(कृष्ण जन्माष्टमी विशेष)
एक और कृष्ण जन्माष्टमी, एक और कृष्ण जन्मोत्सव.... लेकिन सब-कुछ प्रतीकात्मक।
बस एक परंपरा है जिसे निभाते चले जा रहे हैं यंत्रचालित ढंग से। पांच हजार से भी सौ-दो सौ साल पहले श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। कुछ लोग इस बार के जन्म को उनका 5125 वां जन्मोत्सव बता रहे हैं।
जो भी हो।
श्रीमद्भगवतद्वगीता के अध्याय 4 में कहा गया है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥८॥
अर्थात्
जब-जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म आगे बढ़ने लगता है, तब-तब मैं स्वयं की सृष्टि करता हूं, अर्थात् जन्म लेता हूं। सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनः स्थापना के लिए मैं विभिन्न युगों (कालों) मैं अवतरित होता हूं।
अब सवाल यह पैदा होता है कि धर्म की हानि और अधर्म के आगे बढ़ने का पैमाना क्या है?
धर्म की पुनर्स्थापना, सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के नाश का उचित समय आखिर कौन सा होता है?
जिन कारणों से कौरव-पाण्डवों के बीच महाभारत जैसा भीषण युद्ध हुआ और जिन परिस्थितियोंवश श्रीकृष्ण भी इस युद्ध को रोक पाने में असफल रहे, उससे तो आज के हालात कहीं बहुत अधिक बदतर हैं।
महाभारत से पूर्व एक द्रोपदी का चीरहरण रोकने कृष्ण दौड़े चले आये थे लेकिन अब वही कृष्ण देशभर में हो रहे चीरहरणों पर चुप्पी साधे क्यों बैठे हैं?
पाण्डवों को उनके हिस्से का राजपाठ तो दूर, सुई की नोक के बराबर जमीन तक देने को राजी न होना महाभारत होने का दूसरा बड़ा कारण बना परंतु क्या आज भी यही सब नहीं हो रहा?
घर-घर में बैठे कौरव आज भी पाण्डवों का हक मार रहे हैं और उनके खून से होली खेल रहे हैं लेकिन अब कोई कृष्ण किसी की मदद करने नहीं आता।
तो क्या महाकाव्य महाभारत के 'भीष्म पर्व' को अब 'मृतप्राय:' और श्रीमद्भागवत को कथावाचकों के लिए 'वैभवपूर्ण एवं विलासितापूर्ण जीवन' का 'माध्यमभर' मान लिया जाए।
क्या मान लिया जाए कि इन धर्मग्रंथों में जो कुछ लिखा गया, जो कुछ कहा गया और जो संदेश इनके द्वारा दिया गया है, वह सब छलावा है।
यदि नहीं, तो कोई कृष्ण आकर धर्म की पुनर्स्थापना का शंखनाद क्यों नहीं करता?
कैसे कोई कृपालु, कोई आसाराम, कोई प्रकाशानंद जैसा गीदड़ किसी के भरोसे को तोड़कर अपनी हवस मिटाने में कामयाब हो जाता है?
कैसे कोई उपदेशक अपने ही उपदेशों को निजी जिंदगी में तार-तार करता दिखाई देता है और मठ, मंदिर, आश्रम एवं दूसरे धार्मिक स्थल पापकर्मों को अंजाम देने के सुविधाजनक अड्डे बने हुए हैं।
हे कृष्ण! क्या ये जरूरी नहीं कि या तो अब धर्म की हानि एवं अधर्म के बढ़ने की कोई सीमा निर्धारित हो या फिर गीता में दर्ज 'यदा-यदा हि धर्मस्य... को नए सिरे से परिभाषित किया जाए।
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एक और कृष्ण जन्माष्टमी, एक और कृष्ण जन्मोत्सव.... लेकिन सब-कुछ प्रतीकात्मक।
बस एक परंपरा है जिसे निभाते चले जा रहे हैं यंत्रचालित ढंग से। पांच हजार से भी सौ-दो सौ साल पहले श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। कुछ लोग इस बार के जन्म को उनका 5125 वां जन्मोत्सव बता रहे हैं।
जो भी हो।
श्रीमद्भगवतद्वगीता के अध्याय 4 में कहा गया है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥८॥
अर्थात्
जब-जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म आगे बढ़ने लगता है, तब-तब मैं स्वयं की सृष्टि करता हूं, अर्थात् जन्म लेता हूं। सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनः स्थापना के लिए मैं विभिन्न युगों (कालों) मैं अवतरित होता हूं।
अब सवाल यह पैदा होता है कि धर्म की हानि और अधर्म के आगे बढ़ने का पैमाना क्या है?
धर्म की पुनर्स्थापना, सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के नाश का उचित समय आखिर कौन सा होता है?
जिन कारणों से कौरव-पाण्डवों के बीच महाभारत जैसा भीषण युद्ध हुआ और जिन परिस्थितियोंवश श्रीकृष्ण भी इस युद्ध को रोक पाने में असफल रहे, उससे तो आज के हालात कहीं बहुत अधिक बदतर हैं।
महाभारत से पूर्व एक द्रोपदी का चीरहरण रोकने कृष्ण दौड़े चले आये थे लेकिन अब वही कृष्ण देशभर में हो रहे चीरहरणों पर चुप्पी साधे क्यों बैठे हैं?
पाण्डवों को उनके हिस्से का राजपाठ तो दूर, सुई की नोक के बराबर जमीन तक देने को राजी न होना महाभारत होने का दूसरा बड़ा कारण बना परंतु क्या आज भी यही सब नहीं हो रहा?
घर-घर में बैठे कौरव आज भी पाण्डवों का हक मार रहे हैं और उनके खून से होली खेल रहे हैं लेकिन अब कोई कृष्ण किसी की मदद करने नहीं आता।
तो क्या महाकाव्य महाभारत के 'भीष्म पर्व' को अब 'मृतप्राय:' और श्रीमद्भागवत को कथावाचकों के लिए 'वैभवपूर्ण एवं विलासितापूर्ण जीवन' का 'माध्यमभर' मान लिया जाए।
क्या मान लिया जाए कि इन धर्मग्रंथों में जो कुछ लिखा गया, जो कुछ कहा गया और जो संदेश इनके द्वारा दिया गया है, वह सब छलावा है।
यदि नहीं, तो कोई कृष्ण आकर धर्म की पुनर्स्थापना का शंखनाद क्यों नहीं करता?
कैसे कोई कृपालु, कोई आसाराम, कोई प्रकाशानंद जैसा गीदड़ किसी के भरोसे को तोड़कर अपनी हवस मिटाने में कामयाब हो जाता है?
कैसे कोई उपदेशक अपने ही उपदेशों को निजी जिंदगी में तार-तार करता दिखाई देता है और मठ, मंदिर, आश्रम एवं दूसरे धार्मिक स्थल पापकर्मों को अंजाम देने के सुविधाजनक अड्डे बने हुए हैं।
हे कृष्ण! क्या ये जरूरी नहीं कि या तो अब धर्म की हानि एवं अधर्म के बढ़ने की कोई सीमा निर्धारित हो या फिर गीता में दर्ज 'यदा-यदा हि धर्मस्य... को नए सिरे से परिभाषित किया जाए।