अलग-अलग पार्टियों और अलग-अलग जातियों से होने के बावजूद मथुरा के तीनों प्रमुख प्रत्याशी फिलहाल एक ही समस्या से जूझ रहे हैं। जो प्रत्याशी जितनी जल्दी इस समस्या का समाधान निकाल लेगा, मुख्य मुकाबले में उसी के शामिल होने की संभावना उतनी बढ़ जाएगी।
कृष्ण की नगरी से भाजपा ने जहां एकबार फिर निवर्तमान सांसद हेमा मालिनी पर दांव लगाया है वहीं सपा-बसपा और रालोद के गठबंधन ने कुंवर नरेन्द्र सिंह को बतौर रालोद प्रत्याशी मैदान में उतारा गया है। कांग्रेस ने पूर्व में लोकसभा का एक चुनाव लड़ चुके महेश पाठक को टिकट दिया है। इन तीन में से दो प्रत्याशियों हेमा मालिनी और कुंवर नरेन्द्र सिंह कल ही अपना नामांकन दाखिल कर चुके थे जबकि महेश पाठक ने आज नामांकन दाखिल किया है।
कहने को ये पांच दलों के तीन प्रत्याशी हैं किंतु इत्तेफाकन इन तीनों की समस्या एक ही है। जीत के लिए मतदाताओं के बीच जाने से पहले इन्हें इस समस्या का समाधान करना होगा अन्यथा सारा गुणा-भाग जाया हो सकता है।
सबसे पहले बात करते हैं भाजपा प्रत्याशी और नामचीन अभिनेत्री हेमा मालिनी की। हेमा मालिनी को जब 2014 के लोकसभा चुनावों में मथुरा से उम्मीदवार घोषित किया गया था तब भाजपा सत्ता से बाहर थी और हर भाजपायी की प्राथमिकता एक दशक से केंद्र की सत्ता पर काबिज कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को हटाना था।
ऐसे में मथुरा की भाजपा इकाई ने थोड़ी-बहुत हील-हुज्जत के बाद हेमा मालिनी को तहेदिल से स्वीकार करते हुए उनके लोकसभा में पहुंचने का मार्ग प्रशस्त किया।
समस्याएं तब पैदा होने लगीं जब स्वप्न सुंदरी का खिताब प्राप्त रुपहले पर्दे की इस अभिनेत्री के दर्शन आमजनता के साथ-साथ पार्टीजनों के लिए भी दुर्लभ हो गए, और वह चंद लोगों की पहुंच तक सिमट गईं। ये खास लोग ही हेमा के आम और खास दोनों बन बैठे लिहाजा वह उन कार्यकताओं से दूर होती चली गईं जिन्होंने अपना खून-पसीना एक करके उन्हें संसद भिजवाया था।
इसके बाद खबर आई कि हेमा जी ने मथुरा के विकास हेतु ”ब्रजभूमि विकास ट्रस्ट” के नाम से स्थानीय रजिस्ट्रार कार्यालय में एक एनजीओ का रजिस्ट्रेशन कराया है। इस एनजीओ में हेमा मालिनी के अलावा उनके दिल्ली निवासी समधी, उनके सगे भाई, मथुरा के एक सीए तथा एक मुकुट वाला सहित आधा दर्जन लोगों के नाम जोड़े गए।
हेमा मालिनी के इस ”ब्रजभूमि विकास ट्रस्ट” ने मथुरा के विकास में कितनी और कैसी भूमिका अदा की इसका पता आजतक जनता को तो क्या, पार्टीजनों को भी शायद ही लगा हो।
यदि फोटोग्राफ्स पर भरोसा करें तो हेमा मालिनी की उपस्थिति मथुरा जनपद के खेत व खलिहानों से लेकर पगडंडियों तक पर और बाजार व गलियों से लेकर मंदिरों तक में खूब दिखाई देगी किंतु हकीकत यह है कि अपने पूरे पांच साल के कार्यकाल में उन्होंने यहां न तो कभी कोई जनता दरबार लगाया और न जनसमस्याओं की सुनवाई की। वो हमेशा अपना डेकोरम मेंटेन करके रहीं और विशिष्ट लोगों से मिलती रहीं।
यही कारण रहा कि इस बार फिर जब पार्टी ने उनका नाम लोकसभा प्रत्याशी के तौर पर घोषित किया तो मथुरा की जनता सहित भाजपा कार्यकर्ताओं में भी कोई उत्साह नजर नहीं आया।
ऐसा नहीं है कि हेमा मालिनी को इस बात का इल्म नहीं था। उन्हें अच्छी तरह भान था कि स्वप्नसुंदरी से मेल खाती उनकी बॉलीवुडिया कार्यशैली ब्रजवासियों को रास नहीं आई है इसलिए उन्होंने पिछले चुनाव की तुलना में नरम रुख अपनाते हुए यह कहना शुरू किया कि वह एक चांस लेकर अपने अधूरे काम पूरे करना चाहती हैं।
इस सबके बावजूद पार्टी के अंदर ही हेमा जी की खिलाफत का आलम यह था कि टिकट घोषित होने के बाद बुलाई गई पार्टी की पहली मीटिंग में एक पूर्व जिलाध्यक्ष और वर्तमान जिलाध्यक्ष के बीच तीखी तकरार हुई।
बताया जाता है कि इस अंदरूनी कलह को समाप्त कराने के लिए ही हेमा मालिनी के नामांकन वाले दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को मथुरा भेजा गया। योगी आदित्यनाथ इस मकसद में कितने सफल हुए, इसकी पूरी जानकारी तो चुनाव के नतीजे ही देंगे किंतु यह अंदाज जरूर लग चुका है कि हेमा मालिनी के लिए जीत की डगर इस बार पहले जितनी आसान नहीं रहेगी।
हेमा मालिनी के बाद नंबर आता है गठबंधन के प्रत्याशी ठाकुर कुंवर नरेन्द्र सिंह का। कुंवर नरेन्द्र सिंह राजनीति में कभी अपनी वैसी छवि नहीं बना पाए जैसी उनके भाई पूर्व सांसद कुंवर मानवेन्द्र सिंह ने बनाई।
संभवत: इसी कारण कुंवर मानवेन्द्र सिंह को मथुरा की जनता ने तीन बार लोकसभा भेजा लेकिन कुंवर नरेन्द्र सिंह तीनों बार विधानसभा का मुंह भी नहीं देख पाए। आज भी लोग यह कहते सुने जा सकते हैं कि काश यह टिकट कुंवर मानवेन्द्र सिंह को मिला होता।
बहरहाल, व्यक्तिगत छवि की बात न भी करें तो कुंवर नरेन्द्र सिंह को टिकट देकर रालोद ने मथुरा के उन सभी जाट नेताओं को नाराज कर दिया है जो वर्षों से पार्टी को पुनर्जीवित करने की कोशिश में लगे थे। अनिल चौधरी तो इसलिए पार्टी ही छोड़कर चले गए।
बताया जाता है कि जिन जाट मतदाताओं के बल पर आजतक चौधरी अजीत सिंह और उनकी पार्टी का वजूद कायम रहा है, वही जाट इस मर्तबा चौधरी साहब को सबक सिखाने का मन बना चुके हैं। किसी भी कद्दावर जाट नेता का कुंवर नरेन्द्र सिंह के साथ खड़े दिखाई न देना इस बात की पुष्टि करता है।
कुंवर नरेन्द्र सिंह के लिए ठाकुर वोट पाना भी टेढ़ी खीर होगा क्योंकि रालोद ने ठाकुर तेजपाल की नाराजगी मोल लेकर कुंवर नरेन्द्र सिंह को टिकट दिया है। कुंवर नरेन्द्र सिंह और ठाकुर तेजपाल सिंह के बीच पहले से ही छत्तीस का आंकड़ा चल रहा था, इस टिकट ने वह खाई और चौड़ी कर दी।
छाता क्षेत्र में अच्छा जनाधार रखने वाले ठाकुर तेजपाल का वोट कुंवर नरेन्द्र सिंह को मिल पाएगा, यह कहना बहुत मुश्किल है।
रही-सही कसर कल तब पूरी हो गई जब कुंवर नरेन्द्र सिंह के अपने सगे भाई पूर्व सांसद कुंवर मानवेन्द्र सिंह ने चुनावों के बीच भाजपा ज्वाइन कर ली। ऐसे में अब उनका भी कुंवर नरेन्द्र सिंह के लिए वोट मांगने आना असंभव हो चुका है।
कुंवर नरेन्द्र सिंह की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं होतीं। जिन सपा और बसपा के गठबंधन से उन्हें सहारा है, वह भी उनके लिए खुलकर सामने आने को तैयार नहीं है।
बसपा के मथुरा में सर्वाधिक कद्दावर नेता मांट क्षेत्र के विधायक श्यामसुंदर शर्मा माने जाते हैं। श्यामसुंदर शर्मा और रालोद मुखिया चौधरी अजीत सिंह की वैमनस्यता जगजाहिर है। मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में जिस वक्त रालोद उत्तर प्रदेश की सरकार का हिस्सा हुआ करता था उस वक्त चौधरी अजीत सिंह ने श्यामसुंदर शर्मा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अजीत सिंह ने अपने एक मुंह लगे रैंकर आईपीएस और एसएसपी मथुरा सत्येन्द्र वीर सिंह से न केवल श्यामसुंदर शर्मा बल्कि उनके लघुभ्राता कृष्णकुमार शर्मा ‘मुन्ना’ सहित पूरे परिवार का जिस कदर उत्पीड़न कराया था, उसे श्याम शायद ही भूले हों।
पूरे ढाई साल अजीत सिंह के उस खास पुलिस अफसर ने श्यामसुंदर शर्मा व उनके परिजनों का जो उत्पीड़न किया, उसका दूसरा उदाहरण मिलना मुश्किल है।
बेशक आज श्यामसुंदर शर्मा के दल का दिल चौधरी अजीत सिंह से मिल चुका है परंतु मथुरा में तो मतदाता वही करेगा जो श्यामसुंदर शर्मा दिल से करने को कहेंगे। श्यामसुंदर शर्मा मांट क्षेत्र की जनता के दिल पर तो राज करते ही हैं, साथ ही ब्राह्मणों के भी बड़े नेता माने जाते हैं।
अजीत और श्याम के संबंधों का आंकलन करने वालों को शक है कि मथुरा में बसपा का वोट रालोद के प्रत्याशी कुंवर नरेन्द्र सिंह के लिए ट्रांसफर हो पाएगा।
कहने को बसपा के एक और ब्राह्मण नेता योगेश द्विवेदी भी हैं। योगेश द्विवेदी 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा के मथुरा से प्रत्याशी थे और अच्छे-खासे वोट भी लेकर आए थे। सपा-बसपा-रालोद के अप्रत्याशित गठबंधन से पहले योगेश द्विवेदी को इस बार भी बसपा का स्वभाविक प्रत्याशी माना जा रहा था लेकिन गठबंधन ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। जाहिर है कि अब पार्टी यदि उनसे कोई उम्मीद रखती है तो वह बेमानी होगी।
बसपा के मथुरा में तीसरे अहम नेता भी ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। ये नेता हैं पूर्व विधायक राजकुमार रावत। राजकुमार रावत की गोवर्धन और गोकुल व बल्देव क्षेत्र के बाह्मण वोटों पर अच्छी पकड़ है किंतु उनका वोट बैंक रालोद को ट्रांसफर हो पाएगा, इस पर कोई आसानी से भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है।
अब यदि बात करें गठबंधन के तीसरे दल समाजवादी पार्टी की, तो वह आज तक मथुरा में अपना कोई जनाधार खड़ा ही नहीं कर पाया। मथुरा से कभी किसी चुनाव में समाजवादी पार्टी को सफलता नहीं मिली। तब भी नहीं जब अखिलेश ने यूपी की गद्दी संभाली ही थी और मांट क्षेत्र के उपचुनाव में अपने मित्र और निकट सहयोगी संजय लाठर को चुनाव लड़वाया था। सारी सरकारी मशीनरी झोंक देने के बावजूद संजय लाठर ये विधानसभा का उपचुनाव हार गए।
मथुरा से तीसरे प्रमुख प्रत्याशी महेश पाठक 1998 में कांग्रेस की ही टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं। तब महेश पाठक के लिए किशोरीरमण डिग्री कॉंलेज के मैदान में सोनिया गांधी ने सभा की थी। सोनिया की सभा में तब भीड़ तो खूब उमड़ी किंतु वह वोटों में तब्दील नहीं हुई नतीजतन महेश पाठक बुरी तरह चुनाव हार गए।
दो दशक बाद एकबार फिर कांग्रेस ने महेश पाठक को चुनाव मैदान में उतारा है। महेश पाठक का अपना कोई जनाधार कभी रहा नहीं और पार्टी में भी वो सर्वमान्य नहीं हैं।
महेश पाठक को चुनाव मैदान में उतारने से कांग्रेस की गुटबाजी पूरी तरह सामने आ चुकी है।
मथुरा के चतुर्वेदी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले महेश पाठक यूं तो माथुर चतुर्वेद परिषद के संरक्षक तथा अखिल भारतीय तीर्थ पुरोहित महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जैसे पदों को सुशोभित करते हैं परंतु कांग्रेस पार्टी की ही तरह समूचा चतुर्वेदी समुदाय भी उन्हें लेकर एकमत नहीं है।
एक असफल उद्योगपति के रूप में पहचान रखने वाले महेश पाठक कांग्रेसी नेता से अधिक दबंग व्यक्ति के तौर पर मशहूर हैं, और इसके लिए उनका अतीत जिम्मेदार है।
महेश पाठक से ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह चुनाव के लिए कांग्रेस में व्याप्त गुटबाजी को समाप्त करा पाएंगे लिहाजा जिस समस्या से भाजपा की हेमा मालिनी तथा गठबंधन के कुंवर नरेन्द्र सिंह रुबरू हैं, वही महेश पाठक के सामने मुंहबाये खड़ी है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तीन लोक से न्यारी नगरी की उपमा प्राप्त कृष्ण की पावन जन्मस्थली मथुरा से चुनाव मैदान में उतरे इन तीनों प्रमुख प्रत्याशियों का भाग्य भितरघातियों की चाल पर निर्भर है। प्रत्याशी भले ही तीन हैं लेकिन समस्या इन सभी की एक है।
मतदाता भले ही निर्णायक भूमिका अदा करता हो परंतु भितरघातियों की भूमिका भी जीत या हार में कम मायने नहीं रखती।
यकीन न हो तो देश के किसी भी क्षेत्र का चुनावी इतिहास उठाकर देख लो, आंकड़े खुद-ब-खुद बता देंगे कि भितरघाती क्या अहमियत रखते हैं। मथुरा लोकसभा का चुनाव इससे अलग नहीं हो सकता।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
कृष्ण की नगरी से भाजपा ने जहां एकबार फिर निवर्तमान सांसद हेमा मालिनी पर दांव लगाया है वहीं सपा-बसपा और रालोद के गठबंधन ने कुंवर नरेन्द्र सिंह को बतौर रालोद प्रत्याशी मैदान में उतारा गया है। कांग्रेस ने पूर्व में लोकसभा का एक चुनाव लड़ चुके महेश पाठक को टिकट दिया है। इन तीन में से दो प्रत्याशियों हेमा मालिनी और कुंवर नरेन्द्र सिंह कल ही अपना नामांकन दाखिल कर चुके थे जबकि महेश पाठक ने आज नामांकन दाखिल किया है।
कहने को ये पांच दलों के तीन प्रत्याशी हैं किंतु इत्तेफाकन इन तीनों की समस्या एक ही है। जीत के लिए मतदाताओं के बीच जाने से पहले इन्हें इस समस्या का समाधान करना होगा अन्यथा सारा गुणा-भाग जाया हो सकता है।
सबसे पहले बात करते हैं भाजपा प्रत्याशी और नामचीन अभिनेत्री हेमा मालिनी की। हेमा मालिनी को जब 2014 के लोकसभा चुनावों में मथुरा से उम्मीदवार घोषित किया गया था तब भाजपा सत्ता से बाहर थी और हर भाजपायी की प्राथमिकता एक दशक से केंद्र की सत्ता पर काबिज कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को हटाना था।
ऐसे में मथुरा की भाजपा इकाई ने थोड़ी-बहुत हील-हुज्जत के बाद हेमा मालिनी को तहेदिल से स्वीकार करते हुए उनके लोकसभा में पहुंचने का मार्ग प्रशस्त किया।
समस्याएं तब पैदा होने लगीं जब स्वप्न सुंदरी का खिताब प्राप्त रुपहले पर्दे की इस अभिनेत्री के दर्शन आमजनता के साथ-साथ पार्टीजनों के लिए भी दुर्लभ हो गए, और वह चंद लोगों की पहुंच तक सिमट गईं। ये खास लोग ही हेमा के आम और खास दोनों बन बैठे लिहाजा वह उन कार्यकताओं से दूर होती चली गईं जिन्होंने अपना खून-पसीना एक करके उन्हें संसद भिजवाया था।
इसके बाद खबर आई कि हेमा जी ने मथुरा के विकास हेतु ”ब्रजभूमि विकास ट्रस्ट” के नाम से स्थानीय रजिस्ट्रार कार्यालय में एक एनजीओ का रजिस्ट्रेशन कराया है। इस एनजीओ में हेमा मालिनी के अलावा उनके दिल्ली निवासी समधी, उनके सगे भाई, मथुरा के एक सीए तथा एक मुकुट वाला सहित आधा दर्जन लोगों के नाम जोड़े गए।
हेमा मालिनी के इस ”ब्रजभूमि विकास ट्रस्ट” ने मथुरा के विकास में कितनी और कैसी भूमिका अदा की इसका पता आजतक जनता को तो क्या, पार्टीजनों को भी शायद ही लगा हो।
यदि फोटोग्राफ्स पर भरोसा करें तो हेमा मालिनी की उपस्थिति मथुरा जनपद के खेत व खलिहानों से लेकर पगडंडियों तक पर और बाजार व गलियों से लेकर मंदिरों तक में खूब दिखाई देगी किंतु हकीकत यह है कि अपने पूरे पांच साल के कार्यकाल में उन्होंने यहां न तो कभी कोई जनता दरबार लगाया और न जनसमस्याओं की सुनवाई की। वो हमेशा अपना डेकोरम मेंटेन करके रहीं और विशिष्ट लोगों से मिलती रहीं।
यही कारण रहा कि इस बार फिर जब पार्टी ने उनका नाम लोकसभा प्रत्याशी के तौर पर घोषित किया तो मथुरा की जनता सहित भाजपा कार्यकर्ताओं में भी कोई उत्साह नजर नहीं आया।
ऐसा नहीं है कि हेमा मालिनी को इस बात का इल्म नहीं था। उन्हें अच्छी तरह भान था कि स्वप्नसुंदरी से मेल खाती उनकी बॉलीवुडिया कार्यशैली ब्रजवासियों को रास नहीं आई है इसलिए उन्होंने पिछले चुनाव की तुलना में नरम रुख अपनाते हुए यह कहना शुरू किया कि वह एक चांस लेकर अपने अधूरे काम पूरे करना चाहती हैं।
इस सबके बावजूद पार्टी के अंदर ही हेमा जी की खिलाफत का आलम यह था कि टिकट घोषित होने के बाद बुलाई गई पार्टी की पहली मीटिंग में एक पूर्व जिलाध्यक्ष और वर्तमान जिलाध्यक्ष के बीच तीखी तकरार हुई।
बताया जाता है कि इस अंदरूनी कलह को समाप्त कराने के लिए ही हेमा मालिनी के नामांकन वाले दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को मथुरा भेजा गया। योगी आदित्यनाथ इस मकसद में कितने सफल हुए, इसकी पूरी जानकारी तो चुनाव के नतीजे ही देंगे किंतु यह अंदाज जरूर लग चुका है कि हेमा मालिनी के लिए जीत की डगर इस बार पहले जितनी आसान नहीं रहेगी।
हेमा मालिनी के बाद नंबर आता है गठबंधन के प्रत्याशी ठाकुर कुंवर नरेन्द्र सिंह का। कुंवर नरेन्द्र सिंह राजनीति में कभी अपनी वैसी छवि नहीं बना पाए जैसी उनके भाई पूर्व सांसद कुंवर मानवेन्द्र सिंह ने बनाई।
संभवत: इसी कारण कुंवर मानवेन्द्र सिंह को मथुरा की जनता ने तीन बार लोकसभा भेजा लेकिन कुंवर नरेन्द्र सिंह तीनों बार विधानसभा का मुंह भी नहीं देख पाए। आज भी लोग यह कहते सुने जा सकते हैं कि काश यह टिकट कुंवर मानवेन्द्र सिंह को मिला होता।
बहरहाल, व्यक्तिगत छवि की बात न भी करें तो कुंवर नरेन्द्र सिंह को टिकट देकर रालोद ने मथुरा के उन सभी जाट नेताओं को नाराज कर दिया है जो वर्षों से पार्टी को पुनर्जीवित करने की कोशिश में लगे थे। अनिल चौधरी तो इसलिए पार्टी ही छोड़कर चले गए।
बताया जाता है कि जिन जाट मतदाताओं के बल पर आजतक चौधरी अजीत सिंह और उनकी पार्टी का वजूद कायम रहा है, वही जाट इस मर्तबा चौधरी साहब को सबक सिखाने का मन बना चुके हैं। किसी भी कद्दावर जाट नेता का कुंवर नरेन्द्र सिंह के साथ खड़े दिखाई न देना इस बात की पुष्टि करता है।
कुंवर नरेन्द्र सिंह के लिए ठाकुर वोट पाना भी टेढ़ी खीर होगा क्योंकि रालोद ने ठाकुर तेजपाल की नाराजगी मोल लेकर कुंवर नरेन्द्र सिंह को टिकट दिया है। कुंवर नरेन्द्र सिंह और ठाकुर तेजपाल सिंह के बीच पहले से ही छत्तीस का आंकड़ा चल रहा था, इस टिकट ने वह खाई और चौड़ी कर दी।
छाता क्षेत्र में अच्छा जनाधार रखने वाले ठाकुर तेजपाल का वोट कुंवर नरेन्द्र सिंह को मिल पाएगा, यह कहना बहुत मुश्किल है।
रही-सही कसर कल तब पूरी हो गई जब कुंवर नरेन्द्र सिंह के अपने सगे भाई पूर्व सांसद कुंवर मानवेन्द्र सिंह ने चुनावों के बीच भाजपा ज्वाइन कर ली। ऐसे में अब उनका भी कुंवर नरेन्द्र सिंह के लिए वोट मांगने आना असंभव हो चुका है।
कुंवर नरेन्द्र सिंह की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं होतीं। जिन सपा और बसपा के गठबंधन से उन्हें सहारा है, वह भी उनके लिए खुलकर सामने आने को तैयार नहीं है।
बसपा के मथुरा में सर्वाधिक कद्दावर नेता मांट क्षेत्र के विधायक श्यामसुंदर शर्मा माने जाते हैं। श्यामसुंदर शर्मा और रालोद मुखिया चौधरी अजीत सिंह की वैमनस्यता जगजाहिर है। मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में जिस वक्त रालोद उत्तर प्रदेश की सरकार का हिस्सा हुआ करता था उस वक्त चौधरी अजीत सिंह ने श्यामसुंदर शर्मा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अजीत सिंह ने अपने एक मुंह लगे रैंकर आईपीएस और एसएसपी मथुरा सत्येन्द्र वीर सिंह से न केवल श्यामसुंदर शर्मा बल्कि उनके लघुभ्राता कृष्णकुमार शर्मा ‘मुन्ना’ सहित पूरे परिवार का जिस कदर उत्पीड़न कराया था, उसे श्याम शायद ही भूले हों।
पूरे ढाई साल अजीत सिंह के उस खास पुलिस अफसर ने श्यामसुंदर शर्मा व उनके परिजनों का जो उत्पीड़न किया, उसका दूसरा उदाहरण मिलना मुश्किल है।
बेशक आज श्यामसुंदर शर्मा के दल का दिल चौधरी अजीत सिंह से मिल चुका है परंतु मथुरा में तो मतदाता वही करेगा जो श्यामसुंदर शर्मा दिल से करने को कहेंगे। श्यामसुंदर शर्मा मांट क्षेत्र की जनता के दिल पर तो राज करते ही हैं, साथ ही ब्राह्मणों के भी बड़े नेता माने जाते हैं।
अजीत और श्याम के संबंधों का आंकलन करने वालों को शक है कि मथुरा में बसपा का वोट रालोद के प्रत्याशी कुंवर नरेन्द्र सिंह के लिए ट्रांसफर हो पाएगा।
कहने को बसपा के एक और ब्राह्मण नेता योगेश द्विवेदी भी हैं। योगेश द्विवेदी 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा के मथुरा से प्रत्याशी थे और अच्छे-खासे वोट भी लेकर आए थे। सपा-बसपा-रालोद के अप्रत्याशित गठबंधन से पहले योगेश द्विवेदी को इस बार भी बसपा का स्वभाविक प्रत्याशी माना जा रहा था लेकिन गठबंधन ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। जाहिर है कि अब पार्टी यदि उनसे कोई उम्मीद रखती है तो वह बेमानी होगी।
बसपा के मथुरा में तीसरे अहम नेता भी ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। ये नेता हैं पूर्व विधायक राजकुमार रावत। राजकुमार रावत की गोवर्धन और गोकुल व बल्देव क्षेत्र के बाह्मण वोटों पर अच्छी पकड़ है किंतु उनका वोट बैंक रालोद को ट्रांसफर हो पाएगा, इस पर कोई आसानी से भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है।
अब यदि बात करें गठबंधन के तीसरे दल समाजवादी पार्टी की, तो वह आज तक मथुरा में अपना कोई जनाधार खड़ा ही नहीं कर पाया। मथुरा से कभी किसी चुनाव में समाजवादी पार्टी को सफलता नहीं मिली। तब भी नहीं जब अखिलेश ने यूपी की गद्दी संभाली ही थी और मांट क्षेत्र के उपचुनाव में अपने मित्र और निकट सहयोगी संजय लाठर को चुनाव लड़वाया था। सारी सरकारी मशीनरी झोंक देने के बावजूद संजय लाठर ये विधानसभा का उपचुनाव हार गए।
मथुरा से तीसरे प्रमुख प्रत्याशी महेश पाठक 1998 में कांग्रेस की ही टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं। तब महेश पाठक के लिए किशोरीरमण डिग्री कॉंलेज के मैदान में सोनिया गांधी ने सभा की थी। सोनिया की सभा में तब भीड़ तो खूब उमड़ी किंतु वह वोटों में तब्दील नहीं हुई नतीजतन महेश पाठक बुरी तरह चुनाव हार गए।
दो दशक बाद एकबार फिर कांग्रेस ने महेश पाठक को चुनाव मैदान में उतारा है। महेश पाठक का अपना कोई जनाधार कभी रहा नहीं और पार्टी में भी वो सर्वमान्य नहीं हैं।
महेश पाठक को चुनाव मैदान में उतारने से कांग्रेस की गुटबाजी पूरी तरह सामने आ चुकी है।
मथुरा के चतुर्वेदी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले महेश पाठक यूं तो माथुर चतुर्वेद परिषद के संरक्षक तथा अखिल भारतीय तीर्थ पुरोहित महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जैसे पदों को सुशोभित करते हैं परंतु कांग्रेस पार्टी की ही तरह समूचा चतुर्वेदी समुदाय भी उन्हें लेकर एकमत नहीं है।
एक असफल उद्योगपति के रूप में पहचान रखने वाले महेश पाठक कांग्रेसी नेता से अधिक दबंग व्यक्ति के तौर पर मशहूर हैं, और इसके लिए उनका अतीत जिम्मेदार है।
महेश पाठक से ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह चुनाव के लिए कांग्रेस में व्याप्त गुटबाजी को समाप्त करा पाएंगे लिहाजा जिस समस्या से भाजपा की हेमा मालिनी तथा गठबंधन के कुंवर नरेन्द्र सिंह रुबरू हैं, वही महेश पाठक के सामने मुंहबाये खड़ी है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तीन लोक से न्यारी नगरी की उपमा प्राप्त कृष्ण की पावन जन्मस्थली मथुरा से चुनाव मैदान में उतरे इन तीनों प्रमुख प्रत्याशियों का भाग्य भितरघातियों की चाल पर निर्भर है। प्रत्याशी भले ही तीन हैं लेकिन समस्या इन सभी की एक है।
मतदाता भले ही निर्णायक भूमिका अदा करता हो परंतु भितरघातियों की भूमिका भी जीत या हार में कम मायने नहीं रखती।
यकीन न हो तो देश के किसी भी क्षेत्र का चुनावी इतिहास उठाकर देख लो, आंकड़े खुद-ब-खुद बता देंगे कि भितरघाती क्या अहमियत रखते हैं। मथुरा लोकसभा का चुनाव इससे अलग नहीं हो सकता।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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