उलझे हुए हैं... या एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत उलझा दिए गये हैं।
यकीन न हो तो थोड़ा सा वक्त निकाल कर अपने चारों ओर नजरें घुमाकर देखिए। बहुत कम समय में पता लग जायेगा कि तरक्की की आड़ में हमें 'स्टेटस' की एक ऐसी दौड़ का हिस्सा बना दिया गया है जो कब और कहां जाकर खत्म होगी, कोई बताने वाला नहीं।
मास्टर से लेकर डॉक्टर तक और नेता से लेकर अभिनेता तक, वही सफल कहलाता है जिसने अच्छा पैसा कमाया हो। हर योग्यता का मापदण्ड सिर्फ और सिर्फ पैसा है।
कोई किसी से यह पूछने वाला नहीं कि उसकी कमाई का स्त्रोत क्या है... और वह स्त्रोत कितना पाक या कितना नापाक है।
देश में क्या हो रहा है, यह सोचने का वक्त किसके पास होगा जब वह हर वक्त इस सोच में डूबा रहेगा कि मेरा आर्थिक स्तर मेरे पड़ोसी या रिश्तेदारों की तुलना में ऊपर कैसे हो।
एकदम सच कहते हैं बचे-खुचे वो चंद लोग जिन्होंने फिरंगियों का शासन देखा है। जिन्होंने गांधी बाबा और सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां तथा उनके जैसे तमाम जाने-अनजाने क्रांतिकारियों को स्वतंत्रता की खातिर अपना सर्वस्व न्यौछावर करते देखा है।
वो कहते हैं कि 'जाया' हो गई हमारे शूरवीरों की 'शहादत' और 'निष्फल' हो गई 'स्वतंत्रता'।
वो ये भी कहते हैं कि कार्बन कापी कितनी ही अच्छी क्यों न हो, वो मूलप्रति की तुलना नहीं कर सकती।
इन बुजुर्गों का कहना है कि फिरंगियों ने भारत को गुलाम बनाए रखने के लिए नि:संदेह 'फूट डालो और राज्य करो' की नीति अपनाई तथा जाते-जाते अखण्ड भारत को खण्डित कर दिया.... लेकिन सवाल यह भी है कि आज के शासक क्या कर रहे हैं।
स्वतंत्र भारत के शासक तो वोट की राजनीति के लिए उनसे ज्यादा गिर चुके हैं।
जाति, धर्म, संप्रदाय, ऊंच-नीच, जात-पांत, गरीब-अमीर से लेकर पता नहीं कितने हिस्सों में लोगों को सिर्फ इसलिए बांटकर रख दिया ताकि कुर्सी पर कब्जा बरकरार रहे।
दिमाग पर जोर डालिए और बताइए कि क्या दुनिया के किसी मुल्क में कोई अपराधी यह कहकर अपने गुनाह को जायज ठहरा सकता है कि उससे पहले अनेक दूसरे लोगों ने वही अपराध किया है तथा बहुत से दूसरे लोग आज भी कर रहे हैं इसलिए मैंने गुनाह करके क्या गुनाह कर दिया।
आप विश्व के नक्शे में एक भी देश ऐसा नहीं तलाश पायेंगे....पर भारत के भाग्य विधाता यही कर रहे हैं।
बात चाहे भ्रष्टाचार की हो या दुराचार, कदाचार, अनाचार अथवा व्यभिचार की.....सभी को बड़ी चालाकी से दलगत राजनीति का हिस्सा बना दिया जाता है।
भ्रष्टाचार के आरोप लगें तो यूपीए कहती है कि हमारा भ्रष्टाचार राजग के भ्रष्टाचार से बहुत छोटा है। उनके शासनकाल में तो इससे ज्यादा भ्रष्टाचार था अथवा हमारे भ्रष्टाचार की नींव उनके शासनकाल में रखी गई थी।
ऐसा लगता है जैसे राजग के नेताओं का भ्रष्टाचार यूपीए के नेताओं को भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस दे गया।
निर्लज्जता की पराकाष्ठा तो देखिए। दामिनी और गुड़िया....या देश में हर रोज हवस का शिकार बनाई जा रही दूसरी महिलाएं, लड़कियों व बच्चियों के मामलों पर देश के गृहमंत्री का बयान आता है कि रेप केवल दिल्ली में ही नहीं हो रहे। गृहमंत्री का आशय उन आंकड़ों से था जिनके अनुसार देश में रेप के सर्वाधिक मामले मध्यप्रदेश में होते हैं, जहां भाजपा का शासन है।
यानि यहां भी दलगत राजनीति। यहां भी वही दलील कि जब दूसरे राज्यों में बलात्कार हो रहे हैं तो दिल्ली में बलात्कारों पर इतना शोर क्यों।
इन बेशर्मों से कोई यह पूछने वाला नहीं कि अगर 2जी में भ्रष्टाचार राजग की देन है, अगर कोलगेट का भ्रष्टाचार राजग की देन है, अगर हेलीकॉप्टर घोटाले की नींव राजग ने रखी थी तो तुम चुप क्यों थे और अब भी चुप क्यों हो?
देश को घुन की तरह खोखला करने वाले नेताओं को चिन्हित कर उन्हें जेल की सलाखों के पीछे क्यों नहीं भेजते ?
पिछले नौ सालों से सत्ता की बागडोर तुम्हारे हाथों में है। कानून-व्यवस्था की कमान तुम्हारे पास है, फिर किसका मुंह ताक रहे हो... और क्यों ताक रहे हो ?
क्या केवल इसलिए कि जनता को इस आशय की दलील देकर देश को लगातार लूटते रहने का मौका हाथ से न निकल जाए कि हर घोटाला राजग के शासनकाल से शुरू हुआ।
कहीं ऐसा तो नहीं कि 'चोर-चोर, मौसेरे भाई' की कहावत को चरितार्थ करते हुए आप सब देश को इसी तरह लूटते रहना चाहते हो और कानून-व्यवस्था का इस्तेमाल केवल निजी हित में करते हुए देश को 'हरम' बना देने पर आमादा हो।
एक ऐसा 'हरम'...जिसमें किसी महिला की आबरू कोई जब चाहे और जहां चाहे तार-तार कर सके। कोई जब चाहे और जितना चाहे देश को लूटकर विदेशों में अपनी तिजोरियां भर सके... जनता सवाल करे तो उनके जवाब देने की जगह यह कहा जाए कि हमसे अधिक तो तब हुआ जब हम विपक्षी दल थे।
इन स्थितियों के लिए केवल नेता और राजनीतिक दल ही जिम्मेदार नहीं है। इनके लिए वो मीडिया भी पूरी तरह जिम्मेदार है जो नेताओं की तरह ऐश-मौज भोगने, उन्हीं के जैसा चाल-चलन रखने तथा उन्हीं की तरह कथनी व करनी के भेद का हिमायती बन चुका है।
देश में हो रहे घोटालों, कालेधन, कानून-व्यवस्था की बदहाली तथा नेताओं की बदजुबानी पर चीखने-चिल्लाने वाले मीडिया घराने से कोई यह पूछे कि उनका दामन कितना पाक है।
टेबल के नीचे कोलगेट मामले में कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल से एक टीवी चैनल के संपादकों द्वारा कथित डील करने का मामला भले ही फिलहाल अदालत में लंबित है लेकिन क्या किसी से यह छिपा है कि ऐसी कितनी डील सरकार व सरकारी नुमाइंदों से मीडिया घराने के लोग हर रोज करते हैं।
यह डील तो नवीन जिंदल के अड़ियल रुख की वजह से सामने आ गई अलबत्ता किस पार्टी, किस नेता और किस खबर को कितना स्लॉट फिक्स करना है, यह भी अंदर की बात है। किस मामले को हवा देनी है... और हवा का रुख किस ओर मोड़ना है, सब-कुछ पहले से तय होता है। ये बात दीगर है कि जब हवा का रुख सत्ताधारी दल के खिलाफ दिखाई देने लगे और चुनाव नजदीक हों तो डील भी डोलने लगती है।
यही कारण है बच्ची से रेप जैसे अपराध को लेकर जब दिल्ली के पुलिस कमिश्नर से कोई पत्रकार उनकी अपनी जिम्मेदारी संबंधी बात करते हुए इस्तीफे के बावत प्रश्न पूछ बैठता है तो बड़ी हेकड़ी के साथ कमिश्नर साहब प्रतिप्रश्न करते हैं कि किसी रिपोर्टर की गलती पर संपादक इस्तीफा देता है क्या, जो मैं अपने अधीनस्थों की गलती पर दे दूं।
दरअसल ऐसा कहकर कमिश्नर साहब मीडिया को उसकी औकात बता रहे होते हैं जबकि सच्चाई इसके उलट है।
मीडिया से जुड़े लोग जानते हैं कि हर खबर के लिए संपादक न केवल जिम्मेदार होता है बल्कि यदि कोई कानून का सहारा लेता है तो सबसे पहले संपादक को ही कठघरे में खड़ा किया जाता है.. और संपादक ऐसा कोई जवाब नहीं दे सकता जैसा कि दिल्ली पुलिस के कमिश्नर ने दिया।
यदि आप कुछ जागरूक टाइप के नागरिक हैं तो इसी तरह के सीन लगभग हर रोज टीवी पर जरूर देखते होंगे। ये सीन होते हैं ज्वलंत मुद्दों पर आयोजित उन बहसों के रूप में जो इन दिनों समाचार जगत के लिए फैशन बन गयी हैं। उनकी अपनी भाषा में इसे 'पैनल डिस्कशन' कहते हैं। सभी प्रमुख समाचार चैनलों ने इसके लिए अलग नाम और समय निर्धारित कर लिए हैं। इस पैनल डिस्कशन में रटे-रटाए चेहरे शामिल होते हैं जिन्हें देखकर शायद आपको ऊब होती हो लेकिन आपके पास उसी तरह 'च्वॉइस' नहीं है जिस तरह प्रधानमंत्री चुनने की भी कोई 'च्वॉइस' नहीं होती।
बहरहाल, उन मुद्दों के लिए कोई जिम्मेदार... या 'बड़ा नेता' इस पैनल डिस्कशन का हिस्सा नहीं बनता। पार्टियां अपने दोयम दर्जे के नेताओं अथवा प्रवक्ताओं को भेज देती हैं और चैनल कुछ ऐसे तत्वों को बुला लाते हैं जो 'एक्सपायर' हो चुके होते हैं।
दिमाग पर जोर डालकर बताइये कि आपने कभी सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह, राजनाथ सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, मुलायम सिंह, अखिलेश यादव, मायावती, जयाललिता, शिवराज सिंह, शीला दीक्षित.... और यहां तक कि किसी कद्दावर वामपंथी या दूसरी पाटियों के बड़े नेताओं को 'पैनल डिस्कशन' का हिस्सा बनते देखा है। और देखा है तो आखिरी बार कब देखा है जबकि यूपीए के दूसरे शासनकाल में शायद ही कोई महीना ऐसा बीता हो जब देश उद्वेलित हुए बिना रह पाया हो।
इसका भी एक महत्वपूर्ण कारण मीडिया घरानों का दोहरा चरित्र है। रेप के मामलों पर पूरे-पूरे दिन हायतौबा करने वाले और अखबार के पहले पन्नों को रंगने वाले मीडिया घरानों को न तो 'बाबा बंगाली' के वशीकरण मंत्र व प्रेमिका से मिलवाने की गारंटीशुदा विज्ञापनों को छापने से परहेज है और ना 'मीठी-मीठी' बातों के लिए कॉल करने की आड़ में कॉलगर्ल्स से संपर्क स्थापित कराने वाले विज्ञापनों को छापने में कोई आपत्ति है। ना किसी 'डिओड्योरेंट' के उस विज्ञापन को देने में कोई शर्मिंदगी महसूस होती है जिसमें उसकी खुशबू के प्रभाववश लड़कियां, लड़के के पूरे बदन पर लिपिस्टिक से रंगे अपने होठों के निशान बना देती हैं।
इन विज्ञापनों का प्रसारण करते वक्त मीडिया घरानों की लज्जा को ग्रहण लग जाता है। तब उन्हें कहीं से नहीं लगता कि उनके द्वारा प्रसारित अश्लील विज्ञापन भी सामाजिक विकृति की बड़ी वजह बन रहे हैं। ऐसे किसी मुद्दे पर कभी कोई पैनल डिस्कशन आयोजित नहीं कराया जाता।
इसी प्रकार बाहरी आतंकवाद की बात हो या नक्सलवाद की, सीमाओं की सुरक्षा का मामला हो या पड़ोसी मुल्क के दुस्साहस का....कभी किसी मुद्दे पर देश के जिम्मेदार नेताओं को सामने आकर जन-सहभागी बनते पाया है?
शायद कभी नहीं।
हां! अपनी कुर्सी कैसे बचाए रखनी है, इस मामले में सब पारंगत हैं। कुर्सी खतरे में दिखाई देती है तो चौपाल पर बैठकर बात करने से भी परहेज नहीं होता।
नक्सलवाद दिन-दूनी, रात चौगुनी गति से अपने पैर पसार रहा है। आतंकवाद का दायरा बड़े शहरों से छोटे शहरों की ओर बढ़ रहा है। इन्हें लेकर धर्म, जाति व संप्रदाय विशेष की संलिप्तता अथवा उनके उत्पीड़न पर राजनीति तो जमकर की जाती है लेकिन समस्या के तौर पर इन्हें नहीं देखा जाता। कभी नहीं सोचा जाता कि आखिर ये समस्याएं क्यों बढ़ती जा रही हैं। क्या है इनके मूल में और क्यों लोग अपने ही देश के दुश्मन बने हुए हैं।
ऐसा इसलिए क्योंकि इन सबके मूल में वही लोग हैं जिन्हें जनता जिम्मेदारी तो सौंपती है समाधान करने के लिए लेकिन वह खुद समस्या बनकर खड़े हो जाते हैं। नक्सलवाद की जड़ में वही हैं...और आतंकवाद की जड़ में भी वही। मेड़ ही खेत को खा रही है। रक्षक बन गये हैं भक्षक। मुजरिमों के हिमायती बन बैठे हैं मुंसिफ। कमजोर, लाचार और गरीब आदमी को कहीं से कोई न्याय की उम्मीद नजर नहीं आती। चारों ओर उसे अंधकार ही अंधकार दिखाई देता है। पब्लिक के गुस्से को समझने की बजाए पुलिस नेताओं के हाथ की कठपुतली बन उस पर लाठियां भांजती है। निहत्थों पर जब-तब गोलियां बरसाने से नहीं चूकती। पब्लिक की जगह वह पॉलिटिशियन की हिफाजत करती है।
एक बच्ची के साथ हुई दरिंदगी की कीमत 2 हजार रुपये आंकी जाती है और ऊपर से नीचे तक सब कहते हैं कि जांच के बाद कार्यवाही होगी।
एक अरब से ऊपर की आबादी वाले देश में चंद लोग जब व्यवस्था के खिलाफ सड़कों पर उतरते हैं तो उन्हें लाठी-डण्डों का उपयोग तथा कानून का दुरुपयोग करके चुप रहने को मजबूर कर दिया जाता है।
अब बताइए कि क्या हमारा देश अराजकता और गृहयुद्ध की ओर नहीं बढ़ रहा है?
क्या देश में कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज है ?
क्या हमारी न्याय प्रणाली ऐसा कुछ कर पा रही है जिससे आमजन का कानून-व्यवस्था पर भरोसा कायम रह सके?
यदि नहीं....तो लोग और कितने दिन यह सब-कुछ सहेंगे?
कब तक इन नेताओं के षड्यंत्र का शिकार होते रहेंगे?
सब-कुछ जानते व समझते हुए कब तक तमाशबीन बने रहेंगे?
कब तक धैर्य रखेंगे?
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