बुधवार, 12 जनवरी 2022

गठबंधन के बावजूद अखिलेश को जयंत पर भरोसा नहीं, चुनाव बाद पाला बदलने की आशंका


पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश की जिन सीटों पर पहले चरण में ही मतदान होना है उनके लिए पर्चा दाखिल करने की शुरूआती तारीख लगभग सिर पर है, किंतु कई मुलाकातों के बाद भी अब तक राष्‍ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी के बीच टिकटों का बंटवारा नहीं हो सका है।

गठबंधन का ऐलान किए काफी समय हो जाने के बावजूद टिकटों के बंटवारे में जो सबसे बड़ी बाधा आ रही है, वह है सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव का आरएलडी सुप्रीमो जयंत चौधरी पर वो भरोसा न कर पाना जिसकी सर्वाधिक दरकार है।
दरअसल, अखिलेश यादव जयंत चौधरी पर आंख बंद करके इसलिए भरोसा नहीं करना चाहते क्‍योंकि आरएलडी का इतिहास उन्‍हें इसकी इजाजत नहीं देता।
अखिलेश यादव ही नहीं, सब जानते हैं कि सत्ता में साझेदारी की खातिर आरएलडी ने हमेशा अपने सहयोगियों को धोखा दिया है। जब-जब सत्ता और विपक्ष में से किसी एक को चुनने की नौबत आरएलडी के सामने आई है, तब-तब उसने सत्ता का चुनाव किया है।
हालांकि यह पहली बार है जब जयंत चौधरी आरएलडी के सर्वेसर्वा की हैसियत से चुनाव मैदान में हैं लिहाजा उनके पास अपने बड़ों की गलती से सीख लेने का अवसर भी है परंतु यह सवाल अभी भविष्‍य के गर्भ में है कि वह इस पर खुद को कितना खरा साबित कर पाते हैं।
संभवत: यही कारण है कि अखिलेश अपना हर कदम फूंक-फूंक कर रख रहे हैं। फिर बात चाहे चौधरी चरण सिंह के पोते और चौधरी अजीत सिंह के पुत्र चौधरी जयंत की हो या फिर अपने सगे चाचा शिवपाल यादव अथवा सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर की।
अखिलेश यादव ने तमाम लानत-मलामत को दरकिनार कर जिस तरह समाजवादी पार्टी की कमान पूरी तरह अपने हाथ में ली और चाचा शिवपाल को भी नाकों चने चबवाकर अपने सामने समर्पण करने को बाध्‍य कर दिया, उससे साफ जाहिर है कि राजनीति उनके लिए अब एक मंझे हुए खिलाड़ी का खेल बन चुकी है जबकि जयंत को अभी साबित करना है कि वह अपनी राजनीतिक विरासत को संभाल भी पाते हैं या नहीं।
बहरहाल, इन्‍हीं स्‍थिति-परिस्‍थितियों के मद्देनजर एक ओर जहां जयंत चौधरी चाहते हैं कि वह अखिलेश यादव से जितना अधिक संभव हो सीटें झटक लें वहीं अखिलेश यादव उन्‍हें ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहते जिससे वो चुनाव बाद फ्रंट फुट पर खेलने की स्‍थिति में हों।
बताया जाता है कि अखिलेश और जयंत के बीच सीटों के बंटवारे से अधिक जिस मुद्दे को लेकर कशमकश चल रही है, वह है गठबंधन के प्रत्‍याशियों को किन-किन सीटों पर किस ‘सिंबल’ से चुनाव लड़ाया जाए।
अखिलेश यादव अपने दोनों हाथों में लड्डू रखकर चलना चाहते हैं जिससे चुनाव बाद पछताने की नौबत न आए। वह चाहते हैं कि पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश में आरएलडी के प्रभाव वाली अधिकांश सीटों पर समाजवादियों को आरएलडी के सिंबल पर चुनाव मैदान में उतारें और जहां सपा व आरएलडी का मिला-जुला प्रभाव है वहां वह अपने सिंबल का इस्‍तेमाल कर चुनाव लड़ें। इस तरह उनके साथ आगे चलकर धोखा खाने की संभावना काफी क्षीण हो जाएगी।
उधर जयंत चौधरी चाहते हैं कि आरएलडी के हिस्‍से में न सिर्फ ज्‍यादा सीटें आएं बल्‍कि अपने और समाजवादी पार्टी के मिले-जुले प्रभाव वाली अधिकांश सीटों पर वह आरएलडी के सिंबल का इस्‍तेमाल करें।
राजनीतिक नजरिए से देखें तो दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं किंतु मौके की नजाकत दोनों को मजबूर कर रही है।
जयंत चौधरी को लगता है कि कृषि कानूनों के खिलाफ खड़े किए गए कथित किसान आंदोलन से भाजपा के प्रति उपजी किसानों की नाराजगी का उनकी पार्टी इन चुनावों में अच्‍छा लाभ ले सकती है लेकिन अखिलेश यादव का मानना है कि भाजपा के मुख्‍य मुकाबले में वही हैं इसलिए चुनावी समर का पूरा ताना-बाना समाजवादी पार्टी के इर्द-गिर्द ही बुना जाना चाहिए।
इसके अलावा अखिलेश किसी भी सहयोगी दल के लिए ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहते जिसका प्रयोग कर वह अखिलेश के ‘किंग’ बनने की राह का रोड़ा बन जाए और खुद ‘किंग मेकर’ की भूमिका में आ खड़ा हो।
ऐसे में बस देखना बाकी है तो इतना कि गांठों के इस बंधन (गठबंधन) को लेकर खेले जा रहे खेल का बड़ा खिलाड़ी अंतत: कौन साबित होता है और कमान से छूटे कितने तीर चुनाव बाद उसके अपने तरकश की शोभा बढ़ाते हैं।

-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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