रविवार, 17 नवंबर 2013

सचिन का सम्मान या ध्यानचंद का अपमान

इंदौर। 
अगर ध्यानचंद को भारत रत्न देना ही नहीं था तो फिर इसका भरोसा क्यों दिया गया। क्यों पिछले छह महीनों से प्रधानमंत्री कार्यालय इस बात का भरोसा दिला रहा था कि जल्द ही दद्दा ध्यानचंद को भारत रत्न से सम्मानित कर दिया जाएगा। अचानक से सचिन तेंदुलकर का नाम आया और उन्हें सम्मानित करने की घोषणा भी कर दी गई। आखिर लोकतंत्र में व्यवस्थाओं के भी कुछ मायने होने चाहिए या नहीं। जब दद्दा को सम्मान दिए जाने की फाइल पहले से चल रही है तो फिर उनसे पहले किसी और को सम्मान देने के मायने क्या हैं, यह अपमान नहीं तो क्या है?
यह दर्द और गुस्सा है दद्दा ध्यानचंद के बेटे अशोक ध्यानचंद का। पेशेवर हॉकी खिलाड़ी रहे अशोक कहते हैं कि सचिन को सम्मान देना था तो सरकार दे, उससे कोई आपत्ति नहीं है लेकिन उससे पहले से दद्दा का नाम चल रहा था और पीएमओ ने इसके लिए भरोसा भी दिलाया था तो फिर उन्हें क्यों नहीं दिया गया।
उन्होंने इस बात पर भी आपत्ति उठाई कि जब दद्दा का नाम पहले से था तो उनका हक पहले था न कि सचिन का। अगर दद्दा ध्यानचंद को भारत रत्न नहीं देना था तो फिर सरकार ने इतनी नौटंकी की क्यों। पीएमओ साफ हमें नो बोल देता तो कम से कम हमें तसल्ली हो जाती। हम मान लेते कि दद्दा के खेल और देश के सम्मान को बढ़ाने में कोई कमी बाकी रह गई होगी।
उन्होंने कहा कि हम सरकारी प्रक्रिया के सहारे छह महीनों से बैठे हुए हैं। आज मान लिया कि सम्मान सरकारी और ओहदेदारों से ताल्लुकातों से ही मिलते हैं। हमने ओहदेदारों से ताल्लुकात नहीं बनाए, दद्दा ने भी नहीं बनाए, इसीलिए आज किनारे किए गए हैं।
उन्होंने तंज कसा कि दद्दा कभी फाइव स्टार के प्रतिनिधि नहीं रहे। वह गरीब खिलाड़ियों के प्रतिनिधि के तौर पर जिंदगी भर रहे और जिंदगी के बाद भी गरीब खिलाड़ियों के लिए एक मिशाल हैं। ऎसे में मीडिया का एक तबका फाइव स्टार के प्रतिनिधियों को ही जगह देता है। ऎसे में दद्दा हिंदुस्तान की आवाज बनकर ही पीछे ही रह गए।
-एजेंसी

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