आज श्याम मिश्र की एक ‘क्षणिका’ पढ़ी, पढ़ी तो पढ़ता ही रह गया क्योंकि मिश्र जी ने गागर में सागर भर दिया था।
चूंकि लोकतंत्र का ”दो-मासी महापर्व” शुरू हो चुका है इसलिए वह ‘क्षणिका’ अंदर तक उतर गई। आप भी पढ़िए इसे…आनंद आएगा-
एक था अंधा, दूसरा गूंगा, और तीसरा बहरा
अंधे ने गूंगे और बहरे से पूछा- भाई…प्रजातंत्र कैसा है ?
बहरे ने सुना नहीं और गूंगा बोलने में असमर्थ था। क्या अब आप आगे भी कुछ सुनना चाहाेगे ? सुनाेगे तो तब, जब सुनाने को कुछ बचा हो।
प्रजातंत्र की इससे अधिक सटीक, सुंदर और काव्यात्मक परिभाषा मेरे सामने कभी नहीं आई।
खैर, इस परिभाषा से प्रेरित होकर मैंने कृष्ण की नगरी मथुरा में लोकसभा चुनावों को लेकर एक सर्वे करना जरूरी समझा।
हमारे समस्त मीडिया महारथी तो जनता के बीच जाकर सर्वे करते हैं लेकिन मैंने अंधे, गूंगे तथा बहरे की कहानी के मद्देनजर यह सर्वे प्रत्याशियों के बीच जाकर किया।
हवा का रुख और मौसम का मिजाज भांपकर जो नहीं चलता, उसे मुंह की खानी पड़ती है, ऐसा ज्ञानी लोग कहते चले आए हैं।
औरों की वो जानें मैंने इसी ज्ञान पर अमल करके सबसे पहले हे-माजी के चरण पखारे और पूछा- क्या आप अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हैं?
जैसे को तैसा की कहावत पूरी करता हुआ जवाब मिला- यदि हमें अपनी जीत पर रत्तीभर भी डाउट होता तो क्या हम छ: महीने पहले कहते कि फिर से मथुरा को हम ही धन्य करेंगे।
जीत के प्रति इस ओवर कॉन्फिडेंस का कारण जानना चाहा तो सवाल के जवाब में सवाल सुनने को मिला- आजतक मथुरा में हमसे अधिक विकास किसी सांसद ने कराया है ?
जाहिर है हमारी बोलती बंद। क्या ओढ़ें और क्या बिछाएं। मथुरा का विकास तो मथुरा में समा नहीं रहा। इतना फैल गया है जैसे रायता फैल जाता है। कहां तक समेटें इस विकास को। सोचकर आए थे कि ”मोदी है तो मुमकिन है” जैसा कुछ सुनने को मिलेगा लेकिन यहां तो ”हम हैं तो सबकुछ है” सुनकर पूर्ण तृप्ति का भाव पैदा हो चुका था।
इसके आगे हमारी हिम्मत जवाब दे गई और हमने दबे पांव खिसक लेने में ही अपनी भलाई समझी।
इसके बाद हम कई-कई गांठों से ”आबद्ध” कुंवर साहब के सामने साष्टांग करने पहुंचे और पूछा- प्रभु आप तो विधानसभा चुनावों की ”हैट्रिक” का अनुभव प्राप्त हैं। राजनीति तो आपके यहां कोठी के पाइपों से पानी की तरह बहती है। आपके यहां बह रही राजनीति से कितने खर-पतवार पनप गए। आप भले ही सांसदी का चुनाव पहली मर्तबा लड़ने उतरे हों किंतु आपके ज्येष्ठ भ्राता उसी प्रकार लोकसभा चुनावों में जीत की हैट्रिक लगा चुके हैं जिस प्रकार आप विधानसभा चुनावों में हा….. की।
पूरा शब्द हमारे गले में अटक चुका था क्योंकि हमने सामान्य शिष्टाचार का ध्यान जो नहीं रखा।
हमें पता है चुनावी मौसम नहीं होता तो हमें इस गुस्ताखी की अच्छी खासी सजा मिलती लेकिन चुनाव में नेतागण विनम्रता की मूरत बन जाते हैं।
कुंवर साहब ने भी हमारी धृष्टता पर कान धरे बिना मूल मुद्दे को पकड़ा और बोले- हमारी जीत उतने ही मतों से होगी जितने से 2014 में हमारे युवराज हारे थे। हमें उनकी हार का बदला लेना है। जीत तो हम चुके हैं, बस पहले ”मत पड़ना” और फिर ”मत गणना” होना बाकी है। साइकिल पर सवार हाथी जब हैंडपंप चलाएगा तो वोटों की कीच ही कीच होगी। इस बार हमारी जीत पक्की है। कलफ लगे हुए दर्जनों कुर्ते-पायजामे तैयार हैं। शपथ लेना शेष है।
कुंवर साहब के चेहरे की लबालब मुस्कान और छलकती जीत को छोड़कर हम गली पीरपंच पहुंचे।
यहां हमने तीर्थ पुरोहितों के अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष और माथुर चतुर्वेदियों के संरक्षक कांग्रेस प्रत्याशी महामहिम पाठक जी के दर्शनों की अनुमति उनके शागिर्दों से मांगी।
चुनावी मौसम में चूंकि पत्रकारों की ”पूछ” कुछ लंबी हो जाती है इसलिए दर्शन लाभ शीघ्र प्राप्त हो गया।
हमने पाठक जी से जानना चाहा कि हे युग पुरुष..आपकी सीरत और शोहरत से आपकी सूरत भले ही मेल न खाती हो किंतु आपकी सफेदी निरमा के विज्ञापन से शत-प्रतिशत मेल खाती है। आप भी पूर्व में एक लोकसभा चुनाव का अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। कांग्रेस से आपके संबंध जन्मजात हैं। कांग्रेस के बिना आपकी और आपके बिना कांग्रेस की कल्पना तक करना मूर्खता है। ये बात अलग है कि बिना गठबंधन के आप हर पार्टी में ”बांधव भाव” के लिए जाने जाते हैं।
ऐसे में आपको क्या लगता है कि मथुरा की जनता आपको हराने की हिम्मत कर पाएगी ?
पाठक जी, गले में पड़ी गुलाबों की माला दिखाते हुए बोले- लगता है आप कभी वरिष्ठ पत्रकार बन ही नहीं पाएंगे। कनिष्ठ थे, कनिष्ठ हैं और कनिष्ठ ही रहेंगे।
इसके बाद पाठक जी को यकायक शायद याद आया कि अभी मतदान तो हुआ नहीं है इसलिए पत्रकारों की शान में इतने कसीदे गढ़ना ज्यादा हो जाएगा, लिहाजा बात संभालते हुए कहने लगे- देखिए बंधु, हमारे कहने का आशय यह था कि आप अब तक उसी प्रकार बाल रूप में खेल रहे हैं जिस प्रकार हमारे ”चिर युवा” राष्ट्रीय अध्यक्ष।
हम आपकी ‘तरो-ताजा’ अनटच बुद्धि का सम्मान करते हैं किंतु आपको हमारे गले में पड़े गुलाबों के ताजे हार को देखकर तो समझ जाना चाहिए कि हम तो चुनाव जीत चुके हैं। बस प्रशासन को मतदान की लकीर पीटनी है। मतगणना हमने कर ली है। हम पूरे 3 लाख 72 हजार वोटों से जीत रहे हैं। कोई शक हो तो बताओ वरना लंबे पड़ो।
पाठक जी की बात में दम देख हम परछाई की तरह लंबे हो लिए और बाहर निकलकर पान की दुकान के बाहर लगे शीशे में खुद को निहारने लगे।
शीशे से साक्षात्कार होते ही दिमाग की बत्ती जली और ध्यान आया कि यार… आखिर है तो तू भी इन जैसों का एक वोटर ही। जीतना तो इन्हीं में से किसी एक को है।
वैसे तीनों भी जीत जाएं तो बुराई क्या है। एक-एक करके तीन न सही, तीनों एकसाथ सही। सिर तो ओखली में रहेगा ही, मूसलों की चोट कहां तक गिनोगे।
आप भी ज़रा मेरी तरह सोचकर देखिए…और फिर बताइए कि यदि तीन लोक से न्यारी मथुरा एकसाथ तीन सांसदों का भार अपने सिर पर ढो ले तो इसमें बुराई क्या है।
ज्यादा से ज्यादा ”कोढ़ में खाज” की कहावत चरितार्थ होगी, इससे ज्यादा कुछ नहीं। ये मेरा दावा है। एक जीते या तीनों जीत जाएं। पतित पावनी मथुरा को अगले चुनावों तक फिर कोई न कोई जीत का दावेदार मिल ही जाएगा। आयातित, निर्यातित या स्थापित।
जाते-जाते एक क्षणिका और…समझ सको तो समझ लेना अन्यथा अगले चुनाव तक समझ में आ ही जाएगा कि-
देव प्रतिमाओं के परिपूर्ण पुजारी बनके, सब शिकारी चले आए हैं भिखारी बनके
-Legend News
चूंकि लोकतंत्र का ”दो-मासी महापर्व” शुरू हो चुका है इसलिए वह ‘क्षणिका’ अंदर तक उतर गई। आप भी पढ़िए इसे…आनंद आएगा-
एक था अंधा, दूसरा गूंगा, और तीसरा बहरा
अंधे ने गूंगे और बहरे से पूछा- भाई…प्रजातंत्र कैसा है ?
बहरे ने सुना नहीं और गूंगा बोलने में असमर्थ था। क्या अब आप आगे भी कुछ सुनना चाहाेगे ? सुनाेगे तो तब, जब सुनाने को कुछ बचा हो।
प्रजातंत्र की इससे अधिक सटीक, सुंदर और काव्यात्मक परिभाषा मेरे सामने कभी नहीं आई।
खैर, इस परिभाषा से प्रेरित होकर मैंने कृष्ण की नगरी मथुरा में लोकसभा चुनावों को लेकर एक सर्वे करना जरूरी समझा।
हमारे समस्त मीडिया महारथी तो जनता के बीच जाकर सर्वे करते हैं लेकिन मैंने अंधे, गूंगे तथा बहरे की कहानी के मद्देनजर यह सर्वे प्रत्याशियों के बीच जाकर किया।
हवा का रुख और मौसम का मिजाज भांपकर जो नहीं चलता, उसे मुंह की खानी पड़ती है, ऐसा ज्ञानी लोग कहते चले आए हैं।
औरों की वो जानें मैंने इसी ज्ञान पर अमल करके सबसे पहले हे-माजी के चरण पखारे और पूछा- क्या आप अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हैं?
जैसे को तैसा की कहावत पूरी करता हुआ जवाब मिला- यदि हमें अपनी जीत पर रत्तीभर भी डाउट होता तो क्या हम छ: महीने पहले कहते कि फिर से मथुरा को हम ही धन्य करेंगे।
जीत के प्रति इस ओवर कॉन्फिडेंस का कारण जानना चाहा तो सवाल के जवाब में सवाल सुनने को मिला- आजतक मथुरा में हमसे अधिक विकास किसी सांसद ने कराया है ?
जाहिर है हमारी बोलती बंद। क्या ओढ़ें और क्या बिछाएं। मथुरा का विकास तो मथुरा में समा नहीं रहा। इतना फैल गया है जैसे रायता फैल जाता है। कहां तक समेटें इस विकास को। सोचकर आए थे कि ”मोदी है तो मुमकिन है” जैसा कुछ सुनने को मिलेगा लेकिन यहां तो ”हम हैं तो सबकुछ है” सुनकर पूर्ण तृप्ति का भाव पैदा हो चुका था।
इसके आगे हमारी हिम्मत जवाब दे गई और हमने दबे पांव खिसक लेने में ही अपनी भलाई समझी।
इसके बाद हम कई-कई गांठों से ”आबद्ध” कुंवर साहब के सामने साष्टांग करने पहुंचे और पूछा- प्रभु आप तो विधानसभा चुनावों की ”हैट्रिक” का अनुभव प्राप्त हैं। राजनीति तो आपके यहां कोठी के पाइपों से पानी की तरह बहती है। आपके यहां बह रही राजनीति से कितने खर-पतवार पनप गए। आप भले ही सांसदी का चुनाव पहली मर्तबा लड़ने उतरे हों किंतु आपके ज्येष्ठ भ्राता उसी प्रकार लोकसभा चुनावों में जीत की हैट्रिक लगा चुके हैं जिस प्रकार आप विधानसभा चुनावों में हा….. की।
पूरा शब्द हमारे गले में अटक चुका था क्योंकि हमने सामान्य शिष्टाचार का ध्यान जो नहीं रखा।
हमें पता है चुनावी मौसम नहीं होता तो हमें इस गुस्ताखी की अच्छी खासी सजा मिलती लेकिन चुनाव में नेतागण विनम्रता की मूरत बन जाते हैं।
कुंवर साहब ने भी हमारी धृष्टता पर कान धरे बिना मूल मुद्दे को पकड़ा और बोले- हमारी जीत उतने ही मतों से होगी जितने से 2014 में हमारे युवराज हारे थे। हमें उनकी हार का बदला लेना है। जीत तो हम चुके हैं, बस पहले ”मत पड़ना” और फिर ”मत गणना” होना बाकी है। साइकिल पर सवार हाथी जब हैंडपंप चलाएगा तो वोटों की कीच ही कीच होगी। इस बार हमारी जीत पक्की है। कलफ लगे हुए दर्जनों कुर्ते-पायजामे तैयार हैं। शपथ लेना शेष है।
कुंवर साहब के चेहरे की लबालब मुस्कान और छलकती जीत को छोड़कर हम गली पीरपंच पहुंचे।
यहां हमने तीर्थ पुरोहितों के अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष और माथुर चतुर्वेदियों के संरक्षक कांग्रेस प्रत्याशी महामहिम पाठक जी के दर्शनों की अनुमति उनके शागिर्दों से मांगी।
चुनावी मौसम में चूंकि पत्रकारों की ”पूछ” कुछ लंबी हो जाती है इसलिए दर्शन लाभ शीघ्र प्राप्त हो गया।
हमने पाठक जी से जानना चाहा कि हे युग पुरुष..आपकी सीरत और शोहरत से आपकी सूरत भले ही मेल न खाती हो किंतु आपकी सफेदी निरमा के विज्ञापन से शत-प्रतिशत मेल खाती है। आप भी पूर्व में एक लोकसभा चुनाव का अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। कांग्रेस से आपके संबंध जन्मजात हैं। कांग्रेस के बिना आपकी और आपके बिना कांग्रेस की कल्पना तक करना मूर्खता है। ये बात अलग है कि बिना गठबंधन के आप हर पार्टी में ”बांधव भाव” के लिए जाने जाते हैं।
ऐसे में आपको क्या लगता है कि मथुरा की जनता आपको हराने की हिम्मत कर पाएगी ?
पाठक जी, गले में पड़ी गुलाबों की माला दिखाते हुए बोले- लगता है आप कभी वरिष्ठ पत्रकार बन ही नहीं पाएंगे। कनिष्ठ थे, कनिष्ठ हैं और कनिष्ठ ही रहेंगे।
इसके बाद पाठक जी को यकायक शायद याद आया कि अभी मतदान तो हुआ नहीं है इसलिए पत्रकारों की शान में इतने कसीदे गढ़ना ज्यादा हो जाएगा, लिहाजा बात संभालते हुए कहने लगे- देखिए बंधु, हमारे कहने का आशय यह था कि आप अब तक उसी प्रकार बाल रूप में खेल रहे हैं जिस प्रकार हमारे ”चिर युवा” राष्ट्रीय अध्यक्ष।
हम आपकी ‘तरो-ताजा’ अनटच बुद्धि का सम्मान करते हैं किंतु आपको हमारे गले में पड़े गुलाबों के ताजे हार को देखकर तो समझ जाना चाहिए कि हम तो चुनाव जीत चुके हैं। बस प्रशासन को मतदान की लकीर पीटनी है। मतगणना हमने कर ली है। हम पूरे 3 लाख 72 हजार वोटों से जीत रहे हैं। कोई शक हो तो बताओ वरना लंबे पड़ो।
पाठक जी की बात में दम देख हम परछाई की तरह लंबे हो लिए और बाहर निकलकर पान की दुकान के बाहर लगे शीशे में खुद को निहारने लगे।
शीशे से साक्षात्कार होते ही दिमाग की बत्ती जली और ध्यान आया कि यार… आखिर है तो तू भी इन जैसों का एक वोटर ही। जीतना तो इन्हीं में से किसी एक को है।
वैसे तीनों भी जीत जाएं तो बुराई क्या है। एक-एक करके तीन न सही, तीनों एकसाथ सही। सिर तो ओखली में रहेगा ही, मूसलों की चोट कहां तक गिनोगे।
आप भी ज़रा मेरी तरह सोचकर देखिए…और फिर बताइए कि यदि तीन लोक से न्यारी मथुरा एकसाथ तीन सांसदों का भार अपने सिर पर ढो ले तो इसमें बुराई क्या है।
ज्यादा से ज्यादा ”कोढ़ में खाज” की कहावत चरितार्थ होगी, इससे ज्यादा कुछ नहीं। ये मेरा दावा है। एक जीते या तीनों जीत जाएं। पतित पावनी मथुरा को अगले चुनावों तक फिर कोई न कोई जीत का दावेदार मिल ही जाएगा। आयातित, निर्यातित या स्थापित।
जाते-जाते एक क्षणिका और…समझ सको तो समझ लेना अन्यथा अगले चुनाव तक समझ में आ ही जाएगा कि-
देव प्रतिमाओं के परिपूर्ण पुजारी बनके, सब शिकारी चले आए हैं भिखारी बनके
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