सोमवार, 22 जुलाई 2013

शकील और मसूद तो ''प्‍यादे'' हैं..

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पहले तो कांग्रेसी नेता शकील अहमद ने कहा कि आतंकवादी संगठन इंडियन मुज़ाहिदीन का गठन 2002 में हुए गुजरात दंगों की देन है। अब दूसरे कांग्रेसी नेता रशीद मसूद ने कहा है कि गुजरात में मुसलमान खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं और जब उन्हें खतरा महसूस होता है तो वे आतंकवाद की ओर कदम बढ़ाते हैं.

गुजरात दंगों के लिए कौन-कौन जिम्मेदार है और उनके पीछे क्या कारण रहे, इसका फिलहाल ज़िक्र करना बेमानी है क्योंकि प्रथम तो सारा मामला अब तक कोर्ट में विचाराधीन है, दूसरे विपक्ष उस पर लगातार बोलता रहता है लिहाजा किसी को कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती।
हां, शकील अहमद और रशीद मसूद जैसे कांग्रेसी नेता कुछ सवाल अवश्य खड़े करते हैं।
सबसे पहला और महत्वपूर्ण सवाल तो यही खड़ा होता है कि जिस अंदाज में तथा जो कुछ ये दोनों कांग्रेसी कह रहे हैं, क्या उसी अंदाज में किसी दूसरे समुदाय का कोई गैर कांग्रेसी नेता यह सब कह सकता है ?

देश के सामने आज सबसे बड़ी समस्या नक्सलवाद के रूप में सामने खड़ी है। ..तो क्या यह मान लिया जाए कि एक खास समुदाय के साथ दूसरे खास लोगों ने लगातार अन्याय व अत्याचार किया और अब भी किया जा रहा है इसलिए वो लोग नक्सलवादी बन रहे हैं।
माना जा सकता है कि वहां समस्या हिंदू-मुस्लिम की नहीं है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। अमीर-गरीब या शासक और शोषित की तो है।
कड़वा सच तो यह है कि देश में सिर्फ जो दो समुदाय हैं, वह हिंदू-मुस्लिम न होकर अमीर व गरीब हैं, शासक और शोषित हैं। बाकी सारा विभाजन केवल राजनीति तथा राजनेताओं की देन है।
हाल ही में एक नया विवाद तब पैदा किया गया था जब नरेन्द्र मोदी ने एक एजेंसी को दिए इंटरव्यू में कह दिया था कि मैं हिंदू राष्ट्रवादी हूं। मैं राष्ट्रवादी हूं और जन्म से हिंदू हूं, जिसमें मेरा कोई दोष नहीं है।
नरेन्द्र मोदी के इस बयान पर कांग्रेस अब तक हंगामा काट रही है और दूसरे विपक्षी दल अपनी-अपनी रोटियां सेकने में लगे हैं।
इनमें से कोई यह बताने को तैयार नहीं कि अगर कोई मुस्लिम सांसद, संसद में मौजूद रहते राष्ट्रगीत के बीच से उठकर चल देता है और कहता है कि उसका धर्म किसी दूसरे की वंदना करने की इजाजत नहीं देता, चाहे वह मातृभूमि ही क्यों न हो... तो कोई हिंदू नेता खुद को राष्ट्रवादी हिंदू क्यों नहीं कह सकता।
मैं इन तथाकथित राष्ट्रवादियों से एक और बात जानना चाहता हूं कि यदि कोई मुस्लिम खुद को गर्व के साथ मुस्लिम कह सकता है तो किसी हिंदू के खुद को गर्व से हिंदू कहने में हर्ज़ क्या है।
जहां तक सवाल सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का है तो क्या कोई बतायेगा कि इसके मायने क्या हैं... और जो मायने गढ़ लिए गये हैं, उन्हें अपने हिसाब से परिभाषित करने की सुविधा किसने दे रखी है।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि सेक्युलरिज्म को आज तक संविधान में भी ठीक से परिभाषित नहीं किया गया।
जिस तरह कांग्रेस सेक्युलरिज्म (धर्मनिरपेक्षता) को और सांप्रदायिकता को परिभाषित करती आई है, उससे भी कई अलग सवाल पैदा होते हैं।
मसलन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेसियों ने जिस तरह चुन-चुन कर निर्दोष सिखों का कत्लेआम किया, वह क्या था। वह कांग्रेस की सांप्रदायिक सोच नहीं थी।
कांग्रेस का वोट की राजनीति के लिए लगातार मुस्लिमों का तुष्टीकरण किया जाना क्या सांप्रदायिकता नहीं है।
बीएसपी हो या समाजवादी पार्टी, किसके नेता जाति और धर्म की राजनीति नहीं कर रहे। समाजवादी पार्टी तो खुलेआम आतंकवादियों के पक्ष में खड़ी है।
शायद ही कोई पार्टी और कोई नेता ऐसा हो, जो सांप्रदायिकता का सहारा सत्ता हासिल करने के लिए न लेता हो। ऐसे में केवल भाजपा को सांप्रदायिक करार देना, घटिया व निम्न स्तरीय राजनीति से अधिक कुछ नहीं।
नि:संदेह इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा को हिंदुत्व के नाम पर देश के विभाजन की इजाज़त दे देनी चाहिए लेकिन यह मतलब जरूर है कि अपने-अपने तरीके से हर पार्टी तथा सारे नेता सांप्रदायिकता की परिभाषा गढ़ रहे हैं जो उचित नहीं।
यदि भाजपा सांप्रदायिक है तो सारे दल किसी न किसी रूप में सांप्रदायिक हैं और धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटकर देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं, बांट रहे हैं।
होना तो यह चाहिए कि शकील अहमद व रशीद मसूद सहित उन सभी नेताओं को जेल भिजवा दिया जाए जो घृणा फैलाने, वैमनस्यता पैदा करने तथा देश को बर्बाद करने वाले बयान देते हों।
वो अशोक सिंघल हो सकते हैं, प्रवीण तोगड़िया हो सकते हैं, दिग्विजय सिंह हो सकते हैं, मनीष तिवारी भी हो सकते हैं।
इनमें उन नेताओं को भी शामिल किया जाना चाहिए जो सत्ता के नशे में चूर होने के कारण आम आदमी के जले पर अपने बयानों से आये दिन नमक छिड़कते हैं। कभी यह कहकर कि एक परिवार के लिए 26 रुपये रोज की आमदनी पर्याप्त है और कभी यह कहकर कि लोग आइसक्रीम व पित्जा खाकर भी महंगाई का रोना इसलिए रोते हैं क्योंकि उनकी आदत बन गई है।
ऐसे नेताओं को भी नहीं बख्शना चाहिए जो आतंकवादी हमले के बाद कहते हैं कि हर हमला रोक पाना संभव नहीं है और उन्हें भी नहीं जिनके पास मिड डे मील खाकर मरने वाले 24 बच्चों के परिजनों का दु:ख बांटने की फुर्सत नहीं है।
सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद जैसा अगर कुछ है तो वह आज के दौर की निकृष्ट एवं घृणित राजनीति की देन है।
जब तक इसके मूल स्त्रोत ऐसे नेताओं और राजनीतिक दलों को सांप्रदायिक घोषित कर कठघरे में खड़ा नहीं किया जायेगा, तब तक वह वोट की राजनीति के लिए ऐसे बीज बोते रहेंगे।
शकील अहमद और रशीद मसूद जैसे नेता तो हर पार्टी में हैं और उन्हें मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
कौन नहीं जानता कि प्यादों को बलि का बकरा बनाना बहुत आसान होता है अन्यथा लड़ाई तो बादशाह और वजीरों के बीच है।
2014 का चुनाव होने दीजिए, फिर अलग तरह के राग सुनाई देंगे और सांप्रदायिकता के अलग-अलग अर्थ गढ़ लिए जायेंगे ताकि सत्ता का सुख पाया जा सके।

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