(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
मेरी मां ने मुझसे हाल ही में एक रात को कहा कि राजनीति किसी तेज घातक जहर की तरह है।
मेरी मां की जब संसद में अचानक तबियत खराब हो गई और उन्हें हॉस्पीटल ले जाया जा रहा था तो उनकी आंखों में आंसू थे। उन्होंने मुझसे कहा कि जिस खाद्य सुरक्षा कानून के लिए मैं इतने दिनों से लड़ रही थी, आज उसी के बिल को पास कराने के लिए मैं वोटिंग नहीं कर पा रही। मैं हॉस्पीटल जाने से पहले वोटिंग करना चाहती हूं।
मेरी मां ने मुझसे कहा कि मेरी दादी को मार दिया गया, मेरे पापा को मार दिया गया और इसी तरह कुछ लोग मेरी हत्या करना चाहते हैं।
तीन अलग-अलग मौकों पर लेकिन एक ही उद्देश्य से राहुल गांधी द्वारा दिए गये बयानों के हिस्से हैं ये।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राजनीति का मकसद ही सत्ता पर काबिज होना होता है और उसके लिए आमजन का भावनात्मक दोहन भी सारे राजनीतिक दल अपने-अपने तरीकों से करते हैं लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व राजनीति का जो रूप सामने आ रहा है, वह किसी ऐसे विदूषक का है जो हंसाता कम है और डराता ज्यादा है।
राहुल गांधी की इन दिनों जो बॉडी लेंग्वेज है और जिस तरह वह एग्रेसिव होकर बोलते हैं, जरा कल्पना करके देखिए कि क्या देश को कोई ऐसा पीएम रास आयेगा।
उनका अंदाज किसी राजनेता का नहीं, सिनेमा के चरित्र का अधिक प्रतीत होता है।
दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी हैं, जिन्हें भारतीय जनता पार्टी ने अपना पीएम उम्मीदवार प्रोजेक्ट किया है। नरेन्द्र मोदी के पास गुजरात में शासन करने का अनुभव है। राजनीति में जमीन से उठकर आने की काबिलियत है और लोगों को प्रभावित करने वाले भाषण की कला है।
निश्चित तौर पर नरेन्द्र मोदी इन मामलों में राहुल गांधी पर भारी पड़ते हैं लेकिन कहीं-कहीं वह भी ऐसा महसूस कराते हैं जैसे भावनात्मक दोहन कर रहे हों।
उदाहरण के लिए कानपुर से शुरू की गई उत्तर प्रदेश की अपनी पहली चुनावी रैली में उन्होंने रोजगार के लिए गुजरात को कूच करने वाले युवक की मां को हुई चिंता का जो चित्रण किया था, वह अत्यंत हास्यास्पद था। उस चित्रण से उत्तर प्रदेश के कितने युवक प्रभावित हो पाये होंगे, यह तो वक्त बतायेगा अलबत्ता उनकी गंभीरता पर सवालिया निशान तत्काल लग गया।
इसके अलावा कानपुर रैली के ही मंच से बार-बार नरेन्द्र मोदी को देश का भाग्य विधाता संबोधित करना, राजनीतिज्ञों की कथनी और करनी के अंतर को रेखांकित कर गया।
राहुल गांधी से तो उनकी बॉडी लेंग्वेज बदलने तथा भावनात्मक दोहन करने के प्रयास वाली बयानबाजी आगे न करने की कोई उम्मीद रखना बेमानी है, लेकिन नरेन्द्र मोदी से उम्मीद की जाती है कि वह राजनीति में भांड़ों की परंपरा पर लगाम लगा सकते हैं।
उनसे ऐसी उम्मीद भी की जा सकती है कि समय रहते वह अपनी या किसी की भी मां की कहानी सुनाकर अथवा उसका चरित्र चित्रण करके लोगों को प्रभावित करने का प्रयास नहीं करेंगे क्योंकि पिछले 65 सालों से देश राजनेताओं की कोई न कोई दुखभरी कहानी ही सुन रहा है। किसी ने अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के संग्राम की दुखभरी कहानी सुनाई तो किसी ने अपने पूर्वजों के बलिदान की।
65 सालों से ये देश कहानी ही सुन रहा है लेकिन अब कहानियां सुन-सुनकर उसके कान पक चुके हैं।
देश और देशवासी चाहते हैं कि अब और कहानी नहीं।
नेताओं को अब देश और देशवासियों के अंतर्मन से पैदा हुई इस भावना को समझना होगा। उन्हें समझना होगा कि अति हर बात की बुरी होती है।
वह न अब अपनी मां का चरित्र चित्रण कराना चाहते हैं और ना नेताओं से उनकी मां का चरित्र चित्रण सुनना चाहते हैं।
वह चाहते हैं कि नेता अब केवल उस मां की बात करें जिसे भारत मां कहते हैं और भारत मां की मान-मर्यादा का ख्याल करके खुद को उस लिपे-पुते जोकर की तरह पेश न करें जिसके चेहरे की भाव-भंगिमाओं तथा मन के भावों में जमीन आसमान का अंतर होता है।
मेरी मां ने मुझसे हाल ही में एक रात को कहा कि राजनीति किसी तेज घातक जहर की तरह है।
मेरी मां की जब संसद में अचानक तबियत खराब हो गई और उन्हें हॉस्पीटल ले जाया जा रहा था तो उनकी आंखों में आंसू थे। उन्होंने मुझसे कहा कि जिस खाद्य सुरक्षा कानून के लिए मैं इतने दिनों से लड़ रही थी, आज उसी के बिल को पास कराने के लिए मैं वोटिंग नहीं कर पा रही। मैं हॉस्पीटल जाने से पहले वोटिंग करना चाहती हूं।
मेरी मां ने मुझसे कहा कि मेरी दादी को मार दिया गया, मेरे पापा को मार दिया गया और इसी तरह कुछ लोग मेरी हत्या करना चाहते हैं।
तीन अलग-अलग मौकों पर लेकिन एक ही उद्देश्य से राहुल गांधी द्वारा दिए गये बयानों के हिस्से हैं ये।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राजनीति का मकसद ही सत्ता पर काबिज होना होता है और उसके लिए आमजन का भावनात्मक दोहन भी सारे राजनीतिक दल अपने-अपने तरीकों से करते हैं लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व राजनीति का जो रूप सामने आ रहा है, वह किसी ऐसे विदूषक का है जो हंसाता कम है और डराता ज्यादा है।
राहुल गांधी की इन दिनों जो बॉडी लेंग्वेज है और जिस तरह वह एग्रेसिव होकर बोलते हैं, जरा कल्पना करके देखिए कि क्या देश को कोई ऐसा पीएम रास आयेगा।
उनका अंदाज किसी राजनेता का नहीं, सिनेमा के चरित्र का अधिक प्रतीत होता है।
दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी हैं, जिन्हें भारतीय जनता पार्टी ने अपना पीएम उम्मीदवार प्रोजेक्ट किया है। नरेन्द्र मोदी के पास गुजरात में शासन करने का अनुभव है। राजनीति में जमीन से उठकर आने की काबिलियत है और लोगों को प्रभावित करने वाले भाषण की कला है।
निश्चित तौर पर नरेन्द्र मोदी इन मामलों में राहुल गांधी पर भारी पड़ते हैं लेकिन कहीं-कहीं वह भी ऐसा महसूस कराते हैं जैसे भावनात्मक दोहन कर रहे हों।
उदाहरण के लिए कानपुर से शुरू की गई उत्तर प्रदेश की अपनी पहली चुनावी रैली में उन्होंने रोजगार के लिए गुजरात को कूच करने वाले युवक की मां को हुई चिंता का जो चित्रण किया था, वह अत्यंत हास्यास्पद था। उस चित्रण से उत्तर प्रदेश के कितने युवक प्रभावित हो पाये होंगे, यह तो वक्त बतायेगा अलबत्ता उनकी गंभीरता पर सवालिया निशान तत्काल लग गया।
इसके अलावा कानपुर रैली के ही मंच से बार-बार नरेन्द्र मोदी को देश का भाग्य विधाता संबोधित करना, राजनीतिज्ञों की कथनी और करनी के अंतर को रेखांकित कर गया।
राहुल गांधी से तो उनकी बॉडी लेंग्वेज बदलने तथा भावनात्मक दोहन करने के प्रयास वाली बयानबाजी आगे न करने की कोई उम्मीद रखना बेमानी है, लेकिन नरेन्द्र मोदी से उम्मीद की जाती है कि वह राजनीति में भांड़ों की परंपरा पर लगाम लगा सकते हैं।
उनसे ऐसी उम्मीद भी की जा सकती है कि समय रहते वह अपनी या किसी की भी मां की कहानी सुनाकर अथवा उसका चरित्र चित्रण करके लोगों को प्रभावित करने का प्रयास नहीं करेंगे क्योंकि पिछले 65 सालों से देश राजनेताओं की कोई न कोई दुखभरी कहानी ही सुन रहा है। किसी ने अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के संग्राम की दुखभरी कहानी सुनाई तो किसी ने अपने पूर्वजों के बलिदान की।
65 सालों से ये देश कहानी ही सुन रहा है लेकिन अब कहानियां सुन-सुनकर उसके कान पक चुके हैं।
देश और देशवासी चाहते हैं कि अब और कहानी नहीं।
नेताओं को अब देश और देशवासियों के अंतर्मन से पैदा हुई इस भावना को समझना होगा। उन्हें समझना होगा कि अति हर बात की बुरी होती है।
वह न अब अपनी मां का चरित्र चित्रण कराना चाहते हैं और ना नेताओं से उनकी मां का चरित्र चित्रण सुनना चाहते हैं।
वह चाहते हैं कि नेता अब केवल उस मां की बात करें जिसे भारत मां कहते हैं और भारत मां की मान-मर्यादा का ख्याल करके खुद को उस लिपे-पुते जोकर की तरह पेश न करें जिसके चेहरे की भाव-भंगिमाओं तथा मन के भावों में जमीन आसमान का अंतर होता है।
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